क्यों बढ़ता है अन्तर्राष्ट्रीय तनाव, कैसे आएगी शाँति?

February 1993

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अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बढ़ता हुआ तनाव-अपने समय की सबसे बड़ी महत्वपूर्ण समस्या है। राष्ट्रों के बीच आपसी मतभेद पहले भी रहते थे, संघर्ष भी होते थे। फलस्वरूप जनशक्ति एवं धनशक्ति नष्ट होती रही है। किन्तु अब संकट कई गुना बढ़ गया है। आणविक अस्त्रों की होड़ हो या आर्थिक-राजनीतिक साजिशें-इन सभी ने मनुष्य को विनाश के उस कगार पर खड़ा कर दिया है, जहाँ वह आत्महत्या करने के लिए विवश है। तनावों के कारण क्या हैं? उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? विश्व की शांति और सुरक्षा इस बात पर ही टिकी है।

पाश्चात्य मनीषी बर्ट्रेंड रसेल ने अन्तर्राष्ट्रीय शांति को तहस-नहस करने में अग्रणी-तीन तत्वों को प्रमुख माना है। (1) हठोन्माद (2) राष्ट्रीय साम्प्रदायिकता (3) शिक्षा का विकृत लक्ष्य। उनका कहना था कि इन तीन के रहते विश्व में शांति स्थापना का लक्ष्य मात्र कल्पना बनकर रह जाएगा।

व्यक्तियों के समान राष्ट्रों की भी अपनी मान्यताएँ हैं। उनमें भले-बुरे दोनों तत्वों का समावेश है। अपना राष्ट्र, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथा-परम्पराएँ सबको प्रिय होती हैं। एक सीमा तक यह आवश्यक है और उपयोगी भी। पर अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए अपनी मान्यताओं को थोपने दूसरे की उपेक्षा करने से ही विग्रह खड़े होते हैं। हर देश की साँस्कृतिक, भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ अलग हैं। कोई भी एक शासन प्रणाली एवं संस्कृति ऐसी नहीं हो सकती जो सभी राष्ट्रों के लिए लाभकारी हो। भविष्य में भले ही एक ऐसी स्वस्थ व्यवस्था की संभावना है, जिसके द्वारा एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक शासन व्यवस्था का सपना शायद साकार हो सके, परन्तु वर्तमान में तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बन सकी है-जिससे ऐसी अपेक्षाएँ की जा सकें।

हठोन्माद कई प्रकार के हैं, वे धार्मिक भी हैं; राजनीतिक भी। साम्प्रदायिक भी और अपनी व्यवस्था प्रणाली के भी। धर्म-मजहब अलग-अलग भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में पनपे और बढ़े हैं। उनके कर्मकाण्ड, साधना प्रणाली एवं मान्यताओं में भारी अन्तर दिखाई पड़ता है। क्रिश्चियन धर्म की अपनी विशेषता है, मुस्लिम धर्म की अपनी, पारसी, बौद्ध, ताओ, हिन्दू धर्म जिस परिवेश एवं भौगोलिक वातावरण में विकसित हुए हैं, उनकी छाप इन धर्मों में विद्यमान है। प्रवर्तकों ने इस बात का पूरा-पूरा

ध्यान रखा कि उस धर्म में स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल-अनुरूप समाधान विद्यमान हों। आचार संहिता-साधना प्रणाली में भी साँस्कृतिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों की छाप रही है। एक धर्म के क्रिया कृत्यों, मान्यताओं में परस्पर भिन्नता होते हुए मूल लक्ष्य एक ही है-व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण विकास करना।

पूर्वाग्रह अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने, दूसरों पर थोपने का होता है। इस धार्मिक पूर्वाग्रह ने मनुष्य जाति को जोड़ा कम तोड़ा अधिक है। इसके स्थान पर प्रत्येक धर्म के प्रति उदारवादी सहिष्णुता की भावना रही होती, पारस्परिक स्नेह बढ़ता तो एक दूसरे को आपस की विशेषताओं से लाभान्वित होने को भी अवसर मिलता।

