गायत्री का एक स्वरूप जप परक है, जिसके आधार पर नित्य जप, अनुष्ठान, पुरश्चरण आदि के विधान सम्पन्न किये जाते है। इसका दूसरा स्वरूप है-’अजपा’ अर्थात् वह जप जो बिना प्रयत्न के अनायास ही होता रहता हो। योगविद्या विशारदों का मत है कि जीवात्मा अचेतन अवस्था में अनायास ही इस जप प्रक्रिया में निरत रहता है। यह अजपा गायत्री है-’सोऽहम्’ की ध्वनि, जो श्वास-प्रश्वास के साथ-साथ स्वयमेव होती रहती है। इसी की प्रयत्न पूर्वक विधि-विधान सहित किया जाय तो वह प्रयास ‘हंस-योग’ कहलाता है। हंसयोग के अभ्यास का असाधारण महत्व है। गायत्री महाविद्या के अंतर्गत इसे कुण्डलिनी जागरण साधना का तो एक अंग ही माना गया हैं ईश्वर सामीप्य-सान्निध्य का इससे बढ़कर सरल साधन और कोई नहीं है।
‘सोऽहम्’ साधना का महत्व बताते हुए प्रपंच तन्त्र में कहा गया है कि “देह देवालय है। इससे जीव रूप में शिव विराजमान है। इसकी पूजा वस्तुओं ने सही ‘सोऽहम्’ साधना से करनी चाहिए।” अंतःकरण में हंस-वृत्ति की स्थापना की यह साधना ही अजपा गायत्री कही जाती है। अग्नि-पुराण, शिव-स्वरोदय, गोरक्ष-संहिता, तंत्र-सार आदि में इसे समस्त पापों से छुटकारा दिलाने वाली एवं मोक्ष प्रदाता कहा गया है।
श्वास लेते समय “सो” ध्वनि का छोड़ते समय ‘हम’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तःभूमिका में अनुभव करना यही है संक्षेप में ‘सोऽहम्’ साधना।
वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह है। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र इन्हें सरलता पूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते है।
इसके लिए चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना पड़ता है साथ ही भावना को इस गहराई तक उभारना होता है कि उससे श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगे। उसी प्रकार जब साँस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व होनी चाहिए कि ‘हम’ ध्वनि प्रवाह विनिर्मित हो रहा है। आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव से आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त एकाग्र होता है, वरन् आनन्द का अनुभव भी होता है।
‘सो’ का तात्पर्य परमात्मा से और ‘हम’ का जीव चेतना से है। निखिल विश्व -ब्रह्मांड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग-प्रत्यंग में-जीवकोश तथा नाड़ी तन्तु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क-संसर्ग का लाभ प्रदान कराती है। यह अनुभूति ‘सो’ शब्द ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतारनी पड़ती है और ‘हम’ शब्द के साथ जीव भाव द्वारा इस काय-कलेवर से अपना कब्जा छोड़कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ करनी पड़ती है।
प्रकारांतर से परमात्मा सत्ता का अपने शरीर और मनः क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की यह धारण है। जीवभाव अर्थात् स्वार्थवादी संकीर्णता, काम, क्रोध, लोभ मोह भरी मद-मत्सरता-अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा की दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही जीव भूमिका है। इस भ्रम जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। काय कलेवर के कण-कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव धारणा की बेदखली, यही है ‘सोऽहम्’ साधना का तत्वज्ञान। श्वास-प्रश्वास क्रिया के माध्यम से ‘सो’ और ‘हम’ ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जाग्रत किया जाता है कि अपना स्वरूप बदल रहा है। अब शरीर और मन पर से लोभ-मोह का, वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी, राज्यक्रांति जैसी यह भाव भूमिका है जिसमें अनाधिकारी-अनाचारी शासन सत्ता का तख्ता पलट कर उस स्थान पर सत्य, न्याय और प्रेम-संविधान वाली धर्मसत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है। ‘सोऽहम्’ साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अंतःकरण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियंत्रण नहीं रहा, उसका समग्र संचालन देवसत्ता द्वारा किया जा रहा है।
