(श्री शिवकुमारजी अग्रवाल, नजीबाबाद)
मेरे एक मित्र मुझे अपना निजी अनुभव सुनाया करते हैं, वे बताते हैं कि- “जीवन के आरम्भिक दिनों में मेरी आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी, परन्तु चालाकियाँ कूट-कूट कर भरी हुई थीं। घर में जो पैसा मिलता, उसे मित्र मण्डली में खुले हाथों उड़ा देता। आखिर इस तरह कितने दिन काम चलता? पैसे का अभाव अखरने लगा, मैंने एक साहूकार के यहाँ पच्चीस रुपया मासिक पर नौकरी कर ली। सेठ जी सीधे-साधे व्यक्ति थे, उन्होंने मेरे ऊपर विश्वास कर के प्रमुख कार्यकर्ता का भार सौंप दिया। मुझे मनचाहा खर्चा करने का अवसर मिल गया।”
“परन्तु बेईमानी ज्यादा दिन छिपती नहीं है। जब भण्डा फूटने लगा, तो मैं वहाँ से भाग खड़ा हुआ। स्त्री-पुरुष सब बिलखते रह गये। मुझे जान बचाने के लिए भागना आवश्यक था। पैसा जितना चुराया था, वह फिजूल-खर्ची में उड़ गया। अपने पल्ले बेईमानी, बदनामी, पाप और विश्वासघात बँध गये। दर-दर की ठोकरें खाता, इधर-उधर छिपता फिरता था और सेठ जी के सर्वनाश करने, मित्रों को धोखा देने के कुकृत्यों को स्मरण करके बिलख-बिलख कर रोता, अपनी नीचता पर बड़ी लज्जा आती और आत्मा-हत्या को जी चाहता।”
“ऐसे अनिश्चित जीवन से तंग आकर साधु बनने की इच्छा से निर्जन वन की ओर चल दिया और वहीं घास-पात खाकर रहने लगा। एक दिन एक वृद्ध संन्यासी से मेरी भेंट हुई, उन्होंने मेरे मन की दशा जानी और अपने साथ ले गये। कई दिनों उन्होंने नाना प्रमाण और उदाहरणों से अधर्म के दोष और धर्म के गुण बताये। उन्होंने उपदेश दिया कि तुम धर्मपूर्वक जीवन बिताओ और संसार में आनन्दपूर्वक रहो। उनके अमृतमय उपदेशों से मेरी काया पलट गई और अब पुराने दुर्गुणों को छोड़ कर धर्म पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।”
मित्र के इस महत्वपूर्ण अनुभव से मुझे विश्वास होता है कि- (1) अधर्म करने वाला कितना ही चतुर क्यों न हो, एक दिन उसके पाप का भण्डा अवश्य फूटता है, तब उसे अपनी चतुराई दुखों की जननी ही प्रतीत होती है। (2) किसी व्यक्ति का पिछला जीवन कितना ही बुरा क्यों न हो, पर यदि वह भविष्य में धर्म पर चलें तो फिर भी आनन्द और प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है।