(प. प्रेमनारायणजी शर्मा, गि. कानूनगो, अम्बाह)
सन् 1917 की बात है- मैं बहुत सख्त बीमार हुआ। सारे बदन में फुन्सियां हो गई थी, बहुत ज्यादा तकलीफ थी। मुझे खुद अपने से नफरत हो गई थी। एक दिन लश्करबाड़े पर टहलने गया। घर लौट रहा था कि रास्ते में खिलौने बिक रहे थे, खिलौने शारा मिट्टी के थे। मैंने उनमें से एक पैसे की हनुमानजी की मूर्ति खरीदी, पूजन करना शुरू कर दिया। पूजन विधि तो जानता न था, परन्तु लगन सच्ची थी। प्रातः काल 3-4 बजे रोज उठना, कुएँ पर से अपने हाथ से पानी लाना, मूर्ति को स्नान कराना, चंदन चढ़ाना, आरती करना। मेरा कष्ट एक सप्ताह में ही दूर हो गया, स्वप्न में दर्शन हुए। मुझे इससे अपार आनन्द हुआ कि, 6 माह बीमार रहा था, पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई थी, परन्तु प्रभु की दया से परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। रामायण जी का पाठ सन् 1941 तक करता रहा। इसके बाद साधु-महात्माओं के दर्शनों की इच्छा उत्पन्न हुई और जहाँ कहीं महात्माओं का पता लगे, उनके दर्शन करने जाना, जीवन का यह मुख्य कर्त्तव्य हो गया।
लश्कर में सख्या विलास के सामने हनुमान टेकरी है, वहाँ नित्य दर्शनों को जाना और टेकरी के नीचे कुएँ से बाल्टी जल भर कर मन्दिर में रखता। कभी-कभी मेरे एक मित्र भी साथ जाते। एक दिन हम दोनों ने हनुमानजी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना की। मैंने तो माँगा -”घोड़े की सवारी, खाकी कपड़े और साथ में अर्दली।” उन्होंने माँगा - ‘कुर्सी पर बैठ कर जीवन व्यतीत करना।” कैसी देवी कृपा है कि आज मैं गिरदावर कानूनगो हूँ और वे स्कूल मास्टर हैं।