दो अनुभव!

August 1942

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(ले. - पं. श्यामजी शर्मा काव्यतीर्थ, प्राँत बिहार)

1- मैं मकान बनवा कर छत पिटवाने की आरंभ करता था। इसी बीच में स्टेशन से दो-एक गाड़ी जलावन का कोयला मँगाया। गाड़ीवान ने कोयले के मालिक से छिपा कर दो एक मन कोयला अधिक लाद लिया और अधिक माल का मूल्य माँगने लगा। मैंने कहा भाई! जब तुम चुपके से माल उठा लाये हो तो इसका पूरा मूल्य देने में हमें क्या लाभ? दोनों में रजामन्दी हो गई। गाड़ीवान माल का आधा मूल्य लेकर चला गया। मुझे आधा माल मुफ्त मिल गया, छत पिटवाने लगा। राज-मिस्त्री के मिथ्या अभिमान के कारण छत की चूना सुर्खी सूखने भी नहीं पाई थी कि नीचे का आश्रय हटा दिया गया। छत लिंटर का था, ऊपर से पानी दे दस-बारह मजदूर पीटने लगे। छत फट कर नीचे आ पड़ा, राजमिस्त्री और मजदूर भाग्य से बचे। 1)एक रुपया के नाजायज माल के कारण 100)एक सौ रुपया का घाटा हो गया। मैं पहले से भी किसी का एक एक पैसा भी लेना अन्याय समझता था, पर इस बार लोभ ने अपना प्रभाव जमाया, जिससे हानि उठानी पड़ी।

2- एक मौलवी साहब असिस्टेंट स्टेशन मास्टर हैं, वह मेरे चिर परिचित हैं, तथापि सर्विस में हैं, इससे उनका नाम नहीं धरता, जो कुछ लिख रहा हूँ उनके स्वमुख का कहा हुआ है, वह बहुत खुदापरस्त सज्जन मुसलमान हैं। युवावस्था में वेतन के अलावा कुछ नित्य उपार्जन कर लिया करते थे, फिर भी महीने के अन्त में उन्हें कुछ दूसरों से माँगने की जरूरत पड़ जाती थी। एक बार कोई फकीर उनके घर आये। मौलवी साहब ने उचित अतिथि सत्कार किया, कथा प्रसंग में उन्होंने फकीर से अपनी दयनीय विवशता का जिक्र किया। फकीर ने कहा- आप नाजायज तरीके से जो मुसाफिरों से लेते हैं, उसको बन्द कर दीजिये और अपना वेतन बीबी के हवाले कर खुदा का नाम लेते रहे।’ मौलवी साहब ने उस फकीर के उपदेश को मान वैसा ही कर दिया। अब वह सब तरह से खुशहाल हैं, कई बीघा खेत खरीद चुके हैं। स्टेशन में अपने वक्त पर काम करना और तस्बीह (माला) पर खुदा का नाम जपना यही उनका मुख्य काम है, बड़े आनन्द में रहते हैं, पुत्रों को पाल भी रहे हैं।


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