जीवनधारा का प्रवाह

August 1942

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(श्री रामेश्वरदयाल जी दिग्धर गोरमी)

अपनी ग्राम्य पाठशाला की शिक्षा समाप्त करके मैं गोहद के बड़े स्कूल में भरती हो गया। गाँव में भोला-भाला था, पर बड़े स्कूल और बड़े कस्बे के वातावरण ने मुझे दूसरे ही साँचे में ढाल दिया। वहाँ पहुँचने पर कुछ ही समय में मैं अव्वल दर्जे का उद्दण्ड, उच्छृंखल हो गया। इसी बढ़ी हुई उच्छृंखलता को देखकर कोई भी व्यक्ति मेरे भविष्य को ‘अन्धकार पूर्ण’ कह सकता था। मेरे आचरण दिन-दिन उद्धत होते जा रहे थे।

किन्तु ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है। अखंड ज्योति का यह कथन कितना सत्य है कि “ईश्वर स्वयं ही प्राणियों को अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचाने के लिये प्रयत्नशील है। वह हमारी गुत्थियों को निरन्तर खोलता हुआ जा रहा हैं।” मेरा निजी प्रयत्न कुछ न था, पर स्कूल छोड़ने से कुछ ही समय पूर्व एक गीताप्रेमी सहपाठी से मित्रता हो गई और उसके प्रभाव से गीता जी से मेरा प्रेम बढ़ गया। परीक्षा देकर घर आया, परिस्थितिवश आगे न पढ़ सका और कोई विशेष ऊँचा सत्संग भी प्राप्त न हुआ, तो भी उस सहपाठी मित्र द्वारा बोया हुआ गीताप्रेम का बीज अंकुर होकर बढ़ने और फलने फूलने लगा। कल्याण, अखंड ज्योति आदि पत्रों तथा उत्तमोत्तम पुस्तकों के स्वाध्याय से आत्मोन्नति की प्रक्रिया आगे बढ़ने लगी।

मैं देखता हूँ, जीवन की गुत्थी स्वयं सुलझती जाती है। ईश्वर भुजा पकड़ कर आगे-आगे घसीटता ले जा रहा है। जीवन सरिता अपनी निर्धारित दिशा में प्रबल वेग के साथ बहती हुई चली जा रही है। आज का जीवन दोषों और त्रुटियों से भरा हुआ है, तो भी परम पिता की अपार दया पर विश्वास रखता हुआ मैं अनुभव करता हूँ कि एक दिन यह सरिता महासागर में अवश्य मिल जायेगी। जीवन का परम ध्येय मैं अवश्य प्राप्त कर लूँगा, क्योंकि अनायास ही भगवान वैसे साधन जुटाते चले जा रहे हैं।


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