(महात्मा गोपालदास जी महाराज, बघोई)
मैं नौ वर्ष का था, तब एक बार हमारी जन्म भूमि में रास करने वाले आये, उन्होंने एक दिन प्रहलाद लीला दिखाई। इस दृश्य को देखकर मैं इतना प्रभावित हुआ कि आगे चलकर रामलीला करने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियों में काम करने वाला हो गया। इच्छा अपने लिए मार्ग निर्माण कर लेती है। रास देखकर मुझ पर जो प्रभाव पड़ा था, उसने मुझे आखिर रासधारी ही बना दिया।
जिस कम्पनी में काम करता था, वह पंजाब में उन दिनों काम कर रही थी। हमारे मास्टर और डायरेक्टर साहब एक दिन सुलफे की चिलम उड़ा रहे थे और गीता पढ़ रहे थे। गीता में श्री विराट भगवान का चित्र था, मैं सोकर उठा तो उस चित्र को देखने के लिए पास खिसक आया। इस पर डायरेक्टर साहब नाराज हुए और कहा - “तू इसे देखने का अधिकारी नहीं है।”
“मैं अधिकारी नहीं हूँ, मनुष्य होकर ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी नहीं हूँ, इस ताने ने मेरे मन में कोलाहल मचा दिया। वहाँ से उठकर चल दिया, पर निश्चय किया कि मैं अधिकारी होकर रहूँगा।” गीता के अध्ययन का क्रम चलने लगा। कम्पनी के अन्य कार्यकर्ता जब तीन बजे खेल खत्म करके गहरी नींद में सो जाते, मैं केवल एक डेढ़ घन्टे सोकर उठ बैठता और लालटेन जलाकर गीता पढ़ने लगता। जब तक साथी सोकर न उठते, तब तक गीता पढ़कर, आध मील दूर नहर में स्नान करके वापिस आ जाता।
धीरे-धीरे ज्ञान में वृद्धि होती गई और मैंने सब कुछ छोड़कर आत्म कल्याण के लिए, गृह छोड़ कर संन्यास ले लिया। अब मैं साधु जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।
पाठक देखेंगे कि घटनाओं, संगतियों और परिस्थितियों के प्रभाव से जीवन उसी प्रकार लुढ़कता हुआ आगे बढ़ता है, जैसे पत्थर का टुकड़ा नदी की धार के साथ घिसटता हुआ समुद्र में पहुँच जाता है। इसलिए हमें वैसी ही घटनाओं, संगतियों और परिस्थितियों को अपनाना चाहिए, जैसा कि बनना चाहते हैं।