(मास्टर उमादत्त सारस्वत, कविरत्न, विसवाँ)
आँखों देखी बात है कि एक महाशय का पेशा निरपराधों पर झूठे मुकदमे चलाना तथा झूठी-झूठी गवाहियाँ देना था। हजरत के आस-औलाद तो कोई थी ही नहीं, जिसकी उन्हें कुछ चिन्ता होती या उन्हें वास्तविक प्रेम का कुछ अनुभव होता। दूसरों को सताना, किसी प्रकार से उनसे रुपया ऐंठना तथा पराई बहू-बेटियों की इज्जत बिगाड़ना, यही उनके काम थे। जवानी का जोश, अपने समान किसी को समझते ही न थे। कई बार हल्के-हल्के दंड देकर परमात्मा ने सचेत भी किया, परन्तु वे न चेते। अन्त में उन्हें गठिया-वायु का ऐसा रोग हुआ कि उनके दोनों हाथ-पैर बुरी तरह से जकड़ गये। हिलना-डुलना तक दूभर हो गया। चारपाई ही पर खाना और उसी पर पाखाना!! जरा कुछ स्वस्थ हुये तो फिर वही करतूतें। थोड़े ही दिनों में फिर उसी रोग ने धर दबाया। लाख कोशिशें कीं, लेकिन - मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की वे अच्छे न हुए।
इतना ही नहीं, कुछ दिनों में उनकी आंखों ने भी जवाब दे दिया। बड़ी बुरी दशा को प्राप्त हुए। अभी दो ही वर्ष तो हुए है जब उनकी मृत्यु हुई है।
अधर्म पर चलने वाला कभी सुखी नहीं रह सकता है, यह ध्रुव निश्चित है।