(श्री बालेश्वर सिंह, अरक, शाहाबाद)
मैं छः-सात साल का था, मेरे चाचाजी तीन बजे रात से ही भजन गाने लगते। मैं उठ बैठता और श्रद्धा से सुना करता। वे गाते न अघाते और मैं सुनते न अघाता। इसका मुझ पर बड़ा भारी असर पड़ा। मेरा घर ही मेरे लिए धर्म की प्रारम्भिक पाठशाला सिद्ध हुआ और चाचा जी ही मेरे आदि गुरु। मैं भी निर्जन मैदान में निकल जाता और प्रेम में मस्त हो कर घण्टों तक गाया करता। आँखें छलक पड़ती, हृदय पुलकित हो जाता।
तेरह-चौदह साल की अवस्था हुई। मैं स्कूल में पढ़ता, किन्तु बाहरी पुस्तकें पढ़ने तथा एकाँत सेवन से अधिक आनन्द अनुभव करता। गीता का अध्ययन किया और जीवन की अनेक गुत्थियाँ सुलझ गईं। धार्मिक पुस्तकें पढ़ने का मैं आदी हो गया और उसके लिए रात-रात भर जागा करता।
सन् 1939 की बात है। मुझे गाँव छोड़कर शहर में आना पड़ा। यहाँ पर एक घटना ने मेरे जीवन को, मेरी विचारधारा को और भी परिवर्तित किया। मेरी एक मित्र से घनिष्ठता इतनी बढ़ी कि वही मेरा सब कुछ हो गया, उसी के लिए जीना, उसी के लिए मरना। कुछ दिन यों ही गुजरे।
एक वर्ष बाद उसका मन मुझ से उचट गया। आना, जाना, बोलना, चालना सभी कुछ बन्द।
मन में अशान्ति का कोलाहल मचा रहता। जीवन पहाड़ सा प्रतीत होने लगा। रात का समय था, चार दिन बिना खाये हो गये थे। नींद का पता तक नहीं। आँखें पावस का मेघ बन रही थीं। दो बजे, थोड़ी देर को आँख लग गई। मैंने सुना, कोई कह रहा था- ‘नादान! प्रेम के आदि भण्डार परमेश्वर को छोड़कर, नाशवान शरीर के मोह में उलझा फिरता है। उठ, मोह को त्याग और प्रेम को पहचान।” मैं चौंक कर उठ बैठा। वे अज्ञात शब्द मेरे मस्तिष्क में गूँजने लगे, विचारों में घोर परिवर्तन हो गया।
मित्र से फिर स्वभावतः मिलन हो गया। पर अब विरह नहीं सताता। अब वियोग में भी संयोग का अनुभव करता हूँ। जिधर देखता हूँ प्रेममय परमात्मा की ही चलती फिरती प्रतिमाएँ नजर आती हैं। विरह और शोक का नाम नहीं, चारों ओर आनन्द ही आनन्द का सागर लहराता नजर आता हैं। अब-
हुई दया उसकी अब, मन से निकल गई जड़ता है।
जहाँ देखता हूँ जल-थल में, वही दीख पड़ता है॥