स्वभाव चिन्तन के अनुरूप (kahani)

February 1993

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बूढ़ा आदमी पेड़ के समीप आकर रुका और बोला-अरे! फल नहीं , फूल भी नहीं और पत्ते भी नहीं! क्या हो गया हर वसन्त में तुम्हारी बहार देखते ही बनती थी!

पेड़ ने लम्बी आहभरी काश! तुमने अपना झुर्री भरा चेहरा देख लिया होता। वसन्त ऋतु तो सदा आती और जाती रहेगी पर बूढ़ी पीढ़ी और प्रथा-परम्परा को अपना दायित्व पूरा करते हुए नयों के लिए भी तो स्थान खाली करना होता है, अन्यथा यह सृष्टि ही बूढ़ी होकर समाप्त हो जायेगी। बात बूढ़े की समझ में आ गयी।

चित्रकार ने बड़ी मेहनत से भूखे गरीब आदमी का बड़ा-सा चित्र बनाया। चित्र ऐसा प्राकृतिक लगता कि आदमी की पीड़ा उभरकर कैनवस पर रख दी हो। दर्द से कराहता, झुर्रियां पड़ी-हुई। कपड़े चिथड़े तार-तार दर्शाये गये थे। चित्र को देखकर लोगों के मन में दुःख के चिन्ह उभरते है। लोग अपनी-अपनी मनोवृत्ति के अनुसार अटकलें लगाते। चित्रकार के एक डॉक्टर मित्र ने चित्र को देखा और बड़ी देर तक देखता ही रहा। अन्त में उसकी प्रशंसा करते हुए बोला-लगता है इस आदमी के पेट में तकलीफ है। वही चित्र में आपने बतायी है दुनिया अपने स्वभाव चिन्तन के अनुरूप ही दिखाई देती है।


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