(श्रीमती विष्णु कुमारी देवी सिन्हा, लखनऊ)
मेरे जन्म से लगभग पूर्व मेरे जन्मदाता अपने पिता जी के लिए नौकर के साथ माँस लेने गये थे। 19 वर्ष की आयु थी। वहाँ उन्होंने जीव को कटते हुए और तड़फड़ाते हुए देखा। उस दृश्य का उनके ऊपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह वापिस चले आये और पिता जी से स्पष्ट कह दिया कि मैं भविष्य में न तो कभी माँस खाऊँगा और न कभी छुऊँगा। काफी सख्तियाँ की गईं, पर वे अटल रहे, इस घटना के बाद मैंने शरीर में प्रवेश किया।
जन्मदाता की इस वृत्ति का मेरे मन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि घर के अन्य सब व्यक्ति मुझे लोभ एवं भय से फुसला कर माँस खिलाना चाहते थे, पितामह मेरी दुर्बलता का एक मात्र उपाय माँस खाना ही बताते थे, पर किसी को सफलता न मिली। एक दिन पितामह मुझे अपने साथ ले गये और उन्होंने मेरे मुँह में माँस रखा, इस पर मैंने वहीं उनकी थाली में ही उलटी कर दी और इस कठिन प्रयोगवश बहुत दिनों तक रोगी रही। पुनः मेरे साथ यह प्रयोग नहीं किया गया। दस वर्ष की अवस्था तक मैंने भयवश तरबूज नहीं ग्रहण किया।
इस घटना का सम्बन्ध जो भी हो, वास्तव में मेरे जन्मदाता का सत्पथ पर आरुढ़ होना ही मेरा जीवन सुधार है। आज संसार को दुखों से छटपटाता देखकर मुझे जी आन्तरिक वेदना होती है, इसका कारण भी पिताजी की वह दया भावना ही है। निस्संदेह माता-पिता के गुण स्वभावों का सन्तान पर बहुत अधिक असर होता है।