श्री रसेल के अनुसार आर्थिक एवं राजनीतिक प्रणाली के सम्बन्ध में हठोन्माद भी अंतर्राष्ट्रीय तनाव का एक कारण है। समाजवाद, पूँजीवाद, लोकतन्त्र के समर्थक अपने-अपने पूर्वाग्रहों से जकड़े रहते हैं। समाजवादी यह सोचता है कि समस्त विश्व के लिए एक मात्र कल्याणकारी समाजवाद हो सकता है। पूँजीवादी राष्ट्र अपनी व्यवस्था के हिमायती हैं। वे नहीं चाहते कि पूँजीवाद का अंत होने से उनके सुख-साधनों में किसी प्रकार की कमी हो। लोकतंत्र अधिक उपयोगी एवं श्रेष्ठ होते हुए भी अपनी विकृत प्रणाली के कारण उतना लाभकारी नहीं सिद्ध हो रहा है। जिनके हाथ में सत्ता है, वे तन्त्र में अभीष्ट सुधार करने एवं उसका स्वस्थ स्वरूप बनाने की आवश्यकता अब अधिक व्यग्रतापूर्वक अनुभव कर रहे हैं।

प्रणाली कोई सी न तो सर्वथा अच्छी है और न सर्वथा बुरी। यह एक राष्ट्र की सामाजिक, भौगोलिक एवं साँस्कृतिक परिस्थितियों के ऊपर निर्भर करता है कि कौन किसके लिए उपयोगी है। अतएव किसी भी तन्त्र अथवा वाद की सर्वोपरिता सिद्ध करने एवं प्रत्येक राष्ट्र द्वारा अपनाए जाने का पूर्वाग्रह भी साम्प्रदायिक भावना के समान ही घातक है।

अन्तर्राष्ट्रीय शांति में दूसरा अवरोध तत्व है-राष्ट्रीय साम्प्रदायिकता। स्वस्थ राष्ट्रीय भावना-प्रत्येक देश के उत्थान के लिए कुछ सामाजिक मूल्यों एवं नियमों का निर्धारण होना ही चाहिए। किन्तु,, राष्ट्रीयता के साम्प्रदायिक पहलू भी हैं जो विश्व शांति पर आघात करते हैं।

यह वह पक्ष है-जिसमें यह कहा जाता है कि अपने राष्ट्रीय हितों का अनुसरण रखना ही सर्वश्रेष्ठ है-भले ही वह दूसरे राष्ट्रों के चाहे जितने विपरीत हो और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई भी अमानवीय रास्ता क्यों न अपनाना पड़े? राजनेताओं एवं सत्ताधारियों द्वारा इसके लिए उत्तेजक नारों का भी प्रयोग किया जाता है। अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेनवासियों का नारा था-”उनका जन्म शासन करने के लिए हुआ है।” ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार इस नारे का ही प्रतिफल था। सदियों बाद आज अंग्रेजों का प्रभुत्व न रहने पर भी उनके मन में अपनी श्रेष्ठता का गर्व अभी भी बना हुआ है।

फ्राँसीसियों ने भी अपने देशवासियों को इसी प्रकार उभारा था। उनकी घोषणा थी कि “अशुद्ध रक्त से हमारी क्यारियों की सिंचाई हो” यह अशुद्ध रक्त उनकी दृष्टि में आस्ट्रिया वासियों का था। इसके विपरीत नेलसन ने अपने सैनिकों को आदेश दे रखा था कि फ्राँसीसी शैतान हैं, उनको समाप्त कर देना ही धर्म है। युद्धकाल के बारह वर्षों तक सैनिकों ने फ्राँसीसियों के विरुद्ध आक्रोश बना रहा। जर्मनी में हिटलर ने भी इसी प्रकार का प्रचार किया था। इतिहास बताता है- आत्मकीर्ति एवं अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए किए जाने वाले साम्प्रदायिक प्रचार से विश्व सुरक्षा के लिए संकट के बादल ही घहराए हैं।

