विरक्ति विवेक पर आधारित हो

February 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पक्षी चहक उठे, रथ के पहियों की गड़गड़ाहट सुनकर वन के मोर चौंक उठे। समूचे वन प्रान्त की भंग होती निस्तब्धता में ऐसा कुछ सामने लगा जो अनजाना था अपरिचित था-सर्वथा नया था। आगे पीछे अनुशासन बद्ध घुड़सवार सैनिकों से घिरी मगध की साम्राज्ञी महारानी क्षमा पधारी थीं। भगवान तथागत के चैत्य -विहार में महारानी का इस प्रकार अचानक आना? आस-पास विचरण कर रहे जनों के मन इस प्रश्न का हल ढूंढ़ निकालने में खोने लगे।

पर महारानी जैसे इस फुसफुसाहट तरंगित वातावरण से अविचलित*सी थी। वह धीरे-धीरे रथ से उतरीं। सैनिकों ने उनके सम्मान में गर्दन झुका लीं। उन्होंने एक तीव्र किन्तु गम्भीर दृष्टि निक्षेप उन पर किया और बोलीं “अब तुम लोग जा सकते हो।” स्वर नेपथ्य से आता लगा। रथों की गड़गड़ाहट थोड़ी ही देर में दूर-दूर बहुत दूर क्षितिज में जाकर विलीन हो गई।

सान्ध्य वेला में क्षमा ने तथागत के निजी आवास गृह में प्रवेश किया। वैराग्य से अभिभूत महारानी की मुखाकृति पर सात्विक आभा की चमक स्पष्ट थी। बुद्ध के चरणों में झुकते हुए उन्होंने कहा-”भगवन्! अब तक में अंधकार में भटकती रही। मुझे पता होगा ईश्वरीय नियमों के सम्मुख राजा और प्रजा दोनों ही समान है। मृत्यु और आधि भौतिक कष्टों परेशानियों के जाल-जंजाल से कोई भी नहीं बचता तो मेरा इतना जीवन व्यर्थ न गया होता। अब तक आत्मकल्याण के गई चरण पूरे कर लिए होते। प्रभु! अब मुझे शिष्या बनाकर मेरे आत्मकल्याण का मार्ग प्रदर्शित करें।

भगवान बुद्ध ने गम्भीर दृष्टि से क्षेमा की ओर देखा। एक क्षण कुछ अध्ययन किया। फिर कहा-”भद्रे! आत्मकल्याण के लिए साधना करने और गृह परित्याग से पहले यह जरूरी है कि जिन लोगों के प्रति अपने कर्तव्य हैं, उनकी पूर्ण स्वीकृति और सहमति प्राप्त की जाये। जब तक आप महाराज बिबिसार से आज्ञा नहीं प्राप्त कर लेतीं, दीक्षा का अधिकार आपको नहीं है।”

क्षेमा पुनः एक बार मगध लौटीं। वे सीधे बिबिसार के पास पहुँची। आभूषण रहित वेश और खुले हुए केश देखकर महाराज पहले ही समझ गए च्मा के मन में तीव्र आन्दोलन है। उन्होंने उठी हुई जिज्ञासा को रोकना उचित न समझा। महारानी के आग्रह पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी। वह पुनः भगवान बुद्ध के पास लौट आयी।

महारानी का धर्म पन्थ में प्रवेश राज्य की प्रजा के लिए कौतूहल और श्रद्धा का विषय बन गया था। हजारों की संख्या में नर-नारी एकत्रित होकर आश्रम पहुँचने और आत्मकल्याण की दीक्षा का आग्रह करने लगे। जब आश्रम में यह कोलाहल बढ़ता हुआ जा रहा था, तभी महारानी क्षेमा ने वहाँ प्रवेश किया।

भीड़ की ओर इशारा करते हुए भगवान बुद्ध ने कहा-”क्षेमा! देखो कितनी भीड़ तुम्हारा अनुकरण कर रही है जानती हो क्यों? सामान्य जन के पास भी ऐसी ही भक्ति होती, जैसी तुम्हारे हृदय में उमड़ रही है। किन्तु इनके पास न विचार होता है, न विवेक। इसीलिए इनका वैराग्य दृढ़ नहीं प्रबुद्ध व्यक्तियों के पद चिन्हों का अनुसरण करने का नियम संसार में सभी जगह है। आज तक तुम्हारा वैभव विलास का जीवन रहा, उसका अनुकरण यह लोग करते रहे। खान-पान, रहन-सहन व्यवहार बर्ताव में इनने वह सब बुराइयां पाल ली है, जो राजघरानों में होती है। इस स्थिति में इन्हें छोड़कर अकेले तुम्हें दीक्षा दी जा सकती है क्या?”

“नहीं भगवान्! “ क्षेमा ने संक्षिप्त उत्तर दिया। “तो फिर यह भी आवश्यक है कि इन सबमें भी उसी तरह का विचार-विवेक और वैराग्य जाग्रत हो, जिस तरह से तुम्हारे अन्तःकरण में उदित हुआ है। इसके लिए तुम्हें कुछ दिन इनके बीच रहकर इनके विकास की साधना करनी पड़ेगी। जब तुम यह दूसरा चरण भी पूरा कर लेगी, तब दीक्षा की पात्र बनोगी।”

क्षेमा उस दिन से जन -जन में ज्ञान-दान वितरण में जुट गई। कई वर्षों की समाज सेवा से जब उनका वैराग्य दृढ़ हो गया तब भगवान बुद्ध ने दीक्षा दी और आत्मकल्याण की साधना में प्रवेश कराया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118