मास्टर का भय

August 1942

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(ले. श्री ल. ना. दुबे अध्यापक, सेन्धवा)

मैंने अपना बचपन ऐसे आधे दर्जन शिक्षक महोदयों की छत्रछाया में पार किया है, जिनके आतंक से हर समय चित्त भयभीत रहता था। हम लोगों का लिखने व घोटने का इतना अभ्यास घर के लिये दिया जाता कि उसकी चिन्ता में ही दिन रात घुलते रहते। सुबह स्कूल जाने में एक हिचकिचाहट, आतंक, भय, कँपकँपी और महान् आस्तिकता को भावों का आविर्भाव होता। मन में प्रार्थना करते जाते:-

“बजरंगबली मेरी नाव चली,

जरा बल्ली कृपा भी लगा देना।”

रास्ते में राम मन्दिर पड़ता था, बड़े भक्ति भाव से भगवान की पंचायतन मूर्ति को प्रणाम करके कहते थे, हे प्रभो आज और बचा देना। काम इतना अधिक होता था कि उसे पूरा करना कठिन था। बहुत कुछ काम तो चालाकी से निकल जाता था, क्योंकि मास्टर साहब को बहुत कापियाँ जाँचनी होती थीं, वे सरसरी निगाह डालते थे, उनकी इस कमजोरी से लाभ उठाने का हम प्रयत्न करते। कुछ भी हो मास्टर साहब का भय उक्त बुराइयों के साथ साथ भव भय हारी भगवान का स्मरण अवश्य कराता था।

क्रमशः माध्यमिक शिक्षण की ओर अग्रसर हुए, वहाँ भी हेड मास्टर साहब बलवन बादशाह के द्वितीय संस्कार ही मिले, जिधर आंखें घूम गई उधर ही सन्नाटा। हम लोगों ने जी तोड़ परिश्रम किया और उसका सुन्दर फल भी मिला, किन्तु पेट्रोल के स्टाकिस्ट को जैसे आग की एक चिनगारी का भय हमेशा बना रहता है, उसी प्रकार हम लोगों को भी उनके ज्वालामुखी के प्रकट हो जाने का क्षोभ अहिर्निशि बना रहता था। ऐसी परिस्थिति में हनुमान चालीसा, बजरंग वाण आदि स्तोत्रों का स्वाध्याय किया जाता था। अन्ततोगत्वा सत्साहित्यावलोकन द्वारा क्रमशः परमात्मा की नवधाभक्ति की रूपरेखा को समझने लगे। इस भूमिका के साथ ही शिक्षण शास्त्र व मनोविज्ञान के अध्ययन ने मेरे अपने मन को आध्यात्मिक तत्वों की ओर आकर्षित किया। इधर जीविकोपार्जन के साथ गृहस्थी का शकट खींचने लगा। ‘दुख में सुमिरन सब करें, के अनुसार भगवान के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध होता गया और स्वाध्याय एवं सत्संग के द्वारा मैं अपने दैनिक ब्रह्म कर्म में यथाशक्ति प्रवृत्त हुआ।

इस प्रकार मास्टर का भय अन्ततः मेरे लिए धर्मप्रेरक सिद्ध हुआ।


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