विश्व शांति में तीसरा अवरोधक तत्व रसेल की दृष्टि में है-शिक्षा के विकृत लक्ष्य। प्रत्येक देश में परम्परागत शिक्षा प्रणाली के दो लक्ष्य प्रधान हैं। प्रथम राज्य के विभिन्न कार्यों के लिए योग्य व्यक्ति तैयार करना। दूसरा विभिन्न प्रकार के उत्पादन के लिए व्यक्तियों को कुशल बनाना। इन दो सीमाओं से आगे बढ़ने वालों का अधिक से अधिक लक्ष्य होता है किसी क्षेत्र विशेष में-निपुणता प्राप्त करना विद्वान बनाना। विश्व की सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। जीवन, जीवन का स्वरूप एवं प्रयोजन जो गुरुतर प्रश्न है-से सम्बन्धित उत्तरों को खोजने के लिए वर्तमान शिक्षा में कोई स्थान नहीं है। एक मनुष्य का दूसरे से क्या सम्बन्ध है, जैसी महत्वपूर्ण जानकारियाँ, जिन पर समस्त मानवीय समस्याओं का समाधान अवलम्बित है, जैसे प्रतिपादनों की उपेक्षा शिक्षा में हुई है।

ज्ञान के महत्वपूर्ण स्रोत शिक्षा की इस दुर्दशा को देखकर प्रसिद्ध विचारक कींर्केगार्ड ने अपनी व्यथा इन शब्दों में व्यक्त की है-”आदमी थोड़ी-सी मिट्टी हाथ में लेकर सूँघ कर बता देता है कि वह किस प्रदेश की है। मैं जीवन को हाथ में लेता हूँ और सूँघने का प्रयत्न करता हूँ, लेकिन मुझे उसमें कोई गन्ध नहीं आती मैं कहाँ हूँ, कौन हूँ, यहाँ कैसे आया, जिसे दुनिया कहते हैं-वह क्या है, उसके निर्माण का प्रयोजन क्या है, संसार का सूत्रधार कौन है? जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न जीवन पर्यन्त अछूते बने रहते हैं।”

लार्ड स्नो-शिक्षा के लक्ष्य एवं स्वरूप के विषय में कहते हैं-”असली शिक्षा वह है जिसमें विचारों का ऐसा समन्वय हो जिसकी सहायता से इस चारों ओर की दुनिया के आपसी सम्बन्धों को हम समझें और अनुभव करें।” आर्टेगर्ड गास्टेट-शिक्षा का प्रयोग स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि-”जो हमें निरर्थक अवमानना से ऊपर उठाकर श्रेष्ठ जीवन यापन के लिए बाध्य करे।

ख्यातिनामा चिंतक ई॰ एम॰ थुमाकर अपने ग्रन्थ “स्मॉल इज ब्यूटीफुल” में लिखते हैं कि-वर्तमान में ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है-जो हमारे विचारों को सार्वभौम बनाए, अन्तस् में संवेदना जगाकर, समूची दुनिया को परिवार समझने का साहस प्रदान करे। हमें इस योग्य बना दे कि संसार को समझ सकें।”

हठोन्माद, राष्ट्रीय साम्प्रदायिकता, शिक्षा के विकृत कारण ऐसे हैं जिनसे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को बढ़ावा मिलता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए तीनों ही क्षेत्रों में अभीष्ट सुधार आवश्यक है। हठोन्माद बुरा है और घातक भी। राष्ट्रीय साम्प्रदायिकता मानवीय मूल्यों को समाप्त कर देती है तथा विश्व सौहार्द जैसी उदात्त भावनाओं पर चोट पहुँचाती है। इन समस्याओं का समाधान-विचारों में व्यापक फेर-बदल करने में सक्षम, विचार क्रान्ति जैसी समर्थ और सक्षम प्रक्रिया से ही सम्भव है। इसमें स्वयं के समय, श्रम एवं साधनों का नियोजन करते ही समस्त मानव जाति में स्नेह-सौहार्द बनाए रख सकने की भूमिका-निभायी जा सकना सम्भव है।


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