बलि-वैश्व की पाँच आहुतियों से जुड़े पंचशील

February 1993

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बलि-वैश्व की पाँच आहुतियों को पंच महायज्ञ कहा गया है। बोलचाल की भाषा में किसी शब्द के साथ महा लगा देने पर उसका अर्थ बड़ा-बहुत बड़ा हो जाता है। यज्ञ शब्द से भी सामूहिक अग्निहोत्र को बोध होता है। इसके पहले महा शब्द जोड़ देने का अर्थ हुआ कि विशालकाय यज्ञायोजन होना चाहिए। फिर आहार में से छोटे पाँच कण निकल कर आहुति दे देने मात्र की, दो मिनट में हो जाने वाली क्रिया में महायज्ञ नाम क्यों दिया गया? इतना ही नहीं हर आहुति को महायज्ञ की संज्ञा दी गई ऐसा क्यों? इसका तात्पर्य किसी अत्यधिक विशालकाय धर्मानुष्ठान जैसी व्यवस्था होने जैसा ही कुछ निकलता है। कुछ भी हो इतने छोटे कृत्य का इतना बड़ा नाम अनबूझ पहेली जैसी लगता है।

वस्तु स्थिति का पर्यवेक्षण करने से तथ्य सामने आ जाते हैं। स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ कृत्य के स्थान पर तथ्य को प्रमुखता दी गयी है। दृश्य के स्थान पर रहस्य को-प्रेरणा प्रकाश को-ध्यान में रखा गया है। साधारणतया दृश्य को कृत्य की प्रमुखता देते हुए नामकरण किया जाता है। किन्तु बलि-वैश्व की पाँच आहुतियों के पीछे जो प्रतिपादन जुड़े हुए हैं, इन पाँचों को एक स्वतन्त्र यज्ञ नहीं-महायज्ञ माना गया है। स्पष्टीकरण के लिए हर आहुति का एक-एक स्वतन्त्र नाम भी दे दिया है।

पाँच आहुतियों को जिन पाँच यज्ञों का नाम दिया गया है उनमें शास्त्री मतभेद पाया जाता है। एक ग्रन्थ में जो पाँच नाम गिनाए गए हैं दूसरे में उससे कुछ भिन्नता है। इन मतभेदों के मध्य अधिकाँश की सहमति को ध्यान में रखा जाय तो इनके अधिकाँश की सहमति को ध्यान में रखा जाय तो इनके नाम-(1) ब्रह्म यज्ञ (2) देव यज्ञ (3) ऋषि यज्ञ (4) नर यज्ञ (5) भूत यज्ञ ही प्रमुख रह जाते हैं। मोटी मान्यता यह है कि जिस देव के नाम पर आहुति दी जाती है, वे उसे मिलती हैं। फलतः वह प्रसन्न होकर यजनकर्ता को सुख-शान्ति के लिए वरदान प्रदान करते हैं।

देवता शब्द का तात्पर्य समझने में प्रायः भूल होती रही है। देवता किसी अदृश्य व्यक्ति जैसी सत्ता माना जाता है पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। देवों का तात्पर्य किन्हीं भाव शक्तियों से है जो चेतना तरंगों की तरह इस संसार में एवं प्राणियों के अन्तराल में संव्याप्त रहती है। साधारणतया वे प्रसुप्त पड़ी रहती हैं और मनुष्य सत्शक्तियों-सद्भावनाओं से-और सत्प्रवृत्तियों से रहित दिखाई पड़ती है। इस प्रसुप्ति को जाग्रति में परिणत करने पाले प्रयासों को देवाराधना कहा जाता है। देव वृत्तियों के विकसित होने का अनुदान ही साधक को ऋद्धियों-सिद्धियों, सफलताओं, सुख-सम्पदाओं जैसी विभूतियों से सुसंपन्न करता है।

