(पं. श्री राधेमोहन जी मिश्र वैद्य, बहराइच)
मेरे बाबा मुझे अत्यधिक प्यार करते थे। उनका प्रेम इतना अधिक था कि बिना मुझे कुछ खिलाये, वे स्वयं कुछ न खाते थे। चौदह वर्ष तक उनका इतना स्नेह प्राप्त करने के कारण मुझे भी वे प्राणप्रिय हो गए थे। इतना स्नेह बन्धन जुड़ जाने के पश्चात् अकस्मात उनका स्वर्गवास हो गया। इस समय मेरी अवस्था 14 वर्षों की थी, यह हृदयविदारक दृश्य मुझसे देखा न गया। विरह वेदना से विह्वल होकर मैं घर से भाग निकला।
घर छोड़कर मैं सुदूर अज्ञात देश के लिए दौड़ा जा रहा था, विलाप और करुणा से आँखें बरस रही थीं। पैर चल रहे थे, पर उनकी दिशा अनिश्चित थी। मार्ग में दैव योग से एक महात्मा जी मिल गये, नाम था उनका स्वामी ईश्वरानन्द जी महाराज। उन्होंने मुझे प्रेमपूर्वक अपने पास बिठाया और अपने अमृतमय उपदेशों से बताया कि “हम सभी प्राणी यात्री हैं। सब की मंजिल अलग-अलग है, नाशवान वस्तुओं के लिए शोक न मानना चाहिए और अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए कर्त्तव्य लक्ष पर चलते रहना चाहिए।” इन उपदेशों को विस्तारपूर्वक समझा कर स्वामी जी चले गये। मैं प्रभावित होकर घर लौट आया।
स्वामी जी की उस भेंट को बहुत समय व्यतीत हो गया, पर वही उपदेश मेरे जीवन की आधारशिला बन गए हैं। शरीर चिकित्सा कार्य करता है, पर मन आध्यात्मिक शोध में लगा हुआ है।
सत्संग की महिमा अपार है। महान आत्माओं का सत्संग एक क्षण भर में जीवन दिशा को आश्चर्य ढंग से बदल देता है। बाबा की मृत्यु से शोकसंतप्त हृदय वाली दशा और आज की सत्य धर्मावलम्बी विचारधारा की तुलना के बीच जो जमीन आसमान का अन्तर देखता हूँ, उसका श्रेय उन स्वामी जी के सत्संग वाले क्षणों को ही दिया जा सकता है।