महाप्रभु ने धरती पर कोप बरसाने का निश्चय किया। सात दिन प्रलय मेघ बरसाकर सब कुछ को डुबा देने का निर्णय उन्होंने नूह को भी बता दिया।
महाप्रलय के बाद! कुछ न बचेगा तो नई सृष्टि कैसे बनेगी? नूह की उस जिज्ञासा पर महाप्रभु मुस्कराये, उनकी दूरदर्शिता को देखकर एक नाव बनाने का आदेश दिया। जिस पर वे खुद भी रहें और अपने साथ-साथ पशु-पक्षियों के भी कुछ जोड़े रख लें। जलयान बनाने के लिए एक वर्ष का समय दिया गया। वर्ष पूरा हुआ। महाप्रभु ने नूह को बुलाया और नाव बनने की बात कही। नूह ने सिर नीचा कर लिया। बोले-तीन बढ़ई बीमार पड़ गये। लकड़ी बेचने वाला मुकर गया। मैं क्या करता? चालीस दिन की मुहलत और दी गई। कहा गया कि इस अवधि में काम हो जाना चाहिए। चालीस दिन बीतने पर जब नूह खाली हाथ लौटे, तो महाप्रभु ने गरमाई दिखाई और कारण पूछा। “लुहार यात्रा पर चले गये। मजूरों ने हड़ताल कर दी। दोनों लड़के गाने-बजाने में लगे रहे। किसी ने साथ न दिया मैं क्या करता?” नूह ने विवशता व्यक्त करते हुए कहा। सात दिन का अवसर और दिया गया। पशु-पक्षियों के जोड़े भी बटोर लेने की आज्ञा हुई। अन्तिम दिन आया तो भी वह अकेले खाली हाथ खड़े थे। बिना पूछे ही बोले-पशु-पक्षी भाग खड़े हुए। पुचकारने से भी नहीं लौटे न वे बिकते हैं और न मेरी पकड़ में आते हैं। महाप्रभु, अब की बार अधिक क्रुद्ध थे। बोले-ऐसी ही गैरजिम्मेदारियाँ देखकर तो मैं आजिज आ गया हूँ और महाप्रलय बरसा रहा हूँ? यदि धरती वाले समय और फर्ज को समझते तो मुझे उसे डुबाने की जल्दी क्यों पड़ती?