पंच महायज्ञों में जिन ब्रह्म, देव, ऋषि आदि का उल्लेख है उनके निमित्त आहुति देने का अर्थ इन्हें अदृश्य व्यक्ति मानकर भोजन कराना नहीं, वरन् यह है कि इन शब्दों के पीछे जिन देव-वृत्तियों का सत्प्रवृत्तियों का संकेत है उनके अभिवर्धन के लिए अंशदान करने की तत्परता अपनाई जाय।

(1) ब्रह्म यज्ञ का अर्थ है-बहा-ज्ञान, आत्म-ज्ञान की प्रेरणा। ईश्वर और जीवन के बीच चलने वाला आदान-प्रदान।

(2) देव यज्ञ का उद्देश्य है-पशु से मनुष्य तक पहुँचाने वाले प्रगतिक्रम को आगे बढ़ाना। देवत्व के अनुरूप गुण कर्म स्वभाव का विकास-विस्तार। पवित्रता और उदारता का अधिकाधिक सम्वर्धन।

(3) ऋषि यज्ञ का तात्पर्य है-पिछड़ों को उठाने में संलग्न करुणार्द्र जीवन नीति। सदाशयता के सम्वर्धन की तपश्चर्या।

(4) नर यज्ञ की प्रेरणा है-मानवीय गरिमा के अनुरूप वातावरण एवं समाज व्यवस्था का निर्माण। मानवीय गरिमा का संरक्षण। नीति और व्यवस्था का परिपालन। विश्व मानव का श्रेय साधन।

(5) भूत यज्ञ की भावना है-प्राणि मात्र तक आत्मीयता का विस्तार। अन्यान्य जीव धारियों तक के विकास का प्रयास।

इन पाँचों प्रवृत्तियों में व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति, पवित्रता और सुव्यवस्था के सिद्धान्त

जुड़े हुए हैं। उन्हें उदात्त जीवन नीति के सूत्र कह सकते हैं। जीवन-चर्या और समाज व्यवस्था में इन सिद्धान्तों का जिस अनुपात से समावेश होता जाएगा,

उसी क्रम से सुखद परिस्थितियों का निर्माण, निर्धारण होता चला जाएगा। बीज छोटा होता है किन्तु उसका फलितार्थ विशाल वृक्ष बनकर सामने आता है। चिनगारी छोटी होती है अनुकूल अवसर मिलने पर वही दावानल का रूप ले लेती है। गणित के सूत्र छोटे से होते हैं, पर उससे जटिलताएँ सरल होती चली जाती हैं।

बलि-वैश्व की पाँच आहुतियों का दृश्य स्वरूप तो तनिक-सा है पर उनमें जिन पाँच प्रेरणा सूत्रों का समावेश है उन्हें व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति के आधार भूत सिद्धान्त कहा जा सकता है। इनकी स्मृति हर रोज ताजा होती रहे इसके लिए पाँच आहुतियाँ देकर पाँच आदर्शों को कहते हैं। प्रस्तुत पाँच महायज्ञों के पाँच अधिष्ठाता देवता माने गए हैं। ब्रह्म यज्ञ के ब्रह्म, देव यज्ञ के विष्णु ऋषि यज्ञ के महेश, नर यज्ञ के अग्नि और भूत यज्ञ के वरुण देवता अधिपति हैं। पाँच आहुतियाँ इन्हीं पाँचों के लिए दी जाती हैं।

इस प्रक्रिया में इन पाँच देवों का पूजन-अनुकूलन का भाव है। यज्ञ कर्ता बलि वैश्व कर्म करते हुए इन पाँचों के अनुग्रह वरदान की अपेक्षा करता है। यह आशा तब निःसन्देह पूरी हो सकी है जब आहुतियों के पीछे जो उद्देश्य निहित है उसे व्यवहार में उतारा जाय। इन्हीं उत्कृष्टताओं का व्यापक प्रचलन अवलम्बन इस पंच महायज्ञ प्रक्रिया का मूलभूत प्रयोजन है। बलि-वैश्व को इन्हीं देव-प्रेरणाओं का प्रतिपादन पाँच महायज्ञों के रूप में किया गया है उन्हें मानवी गरिमा को समुन्नत बनाने वाले पंचशील कह सकते हैं। बौद्ध धर्म में पंचशीलों का बहुत ही विस्तार पूर्वक वर्णन विवेचन किया गया है। इन पंचशीलों को जीवनचर्या एवं समाज व्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार पंचशीलों के वर्ग उपवर्ग प्रकारान्तर से व्यक्ति एवं विश्व की समस्त समस्याओं को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका संपन्न करते हैं।