‘सोऽहम्’ साधना के आरम्भिक चरण में श्वास खींचते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम’ की धारणा की जाती है। प्रयत्न यह किया जाता है कि इन शब्दों के प्रारंभ में अति मंद स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता आती चली जाय। चिन्तन का स्वरूप यह बनाना पड़ता है कि साँस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय-कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहे है। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है, वरन् प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। इस तरह एक-एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगों के चित्र की कल्पना की जाती है और अनुभव करना पड़ता है कि उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थायी रूप में समाविष्ट हो गयी। हृदय, फेफड़े, आमाशय, आँतें, जिगर, गुर्दे, तिल्ली आदि में भगवत्-सत्ता का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ अस्थि-पिंजर सहित प्रत्येक नस-नाड़ी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना शासन स्थापित कर लिया।
शरीर के प्रत्येक अंग-अवयवों, पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेंद्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वहीं बोलेगी जो ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चलना आदि इन्द्रिय-जन्य गतिविधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेंगी। जननेन्द्रिय का उपयोग वासना के लिए नहीं, मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्म संकट सामने खड़ा होने पर ही किया जाएगा। हाथ-पाँव मानवोचित कर्तव्य पालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न सोचेगा जिसे उच्च आदर्शों के प्रतिकूल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्टस्तरीय आकाँक्षायें ने जमने पायेंगी। अहंता का स्तर नर-पशुओं जैसा नहीं, नर-नारायण जैसा होगा।
यहीं हैं वे भावनायें जो शरीर और मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती हैं। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए, वरन् उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि इस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े। सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रिया रूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों। ‘सोऽहम्’ साधना के पूर्वार्द्ध में अपने काय-कलेवर पर श्वसन क्रिया के साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की-परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिन्तन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रह कर एक व्यावहारिक यथार्थता के, प्रत्यक्ष तथ्य के रूप में दृष्टिगोचर होने लगे।
इस साधना का उत्तरार्द्ध पाप निष्कासन का है शरीर में से अवाँछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का, आलस्य-प्रभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियों का, मन से लोभ, मोह जैसी तृष्णाओं का, अन्तस्तल से जीव का भावी अहंता का निवारण-निराकरण हो रहा है-ऐसी भावनायें अत्यन्त प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनायें और दृष्कृत्तियाँ, निकृष्टतायें और दुष्टतायें-क्षुद्रतायें एवं हीनतायें सभी निरस्त हो रही है, सभी पलायन कर रही है, यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। अनुपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरान्त जो हलकापन-जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरन्तर बना रहता है, उसी का स्वभावतः होता है और निरन्तर बना रहता है, उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना ही चाहिए। तभी कहा जा सकेगा कि ‘सोऽहम्’ साधना का उत्तरार्द्ध भी एक तथ्य बन गया।
इस तरह गायत्री की उच्चस्तरीय ‘सोऽहम्’ साधना के पूर्व भाग में साँस लेते समय ‘सो’ ध्वनि के साथ जीवन सत्ता पर उस “परब्रह्म” परमात्मा का शासन -आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है उत्तरार्द्ध में ‘हम’ को-अहंता को विसर्जित करने का भाव है। श्वास निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। अहंता ही लोभ और मोह की जननी है। शरीराध्यास में जीव उसी की प्रबलता के कारण डूबता हैं इसे विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तःक्षेत्र में प्रवेश करना-निवास करना संभव होता है। आत्म-समर्पण की इस स्थिति को प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है और तब ईश्वरीय अनुभूतियाँ चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती है। इसे महान परिवर्तन की आन्तरिक कायाकल्प की संज्ञा दी जा सकती है। ‘सोऽहम्’ साधना का यही है भावनात्मक एवं व्यवहारिक स्वरूप। ईश्वर साक्षात्कार की यह सबसे सरल, सहज एवं सर्वोपयोगी साधना है जिसे अपना कर हर कोई लाभान्वित हो सकता है।