बुद्धिमत्ता के रूप में वज्रमूर्खता

February 1993

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मनुष्य अपने को शरीर समझता है और उसी के लिए जीवन भर मरता खपता है। इन्द्रियों की लिप्सायें और मनोगत लालसायें ही उसका इष्ट रहती हैं। उन्हीं में सूचना श्रम और समय लगा देता है। इतने पर भी उसकी तुष्टि नहीं हो पाती। लगता रहता है कि दूसरों की तुलना में हम कहीं पिछड़े रह गये। संसार में एक से एक बढ़कर सुविधा सम्पन्न पड़े हैं। उनके साथ अपनी तुलना करने पर यही लगता रहता है कि दूसरे लोग आगे निकल गये और हम पिछड़ गये। इसका क्षोभ असंतोष बना रहता है। कई बार दूसरों के भाग्य पर ईर्ष्या और अपनी स्थिति पर खीज भी उठती रहती है। इसी स्थिति में दिन गुजर जाते और अन्तिम दिन आ पहुँचता है।

इन्द्रिय तृप्ति के अत्युत्साह में शरीर का जीवन रस निचुड़ जाता है। जीभ का चटोरापन पेट की क्रिया शक्ति को बरबाद कर देता है। जननेन्द्रिय की उत्तेजना पूरी करते-करते मस्तिष्क खोखला हो जाता है। इस प्रकार शरीर की सज-धज को निरंतर ध्यान में रखते हुये भी वह भीतर ही भीतर खोखला हो जाता है। बीमारियों के घुन लग जाते हैं और एक-एक करके उनके उपचार करते-करते हैरान हो जाते हैं। न मर्ज मरता है और न मरीज। दोनों ही अपना-अपना तालमेल बिठाये रहते हैं और ऐसे ही टूटी गाड़ी घसीटते रहते हैं।

मन की अपनी भ्रान्तियाँ और उद्दंडतायें है। उसका लोभ, मोह, अहंकार इतना उद्धत होता है कि उन्हें पाटना समुद्र को पाटने जैसा है। लोभ और मोह का कोई अंत नहीं। इनकी पूर्ति के लिए जितना भी कुछ किया जाता है कम ही प्रतीत होता है। यह कमी जीवन भर बनी रहती है। अहंकार का दर्प न साज-सज्जा में पूरा होता है और न ठाट-बाट में न अमीरी के प्रदर्शन से। दूसरों का उत्पीड़न करने और अपराधों के लिये मूँछें ऐंठने पर भी बात नहीं बनती, क्योंकि इस पर भी न महिमा गाई जाती है और न महत्ता मानी जाती है। उलटे लोग मन ही मन दंभी, निरंकुश की उपाधि देते रहते हैं। मान के बदले घृणा ही हाथ लगती है। इन्हीं कुचक्रों में जिन्दगी काटने के साथ और तो कुछ हस्तगत होता नहीं उलटे पाप का पोटला सिर पर लदने के लिए भारी होता जाता है जिस कार्य के लिए यह सुर दुर्लभ देह मिली थी, वह तो योजनों दूर रह जाता है। इसे असफलता के अतिरिक्त और क्या कहा जाय? विशेषतया तब जब वह अपने ही भटकाव और कुचिन्तन के कारण सामने आई हो।

जीवन के संदर्भ में विचारणीय बात राई-रत्ती जितनी स्वल्प ही है। यदि इतना भर समझा जा सके कि जिस शरीर को सब कुछ समझा गया है उसकी वास्तविक आवश्यकतायें बहुत स्वल्प है। अन्न, वस्त्र और बिस्तर की आवश्यकतायें इतनी कम हैं जिन्हें शारीरिक श्रम और बुद्धि के संयोग से दो घंटे जितने स्वल्प उपार्जन में पूरा किया जा सकता है फिर बाईस घंटे का समय इतना बचता है जिसे उच्च उद्देश्य के लिए नियोजित करने पर इसी जीवन में नर से नारायण बना जा सकता है तथा पुरुष से पुरुषोत्तम।

आत्मा को भी प्रसन्न रखा जा सकता है और परमात्मा को भी। किन्तु इतनी मोटी, इतनी जानी–मानी बात-जानें क्योँ समझ में नहीं आती। बुद्धि का विपुल भण्डार होते हुये भी वह इस राई-रत्ती जैसी समस्या हल करने का सीधा रास्ता क्यों तलाश नहीं कर पाता?

