मेरा धर्म प्रेम

August 1942

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(श्री रामप्रसाद सिंह, सिसहनी, गोंडा)

मैंने बहुत से धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय किया परन्तु मेरी समझ में नहीं आया कि धर्म का पालन एक गृहस्थ कैसे कर सकता है। धर्मग्रन्थों ने सत्य की जैसी व्याख्या की है, राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य का जिस तरह पालन किया है, उस तरह से यदि हम किसान अपने गृहस्थ जीवन में करें तो गृहस्थी की गाड़ी एक कदम नहीं चल सकती। किसान जीवन गृहस्थी में ऐसा होता है कि दुष्ट लोग जिसे समझते हैं कि ये महाशय झूठ नहीं बोलते, हिंसा, चोरी, कूटनीति, मुकदमेबाजी इत्यादि अवगुणों से कोसों दूर रहते हैं, उनकी फसलों को पशुओं से चरा लेना, घर में चोरी कर लेना इत्यादि कर्म करने में जरा भी संकोच नहीं करते, ऐसी कई घटनायें मेरे साथ घटित हुई जिससे धर्म पर से मेरा विश्वास उठा दिया। मैंने एक पत्र अखण्ड ज्योति सम्पादक के पास लिखा और उनसे पूछा कि जिनको मैं चोर समझता हूँ, परन्तु पकड़ नहीं पाता- उनसे मैं किस तरह बच सकता हूँ, सत्य प्रेम न्याय का पालन पूर्णरूप से करते हुए अपने और अपने ऐसे और भाइयों के साथ होने वाले अत्याचारों को किस तरह बन्द कर सकता हूँ। शर्मा जी ने मुझे लिखा- ‘जिस तरह एक डॉक्टर रोगी के फोड़े में नश्तर चुभा कर, उसे रुला कर, पाप का भागी नहीं होता, उसी तरह आपको भी दुष्टों की दुष्टता दूर करने के लिये, समाज से बुराई दूर कर भलाई की स्थापना के लिये सच्चे हृदय से प्रयत्न करने में यदि असत्य, चोरी, हिंसा, कूटनीति से भी काम लेना पड़े तो यह अधर्म का कार्य नहीं कहा जा सकता।’ इस पत्र ने मेरी आंखें खोल दीं, मेरे मन में जितनी ही धर्म के प्रति घृणा उत्पन्न हुई थी, उतना ही दृढ़ प्रेम हो गया।


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