शरीर रक्षा के पंचशील हैं- (1) सीमित एवं सात्विक आहार (2) स्वच्छ जल का पर्याप्त उपयोग (3) खुली वायु में गहरी साँस (4) समुचित श्रम (5) चिन्ता रहित रात्रि विश्राम।

मानसिक स्वास्थ्य के पंचशील हैं- (1) खिलाड़ी जैसा दृष्टिकोण (2) अनवरत मुस्कान (3) इन्द्रिय निग्रह (4) काम में मनोयोग एवं गौरव (5) उपलब्धि में सन्तोष-प्रगति में उत्साह।

सामाजिक पंचशील हैं-(1) ईमानदारी (2) नागरिकता की जिम्मेदारी (3) नम्र, शिष्ट एवं मधुर व्यवहार (4) वचन का पालन (5) उदार सहयोग।

पारिवारिक पंचशील हैं- (1) अभिभावकों के प्रति सहयोग, कृतज्ञता, सेवाभावना (2) छोटों को दुलार, सहयोग (3) दाम्पत्य सम्बन्धों में साधन मैत्री (4) सत्प्रवृत्तियों को सम्पन्नता मानना और उन्हें बढ़ाना (5) सन्तान संख्या न्यूनतम।

धार्मिक पंचशील हैं- (1) सत्प्रवृत्तियों का समर्थन संवर्धन (2) दुष्प्रवृत्तियों से असहयोग, संघर्ष (3) पीड़ा और पतन के निवारण में बढ़-चढ़कर समय, श्रम, सम्पदा का नियोजन (4) उच्च स्तरीय आस्थाओं को दृढ़तापूर्वक अपनाना (5) कर्तव्य पालन में तत्परता, अधिकार पाने में उदासीनता।

अध्यात्मिक पंचशील हैं-(12 ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था पर अटूट विश्वास (2) आत्मावलम्बन (3) औसत भारतीय स्तर का जीवन सत्प्रयोजनों में उपयोग (4) जीवन साधना में प्रखर तत्परता (5) आत्मीयता का चरम विस्तार।

उपरोक्त वर्ग विभाजनों में जिन पंचशीलों की चर्चा की गई है। वे देखने में जिन पंचशीलों की की गई है वे देखने में एक दूसरे से पृथक लगते हैं और उन्हें स्वतन्त्र आदर्श गिनने का मन करता है। पर गहराई से देखने पर प्रतीत होगा कि उनमें बलि वैश्व में प्रतिपादित ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, ऋषियज्ञ, नरयज्ञ और भूतयज्ञ में सन्निहित सद्भावनाओं और उत्कृष्ट मान्यताओं का परिस्थितियों के अनुरूप विवेचन दिग्दर्शन मात्र है। मानवी प्रगति, सुव्यवस्था, सुरक्षा एवं सुख, शान्ति के समस्त तत्व इस पंचशील प्रक्रिया में पूरी तरह जुड़े है जिन्हें पंचशील प्रक्रिया में पूरी तरह जुड़े है जिन्हें पंच महायज्ञों के नाम से पाँच आहुतियों के साथ जोड़कर रखा गया हैं। कहना न होगा कि ये आदर्श जिस अनुपात में अपनाये जायेंगे, उसी के अनुरूप व्यक्ति में देवत्व की मनः स्थिति और संसार में स्वर्गीय परिस्थिति का मंगलमय वातावरण दृष्टिगोचर होगा। बलि-विश्व की प्रेरणाएँ प्रकारान्तर से नवयुग की सुखद सम्भावनाओं का बीजारोपण करती है।, शेष उपलब्धियों का


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