(ले. श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त ‘कमलेश’, मौदहा)
विचलित न कभी गति हो मन की!
मतिमन्द हों या मतिमान बनें,
निर्धन हों या धनवान बनें,
बलहीन हों या बलवान बनें,
गुणरिक्त हों या गुणवान बनें,
कुछ भी हो दशा अपने पन की।
विचलित न कभी गति हो मन की॥
पग-पग पर दुर्गम नाले मिलें,
पथ में बिछे भीषण-भाले मिलें,
या उत्तम शाल-दुशाले मिलें,
महलों के विलास निराले मिलें,
गति एक सी हो सब में तन की।
विचलित न कभी गति हो मन की॥
अति तप्त हो या शीतल जल हो,
अंगार हो या हिम का दल हो,
वर्षा हो चाहे सूखा थल हो,
सब में सदैव इकसा फल हो,
दुनिया बतलाये चाहे सनकी।
विचलित न कभी गति हो मन की॥
विष में अमृत का मान रहे,
सोना और धूल समान रहे,
सब जग अपना मेहमान रहे,
परहित का निश दिन ध्यान रहे,
हो स्वर्ग सदन या गुफा वन की।
विचलित न कभी गति हो मन की॥