भूत की करतूत

August 1942

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(ले.- श्री अविनाशचन्द्र खरे, सिघनी)

मेरा फुफेरा भाई बीमार था। उसके लिए दूध लेने पास के गाँव में जाना पड़ता था। रास्ते में गाँव का कब्रिस्तान पार करना पड़ता था। एक दिन दूध लेकर लौटते समय एक आश्चर्यजनक घटना हो गई। कब्रिस्तान में एक पीपल का झाड़ था, मैंने देखा पीपल के झाड़ के आस पास आग जल रही हैं और आग के आस- पास बहुत से नंगे मनुष्य नाच रहे हैं। मैंने सुन रखा था कि कब्रिस्तान में दूध लेकर जाने से भूत अधिक सताते हैं। उस समय मेरे पास दूध भी था, मैं डरा शायद वे भूत हों। मैं गायत्री का जप कर आगे बढ़ा। पीपल के झाड़ के पास पहुँचा तब देखा कि आग भी नहीं है और वे मनुष्य या भूत भी नहीं हैं। किन्तु वहाँ चमकती हुई हजारों आँखें पड़ी हुई हैं। मैं इस दृश्य को देखकर घबरा गया। थोड़ी देर बाद वे आँखें यकायक गायब हो गई। इसके बाद फिर वही पहले वाला दृश्य दिखाई देने लगा। इस घटना से मैं बहुत डर गया और जैसे-तैसे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ घर पहुँचा।

इससे पहले मैं भूत-प्रेतों को न तो मानता और न उनके अस्तित्व पर विश्वास करता था। पर इस घटना ने मुझे विवश कर दिया कि वास्तविकता की जानकारी प्राप्त करूं। कई जानकार सज्जनों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि अधर्ममय जीवन बिताने वाले मनुष्यों को भूत-प्रेत की योनि मिलती है। उन्हें बुरा भोजन मिलता है। इसलिये दूध आदि सात्विक भोजनों को देखते ही उनकी स्वादेन्द्रिय विह्वल हो उठती हैं। किन्तु सदिच्छापूर्वक दिया हुआ भोजन ही उन्हें मिल सकता है। भूत-प्रेत दीखते तो है नहीं, जो कोई उनकी मन की बात को जानकर सदिच्छा से कुछ दे, ऐसा तो उनके कुटुम्बी जन श्राद्ध द्वारा ही कर सकते हैं। जब भूतों की इच्छा पूरी नहीं होती तो वे डराने धमकाने पर उतारू हो जाते हैं।

मैं सोचता हूँ क्यों मनुष्य ऐसे अधर्म कार्यों को करता है, जिससे उसे प्रेत योनि मिलती है और साधारण से भोजन के लिए इतना अतृप्त और लालायित रहना पड़ता है।


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