कर्म का फल

August 1942

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(श्री पं. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा प्रधान अध्यापक, बाय)

मैं.................मिडिल स्कूल में बहुत अच्छी तरह कार्य कर रहा था, मुझे अपने सहकर्मियों से कोई द्वेष न था, पर वे एक बात से ऐसा ख्याल करने लगे कि यह व्यक्ति हमसे खिलाफ है, मैं उनकी व्यर्थ ताश, चौपड़बाजी में शरीक न होता था और खुशामद पसन्द भी न था, विशेष लिख नहीं सकता, क्योंकि राजनैतिकता आने का डर है ऐसा व्यर्थ विचार करके तीन व्यक्तियों ने मेरा तबादला दाँते का करा दिया जो एक खराब सी जगह समझी जाती है, मेरे लिए दाँता नरायने से भी अच्छा रहा और उन तीन व्यक्तियों में से एक पदच्युत हुआ, एक का लड़का और दूसरे की स्त्री देहान्त 6 मास के अन्दर हो गया। व्यर्थ के द्वेष का बीज बोने का फल ऐसा ही हुआ करता है।

..........स्कूल का हैडमास्टर पुराने ख्याल का कूप मंडुक के से विचार का व्यक्ति था, जिसको अपनी योग्यता पर कतई विश्वास नहीं था, मुझे स्वामी जी के विचारानुसार कि ‘बुरा करने वाले का भी भला करो, एक दिन वह अवश्य पश्चाताप के साथ तुमसे मिलेगा।’ उससे बिलकुल द्वेष न रखता था, पर वह मेरी योग्यता पर मन ही मन कुढ़ता रहता था, मैं उचित कार्य के लिए भी कहता तो उसे अस्वीकार करता था और व्यवहार भी उसका पक्षपात लिए हुए था, कई महीनों पश्चात् मेरे भी कुछ द्वेषपूर्ण विचार हो गये थे, पर क्रियात्मक नहीं, वह क्रियात्मक रूप से भी तरह-तरह के दोष लोगों के सामने तथा सरकार में करने लगा और मुझे नीचा दिखाने तथा हानि पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न करने लगा। इस कार्य में सहायक 2, 3, नीच वृत्तियों के मनुष्य भी थे, जिनकी वह संगति किया करता था।

ईश्वर न्यायकारी है, ग्राम में एक ऐसा उपद्रव मचा कि गाली-गलौज तो कई दफा हुई, पर दो दफा तो पिटते-पिटते बचे और अन्त में साथियों सहित जुर्माने के भागी बने। सच है बुराई का बुरा फल है, भलाई का भला फल है, बुराई जो करेगा बुरा फल क्यों न पावेगा।


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