(पं. द्वारिकाप्रसाद जी भट्ठ, चमियानी)
मेरे अध्यापक के जीवन में एक बार स्कूल के प्रधानाध्यापक से कुछ अनबन हो गई, उन्होंने झूठी शान जमाने की कोशिश की, मुझे इतना परेशान किया गया कि मैं संघर्ष में पड़ गया और राजकीय दण्ड विधान उठ गया।
मैं वास्तविक अपराधी नहीं था, तो भी भय था कि अधिकारी वर्ग जो कि प्रधानाध्यापक के सजातीय है, मेरे साथ अन्याय न कर बैठे। रात को एकान्त में बैठ कर रोता रहा और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा-नाथ! निर्दोष की रक्षा करना।
अपराधी की तरह जब जिले के दफ्तर में हाजिर हुआ तो क्या देखता हूँ कि प्रधान अधिकारी के घर रोना पीटना शुरू है। मालूम हुआ कि उनके इकलौते पुत्र की असह्य बीमारी का तार आया है। सारे दफ्तर में उदासी छाई हुई है। देखा कि सभी लोगों का झुकाव उस दुखद समाचार ने धर्म की ओर कर दिया है। निर्दोष को सताने का किसी का विचार नहीं है।
मैं धर्मशाला में जाकर स्नान-पूजन में लग गया। दूसरे दिन बिना पूछे, जाँचे, अपने स्थान पर काम करने के लिए मुझे भेज दिया गया। मैंने देखा कि ईश्वर है और वह निर्दोष को अन्याय से छुटकारा दिलाने में सक्रिय सहायता देता है।