(ले. श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त ‘कमलेश’, मौदहा)
किसी महापुरुष का कथन है- प्रार्थना की छोटी सी क्रिया भी महान् फल देने वाली होती है। उससे बहुत लाभ होता है। कठोर तपस्या अथवा बाह्य क्रिया-कलाप से पाप और अज्ञान का समूल नाश नहीं हो सकता। प्रार्थना से ही हमारा सारा मैल धुल सकता है और हमारे सारे पाप निर्मूल हो सकते हैं। शास्त्रों में जितने प्रकार के प्रायश्चित कहे गये है, प्रार्थना उन सब में अधिक बलवान् और समर्थ है। निर्मल और आसक्ति प्रबल होने पर भगवान् से की गई प्रार्थना का उत्तर भी अवश्य मिलता है। इसी सम्बन्ध में प्राप्त अनुभव हम यहाँ रख रहे हैं।
गत् जून, 1942 के 26 तारीख की ही बात है। राठ (हमीरपुर) निवासी मेरे मित्र श्रीहर प्रसाद जी दात्रे की बारात कानपुर गई थी। बारात की व्यवस्था के लिए प्रायः एकाध नौकर सेवा-सम्बन्ध में नियुक्त कर दिया जाता है। उसी भाँति एक आदमी बारात की सब काल देख-रेख तथा सेवा-सुश्रूषा करने के लिए नियुक्त कर दिया गया। दूसरे दिन उस व्यक्ति ने जनवासा से एक बक्स की (जिसमें लगभग दो हजार रुपये का सामान-आभूषण आदि थे) चोरी कर ली। कुछ देर बाद चोरी का पता चला और खोज की जाने लगी। पुलिस में भी रिपोर्ट की गई और विशेष प्रकार से जाँच जारी हो गई। अचानक इतने रकम की चोरी हो जाने पर सभी को दुःख हुआ। दात्रे जी के पिता बड़े ही दृढ़ विश्वासी और संयमी हैं, उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना करना आरम्भ किया कि, चोरी में गया सामान मिल जावे। इधर दात्रे जी भी लगभग दो घंटा एकान्त में बैठे प्रार्थना करते रहे।
इसके दो-तीन घण्टे बाद ही वह व्यक्ति (जो चोरी कर ले गया था) सर पर बक्स रक्खे हुए वापस ले आया। देखने में वह बहुत भयभीत मालूम पड़ता था। उसने बहुत विनय के साथ कहा- “मेरा अपराध क्षमा हो, मैं यह बक्स चुरा ले गया था, मेरी नीयत खराब हो गई थी। घर ले जाकर मैंने ज्यों ही इसका ताला तोड़ना चाहा, त्यों ही मानो किसी ने मेरा गला घोंटना आरम्भ कर दिया, मैं व्याकुल हो गया, वह तकलीफ मुझे अब भी हैं। यह बक्स सँभालिये और मुझे बचाइये।” उसका शरीर काँप रहा था। यह दशा देखकर सब को बड़ा आश्चर्य हुआ। बक्स का ताला करीबन टूटा हुआ था, खोलकर देखा गया, तो उसमें सब सामान ठीक था।
पुलिस ने चोरी करने वाले को गिरफ्तार कर मामला चलाया और मजिस्ट्रेट ने उसे सच्चे बयान देने पर बरी कर दिया।
प्रार्थना तथा आत्मशक्ति सम्बन्धी विश्वास उन्हें ‘कल्याण’ के ‘ईश्वराँक’, ‘अखण्ड ज्योति’ और ‘पर-काया प्रवेश’ पुस्तक पढ़ने से हुआ है।