(पं0 गणेशप्रसाद मिश्र विशारद, भिटौरा)
अज्ञात पूर्व जन्म के कर्मवश मैं 4 वर्ष तक पृष्ठ भाग के व्रणक्षय से पीड़ित रहा। दस-बारह प्रान्तों के प्रसिद्ध अनुभवी वैध और डाक्टरों के औषधोपचार से कुछ लाभ न हुआ तथा मेरे समस्त कुटुम्बी जन और शुभ-चिन्तक गण मेरे जीवन से निराश हो गये थे, किन्तु मुझे ईश्वर के प्रति हार्दिक दृढ़ विश्वास बना रहा कि कर्मदंड भोग ही से नाश को प्राप्त होगा और फिर न्याययुक्त भगवदेच्छा होगी, वही परिणाम होगा। शास्त्र में भी कहा गया है कि -
‘अवश्य मेव भोक्तव्यं, कृतम् कर्म शुभाशुभम्।
कृतं कर्म क्षयोनास्ति, कोटि कल्प शतैरपि।”
इस प्रकार मेरा औषधोपचार का साहस किसी प्रकार कम न हुआ। कर्म जारी रहा, मेरे पूर्व पाप कर्मों का भगवद्कृपा से क्षय हुआ। फलतः अन्तिम चौथे वर्ष पूर्ण स्वस्थता प्राप्त हुई, तभी से मेरा जीवन विशेष रूप से और भी धार्मिक बन गया और साथ- साथ श्रीमद्भगवद्गीता एवं ईश्वर के प्रति अनन्य श्रद्धा बढ़ गई जो निरन्तर आगे बढ़ती जाती है।
इस प्रकार मैं देखता हूँ कि कष्टदायक रोग भी मुझे धर्म मार्ग पर अधिक अग्रसर करने में सफल हुआ। बुराई में भी कुछ भलाइयाँ छिपी रहती हैं।