अनुभव का महत्व

August 1942

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हमारे गाँव में एक पटवारी जी थे, नाम था -ला0 हुब्बलाल। मैं जब छोटा था, तो देखा करता था कि उनके पास जैसी बड़ी घोड़ी है, वैसी गाँव भर में किसी जमींदार के पास नहीं है। कहने को तो उन्हें तेरह या चौदह रुपये ही तनख्वाह के मिलते थे, पर उन्होंने गाँव की पटवारगिरी में ही हजारों रुपया कमाया था। उनके से ठाट बाट अच्छे-2 जमींदारों के न थे। आतंक ऐसा था कि, जिसकी तरफ लालाजी की टेढ़ी नजर हो जाती, वह भय से सूख जाता और जिस पर उनकी कृपा-दृष्टि होती, वह अपने को अभय समझता। मुकदमेबाजी में, जाल बनाने में, आपस में लड़ा देने में, सरकार-दरबार में, गुण्डे बदमाशों में उनकी अच्छी पहुँच थी। जिस बात का इरादा कर लेते, किसी भी कूटनीति से उसे पूरा कर के ही मानते। उनके कोप ने कई खाते-पीते घरों को धूल में मिला दिया, कई सियार शेर बन गये, उनकी नाना वर्णाश्रमों की प्रेमिकायें राजैश्वर्य का उपभोग करती थीं। ऐसे थे वे पटवारीजी- ला हुब्बलाल जी।

मैं बड़ा हुआ, गाँव का मदरसा पास करके आगरा आ गया। अध्ययन के साथ कुछ सेवा-कार्य भी करता था। हमारी सेवा-समिति ने जाड़े के दिनों में अपाहिजों को कम्बल और रजाइयाँ बाँटने का प्रबन्ध किया था, इसी सिलसिले में दौरा करने, मैं जिले में घूम रहा था। अपाहिजों की सूची तैयार की जा रही थी। घूमता-घामता अपने गाँव भी पहुँचा, पूछताछ की तो पटवारी जी का नाम सब से पहिले लिखाया गया। मैं आश्चर्य से सन्न रह गया। छह, सात वर्ष पहले जो पटवारी गाँव के बेताज बादशाह थे, आज उनका यह हाल है कि, अपाहिजों के कम्बल दिये जायें। उनकी नौकरी छूटने और बीमार पड़ जाने का तो मुझे पता था, पर यह नहीं मालूम था कि अब ऐसी दशा हो गई है।

मैं उठा और पूरा विवरण जानने के लिए, उनके पास चल दिया। लालाजी एक टूटी चारपाई पर, फटे-टूटे चिथड़ों में लिपटे पड़े थे। लकवा मार गया था, हाथ-पैर हिलते न थे। शौच के लिए उठा न जाता था, स्नेही-सम्बन्धी किनारा कर गये थे, कोई सहायक न था। चारपाई में एक छेद कर लिया था, जिसमें से ही टट्टी हो लेते, शौच-शुद्धि का कोई प्रबन्ध न था। भोजन की व्यवस्था ईश्वर के अधीन थी। उनका स्वभाव ऐसा कातर हो गया था कि, किसी पूर्व परिचित व्यक्ति को देखते ही फूट-फूट कर रो पड़ते थे। मैं उनके पास पहुँचा, तो बिना पूछताछ किये, ‘लल्लू’ - ‘लल्लू’ कह कर फूट फूट कर रोने लगे। मैं भी अपने को सँभाल न सका, उनकी चारपाई के सिरहाने बैठ कर आँसू बहाने लगा।

एकान्त में हम दोनों रो रहे थे। कोई तीसरा देखने वाला न था। दोनों में से किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकलता था, फिर भी परस्पर वार्तालाप जारी था। उनके आँसू कह रहे थे- “पाप का परिणाम देखा।” मेरे आँसू कह रहे थे-”चार दिन की चाँदनी में इतराना व्यर्थ है।”

लालाजी की दशा का एक-एक अंग मैंने अध्ययन किया। यह अध्ययन मेरे मस्तिष्क में कीलें ठोक-ठोक कर समझा रहा था कि - “जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का सदुपयोग होना चाहिए।” इन्हीं क्षणों ने जीवन में क्रान्ति उपस्थित कर दी। भावी जीवन में धन, ऐश्वर्य, वैभव, कीर्ति आदि के जो स्वप्न देखा करता था, वह तत्क्षण तिरोहित हो गये। लालाजी ने मूक शब्दों में कहा -’लल्लू, मेरी ओर देख!’ मैंने ध्यानपूर्वक देखा और निश्चय किया कि, वह अज्ञान, अविवेक, पाप और पतन, जिसके कारण हमारे लालाजी की यह दशा हो रही है, हमें संसार से मिटाना होगा; और निद्रित मानव-जाति को जगा कर बताना होगा कि - पाप की भयंकरता को देखो। और उससे सावधान होकर बचो! जो सहायता मुझ से हो सकती थी, लालाजी को दी और नमस्कार करके चला आया।

आध घण्टे का यह सत्संग, जिसमें मूक रोदन के अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग बहुत की कम हुआ था, मेरे लिए हजार गीता पाठों से अधिक शिक्षाप्रद साबित हुआ। उन्हीं घड़ियों से प्रभावित होकर, मैं धर्म प्रचार में लग गया और आज धर्म प्रचारक के रूप में, ‘अखण्ड ज्योति’ के सम्पादक के रूप में दुनिया के सामने मौजूद हूँ।


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