भगवान् की कृपा

August 1942

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(ले. श्री “प्रेम-पथ-पथिक,” बेगूसराय)

(1)

उस समय मैं किसी कार्यवश काशी गया हुआ था। एक दिन इच्छा हुई जरा गंगा-तट का आनन्द लूँ। घूमता-घामता ‘तुलसी घाट’ पर जा पहुँचा और सीढ़ियों पर बैठे, भगवती भागीरथी की तरल तरंगों का कलकल नाद सुनने लगा। उस समय उस घाट पर केवल इने-गिने लोग थे। इतने में एक सर्प न मालूम यकायक कहाँ से आ पड़ा और मेरे पैर के निकट आ पहुँचा। मैं कुछ विस्मय और डर से उठ खड़ा हुआ, पर इतने में ही वह सर्प न मालूम कहाँ गायब हो गया। संध्या हो चली थी, अतएव मैं घर जाने की तैयारी में था। किन्तु उसी क्षण पीछे से आवाज आई - “...............” “.................” (मेरा नाम)। मैंने पीछे देखा। आज भी वह स्वरूप नहीं भूलता। मोटा-ताजा शरीर, कमर में बाघम्बर, बड़ी- बड़ी जटायें, शरीर से एक अजीब ज्योति निकलती हुई, साक्षात् भगवान् काशीनाथ से दीख पड़े। मैं एकटक देखता रहा और बस, पशुपतिनाथ अंतर्ध्यान हो गये। मैं झटपट वहाँ पहुँचा, खूब ढूँढ़ा, पर पता न पाया। निराश तथा प्रसन्न होता हुआ घर लौट आया, पर हृदय में एक अजीब सजीवता तथा प्रसन्नता होती रही।

(2)

मेरे आराध्य गुरुदेव ने मुझे कुष्य-व्याधि सम्बन्धी एक मन्त्र लिखवा दिया था और बस मैंने अपनी नोट-बुक में दर्ज कर लिया था। एक दिन किसी रोगी के लिए दवा देखने को नोट-बुक की जरूरत पड़ी, पर खूब ढूंढ़ने पर भी वह न मिली। मैंने घर पर किसी से पूछ-ताछ नहीं की, क्योंकि उनको नोटबुक की कोई जानकारी न थी।

दूसरे दिन जैसे ही मैंने कुर्सी पर बैठना चाहा, मुझे कुर्सी पर कुछ चीज दिखाई पड़ी। मैंने डरते हुए उसे उठा लिया। देखा कि, एक रुमाल में ठीक से बँधी वही नोट-बुक है, जिसे मैं ढूँढ़ चुका था। मुझे गुरुदेव की कृपा का स्मरण हो आया, क्योंकि यह उन्हीं की कृपा से बिना प्रयास मिल गई।


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