जोगिनी की प्रणय लीला

August 1942

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(वि. भू. पं. मोहन शर्मा सं, मोहिनी इटारसी)

एक सुदूरस्थ देशी राज्य के राजप्रसाद से लगे हुए अतिथि -गृह में मैं अपने एक विश्वासी भृत्य को लेकर ठहरा था। एक समूचा दिन और दो काली रातें जैसी आई वैसी ही चली गईं। पर यहाँ के राज्याधिपति, रियासत के सैर सपाटे से उस समय तक भी लौट कर नहीं आयें। वक्त काटने और एकान्त सेवन के लिये मैं धोती, तौलिया सम्हाल कर पूर्वीय मार्ग से जय सागर की ओर चल पड़ा। सघन अमराई के बीच की मेदिनी में अपनी पुरातन स्मृति को समेटे हुए जय सागर लहरा रहा था। बीच-बीच में किनारे से पक्के घाट बँध रहे थे। एक निभृत स्थान पर मैंने स्नान सन्ध्योपासन आदि किया और ज्यों−ही लौटने के उद्देश्य से मैं पश्चिमीय मार्ग पर बढ़ा था कि ठीक सामने से पगडण्डी पर किसी के पायल की ध्वनि सुनाई दी। एक नवयौवनसम्पन्ना रमणी सिर पर ताँबे का घड़ा रखे छिछले उतार की ओर बढ़ रही थी। हम दोनों का फासला जैसे ही कम होता गया, आँखों में बसी हुई पवित्रता ने अनुभव किया कि किसी ने हम पर व्यर्थ ही आँखें गड़ा दी हैं। उससे कतरा कर पास से निकल जाने पर मैंने मुड़ कर देखा तो वह ठिठुक कर खड़ी थी। कोई न देखे। पर सर्वदृष्टा परमात्मा तो यह सब देख ही रहा था।

दोनों ओर से प्रश्नोत्तरी छिड़ गई। एक ओर से नाहक की छेड़छाड़ और दूसरी ओर जान साँसत में फंसी थी। उसकी, आँखों में खुला प्रेम प्रस्ताव कुलांचे मार रहा था। ऊपर से तुहमत यह कि ‘वह तुम्हीं हो जो पिछले साल राजा के यहाँ दशहरा के जश्न में आये थे” मैंने लाख इनकार किया और सफाई भी दी, पर इसकी वहाँ थोड़ी भी गुजर नहीं हुई। मैंने आई बला से कन्नी काटने के लिये अपने लम्बे कदम बढ़ाये, परन्तु पीछे से फिर कोई आर्त्त वाणी में कह रहा था- “ठहरो जी! मैं अभी घड़ा भर कर आती हूँ।” मैंने अब मार्ग बदल दिया था, पर मुझे क्या पता कि उसकी झोंपड़ी उसी पगडंडी पर आगे है। वृक्षों की एक कतार पार कर लेने पर कुछ झोंपड़ियाँ दिखाई दीं। यहाँ पीपल के चबूतरे पर टेढ़ी टाँग वाले गदाधारी हनुमान रूप से खड़े थे। सद्यः घटित घटना की विचित्रता ने मूर्ति के तेज को हृदय से स्पर्श करा दिया। मूक वाणी से मूक हृदय के भाव अपने लिये दया और न्याय की याचना करने लगे।

राजकीय अतिथि-गृह से थोड़े फासले पर यहाँ के छात्रावास में अध्यापकों की एक छोटी-मोटी सभा भर रही थी। सद्यः घटित घटना की जिज्ञासा वृत्ति मुझे उस सभा में खींच कर ले गई। वहाँ परस्पर सम्भाषण और प्रेम परिचय हो जाने पर जब सभा का कार्य खत्म हो गया, तो कुछ नवयुवक अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच आज की आपबीती घटना का रहस्य जानने के लिये मैंने निर्भीकता पूर्वक चर्चा छेड़ दी। फिर क्या था सब लोग ठहाका मार कर हँसने लगे। छात्रावास कहकहे दीवार जैसा बन गया, एक अध्यापक ने बताया वह और कोई नहीं यहाँ की जोगिनी थी। बेचारे दूर के पथिक इसी तरह झाँसो में आकर अपना ईमान धर्म खो चुकते हैं, वहाँ नित्य ही पाप के सौदे का बाजार लगा है।

एक अध्यापक जी भावों की पवित्रता और घटनाक्रम में गर्भित सदाचार की विजय से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे विजय मूर्ति मान लिया। वे आज भी मुझे इसी शब्द से सम्बोधित करते हैं। राजाजी के स्नेह और गुणग्राहकता से मैं अब भी हर दूसरे तीसरे वर्ष राज्य में जाता रहता हूँ। पिछली यात्रा में जय सागर के समीप जाकर देखा तो न वह झोंपड़ी थी और न झोंपड़ी की मालकिन जोगिनी ही। उसके रूप का बाजार उठ गया था और वह खुद भी दीन दुनिया से कूच कर चुकी थी। इस घटना में सदाचार की रक्षा के लिये भगवान प्रेम प्रेरणा ही साधक कारण सिद्ध हुई। जो भक्तवत्सल भगवान की दया में आस्था रखते हैं, उनकी सर्वत्र ही विजय और सफलता होती है।


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