सच्चाई का व्यापार

August 1942

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(श्री सूर्यप्रकाश जी शुक्ल, बढ़ापुर)

जब चौथी कक्षा पास करके आगे का विद्याध्ययन करने के लिए घर छोड़ कर बाहर जाना पड़ा। चलते समय पिता जी ने शिक्षा दी कि “पुत्र! सदा सच बोलना, सदा सत्य ही की विजय होती है।” मैंने उनकी शिक्षा को गाँठ बाँध लिया। पहले दो साल तक प्राइवेट पढ़ता रहा, इसके पश्चात् एक अंग्रेजी स्कूल में सातवें दर्ज में भर्ती हो गया। मैं अपनी कक्षा में इसी शिक्षा के अनुसार काम करता रहा। जो बात होती, सच-सच कह देता, इसी पर कभी-कभी तो हमें दण्ड भी सहना पड़ा। परन्तु जब एक वर्ष व्यतीत हुआ और आठवीं कक्षा में पहुँचा तो सब लड़कों की ओर से मुझे ‘न्याय मंत्री’ बनाया गया। लड़कों के झगड़े मेरे पास आते और उन्हें जिस तरह तय कर देता, उसे दोनों पक्ष मानते थे। यह पद दसवीं कक्षा तक मुझे ही प्रति वर्ष मिलता रहा।

विद्यार्थी जीवन तो इस प्रकार व्यतीत हो गया; अब साँसारिक जीवन बिताने का प्रश्न सामने आया। जीविकोपार्जन के लिए कपड़े का व्यापार करना उचित समझा। माल लेने के लिये दिल्ली पहुँचा। मैंने एक दलाल को साथ लिया। वह जिस दुकान पर जाता और थान का दाम पूछता तो दुकानदार कुछ माँगता, दलाल कुछ चाहता, इस तरह बड़ी जद्दोजहद के बाद एक थान के दाम तय होते। उनके इस झूठे व्यापार को देखकर मुझे बड़ा कष्ट हुआ और देहली का बाजार छोड़ कर सीधा कानपुर पहुँचा। वहाँ की दुकान पर एक दाम का बोर्ड लगा हुआ था और उसके नीचे लिस्ट टँगी हुई थी, जिसमें कपड़े का नम्बर, उसका मूल्य लिखा हुआ था। मुझे उनकी सचाई पसन्द आई और उन्हीं के यहाँ से कपड़ा लेकर ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ वापिस चल दिया कि ‘तूने जैसे को तैसा मिला दिया।’

दुकान खुली तो बड़ी कठिनाई हुई। ग्राहक आते और माँगी हुई कीमत में कमी करने को कहते। मैं अपनी बात पर डटा रहता। इस प्रारम्भ में तो यह मालूम पड़ा कि दुकान इस तरह न चलेगी। परन्तु मैंने निश्चय कर लिया था, चाहे दुकान बन्द करनी पड़े, पर झूठ न बोलूँगा। फल यह हुआ कि कुछ दिन में मेरी सचाई सब पर प्रकट हो गई और ग्राहक बिना मोल भाव किये हुए कपड़ा ले जाने लगे। अब हमारी दुकान बड़ी अच्छी तरह चल रही है। जो लोग यह कहते थे कि सचाई से व्यापार नहीं हो सकता, उन्हें हमारा व्यापार देखकर लज्जित होना पड़ता है।


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