जन्म के साथ कुटुम्ब का घेरा विनिर्मित मिलता है। लालन पालन में उसका श्रम, सहयोग, साधना और सद्भाव मिला होता है। इसी ऋण को चुकाना ऐसा बड़ा काम है जिसमें आधी जिन्दगी लग सकती है। जन्म के समय जिन सम्बन्धियों के साथ संयोग मिला था, उनमें माता-पिता, बड़े भाई-बहन, नाना-नानी इतने होते हैं कि उन्हीं को समुन्नत बनाना एक बहुत बड़ा काम है उसी को पूरा कर लिया जाय तो क्या कम है?

किन्तु एक ऐसा उन्माद आता है कि विवाह करने और अपना निजी कुटुम्ब बढ़ाने, नये प्रजनन में आँखें मूँद कर लग पड़ने का उत्साह जगता है किन्तु उन्हीं के साथ जन्मने वाली हजार जिम्मेदारियों को पूरा करना कठिन हो जाता है। फिर उन कुटुम्बियों की बात कौन करे जो जन्म के समय पहले से ही मौजूद है और जो बड़े होने पर अनेक प्रकार की आशायें करते थे।

विवाह इसलिए किया जाना चाहिए कि उद्देश्य पूर्ति की दिशा में नाव को घसीट ले जाने के लिए दूसरा साथी मिले। हाथ बँटाये और कार्य को सुन्दर सुव्यवस्थित करे। पद इसकी पूर्ति तभी हो सकती थी जब उसे साथी, सहयोगी, मित्र माना जाता। उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बढ़ाया जाता। जीवन-यापन की उच्चस्तरीय योजनाओं से उसे अवगत कराया और तदनुरूप प्रशिक्षित किया जाता। किन्तु होता इसके ठीक उलटा है। कामुकता के कोल्हू में पेलकर उसका सारा तेल निकाल लिया जाता है और उसका व्यक्तित्व बची हुई खाली की तरह निरर्थक बन जाता है। बच्चे चढ़ता हैं इतने पर भी दासी जैसा श्रम करने और अपराधी जैसा तिरस्कार करने के लिए विवश किया जाता है। फलतः उसका रहा बचा ‘स्व’ भी गये गुजरे स्तर का बन जाता है। ऐसी दशा में उसके परामर्श भी घटिया ही हो सकते है। इस जंजाल में से बचकर यदि उसके आगमन को एक सौभाग्य माना गया होता और सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न किया गया होता। स्वावलम्बन के योग्य उसकी क्षमताओं का विकास किया गया होता तो उसका आगमन भार न बनता जैसा कि आमतौर से देखा जाता है।

शरीर का उपयोग क्या है? उसे कैसे समर्थ रखा जा सकता है, इस गुत्थी का समाधान संतोष और संयम के आधार पर नितान्त सरलता पूर्वक हो सकता था, तब लोभ को इतना महत्व देने और उद्धत बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ती?

मोह की पूर्ति के लिए अपने से पहले जन्मा परिवार ऋण उतारने के लिए पर्याप्त था। फिर कुटुम्ब में पले बच्चे भी तो जन्मते रहते हैं। उनको सुविकसित बनाने में मोह की तृप्ति भली प्रकार हो सकती थी।

विवाह यदि अत्यंत आवश्यक ही हो रहा था तो पत्नी की शक्तियाँ बच्चे पैदा करने में नष्ट होने से बचाई जा सकती थी और उसे एक सुयोग्य समर्थ साथी के रूप में विकसित करके विवाह करके विवाह को सार्थक बनाया जा सकता था। इसके लिए बढ़ती हुई जनसंख्या से हाहाकार करती हुई धरती पर और अधिक बोझ बढ़ाने की आवश्यकता न थी। पर कहा किससे जाय? यह जाल जंजाल वह तथाकथित बुद्धिमत्ता ही बुन देती है जो दूरदर्शिता की कसौटी पर मूर्खता से भी गयी बीती सिद्ध होती है।

बुद्धिमत्ता का एक और नमूना देखिये! अपने घटियापन को ठाट-बाट से, साज-सज्जा से, फिजूल-खर्ची से, आवारागर्दी से बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है। ठीक इसी प्रकार दूसरों पर आतंक जमाने, उद्दंडता प्रदर्शित करने, त्रास देने में बड़प्पन का अनुभव किया जाता है, जब कि सादा जीवन-उच्च विचार की नीति कहीं अधिक सस्ती पड़ती है। कहीं अधिक सम्मान प्रदान करती और साथ ही संतोष भी। पर उस बुद्धिमत्ता को क्या कहा जाय जो वज्रमूर्खता के रूप में निरन्तर हमारे सिर पर छाई रहती है।


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