आवेश-ग्रस्तता एक प्रकार की व्याधि

February 1993

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आवेश-ग्रस्त व्यक्तियों को उथला, ओछा, बचकाना आदि नामों से जाना जाता है, क्योंकि वे यथार्थता से दूर रहते हैं। देखा गया है कि छोटा बालक अपनी मर्जी को ही सब कुछ मानता है और उसकी पूर्ति न होने पर तुनक जाता है। उसकी इच्छा पूरी कर देने पर वह प्रसन्न हो जाता है। यह सोचने की उसमें क्षमता ही नहीं होती कि जिसके लिए वह मचल रहा था वह उपयोगी थी भी या नहीं। इस प्रकार बच्चों के अविकसित मस्तिष्क से यह सोचते भी नहीं बनता कि दूसरे लोग उनकी मर्जी पूरी करने की स्थिति में हैं या नहीं। उनके लिए यह सोचना भी कठिन होता है कि जो कुछ वे चाहते हैं वह दूसरों की दृष्टि में विचारपूर्ण और आवश्यक है भी या नहीं। मात्र अपनी ही मर्जी का सब कुछ मान लेने पर उसकी पूर्ति में प्रसन्नता और आपूर्ति में उद्विग्नता जिन्हें होने लगे उन्हें अविकसित स्तर का बालक ही कहना चाहिए। भले ही आयु की दृष्टि से वे बड़े ही क्यों न दीखने लगे हों।

आवेश भारी आतुरता, अधीरता का चिन्ह है। उसे असहिष्णुता भी कह सकते हैं, अनाड़ीपन भी। समझदारों में इतनी बुद्धि होती है कि अपनी मर्जी ही सदा सही नहीं होती और न यही संभव होता है जो चाहा गया है उसके तुरन्त जुटा देने के लिए दूसरों पर दबाव डालना उचित है।

यह संसार तालमेल के आधार पर चलता है। पारस्परिक व्यवहार में मिलजुल कर रहने और एक दूसरे की मान्यता को महत्व देते हुए चलने से ही हर मनुष्य का स्वभाव अलग-अलग प्रकार का होता है। मान्यताओं और परिस्थितियों में भी भिन्नता होती है। अपने-अपने वातावरण का प्रभाव हर किसी पर छाया रहता है। ऐसी दशा में यह आशा करना व्यर्थ है कि अन्य लोग अपनी मर्जी को उतना ही महत्व देंगे जितना कि हम स्वयं अपनी बात को देते हैं। इस तथ्य को समझते हुए हर किसी को दूसरों से उतनी ही आशा करनी चाहिए कि वे अपनी स्थिति के अनुसार ही सहयोग कर सकेंगे। जो जितना कर सके उनसे उतना प्राप्त करके ही संतुष्ट हो जाने से समझदारी है।

अपनी ओर से दूसरों की उचित बात स्वीकार कर लेना अथवा उनकी वाँछित सेवा सहायता कर देना तो किसी कदर संभव हो भी सकता है, क्योंकि वे हमारी आकाँक्षाओं का उतना महत्व नहीं समझते जितनी कि हमें अपने संबंध में आतुरता होती है। हर व्यक्ति अपने ढाँचे में ढला होता है। उसे अपनी इच्छा ही सर्वोपरि महत्व की लगती है। दूसरों की स्थिति क्या है? वह कहाँ तक की हुई इच्छा को पूरा करने की स्थिति में है; यह अनुमान लगाना दूसरों के बस की बात नहीं। इतनी अधिक आशा भी किसी से नहीं करनी चाहिए कि जो कुछ हमारे द्वारा चाहा गया है वह दूसरे लोग पूरा कर ही देंगे। हर किसी को अपने ऊपर नियंत्रण करना होता है। संयम बरतना पड़ता है और मिलजुल कर रहना पड़ता है। यह तभी बन पड़ता है जब अपनी ही तरह दूसरों की मर्जी को भी महत्व दिया जाय। सामंजस्य इसी को कहते हैं। यही उचित भी है, एवं पर्याप्त भी। एक दूसरे के प्रति सम्मान और सद्भाव बनाये रहना भी इसी आधार पर संभव होता है।

पशु-पक्षी तक प्राकृतिक रूप से कोई किसी के

पराधीन नहीं होते। स्वेच्छापूर्वक मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। कुछ जीव-जन्तुओं को मनुष्य ने वशवर्ती बनाया तो है पर वे इससे प्रसन्न नहीं हैं। जब भी अवसर मिलता है वे स्वेच्छापूर्वक विचरण करने के लिए चल पड़ते हैं। पालने वालों के प्रति उनका लगाव भर होता है। पराधीनता किसी को भी स्वीकार नहीं। फिर मनुष्यों से ही वैसी आशा क्यों की जाय? बच्चे तक दबाव स्वीकार नहीं करते। पैरों से चलने लायक हो जाने पर वे इच्छापूर्वक भाग-दौड़ करने लगते हैं। दबोचने पर अप्रसन्न होते हैं। फिर बड़ों से ऐसी आशा किस आधार पर की जाय?

दाम्पत्य जीवन में पति का व्यवहार पत्नी के प्रति कठोर हो जाता है। वह उसे क्रीत दासी मानता है और चाहता है कि वह अपनी सुविधाओं का, इच्छाओं का परित्याग करे और वही करे जो उसे आदेश दिया जाता है। इसके औचित्य को पतिव्रत धर्म की दुहाई देते हुए गले उतारने का प्रयत्न किया जाता है पर यह थोथा तर्क है। दासों और बँधुआओं को दबाव देकर काम कराया जाता था पर उसका भी समझदारों ने औचित्य स्वीकार नहीं किया। उसे कुप्रचलन माना और उखाड़ फेंका। मनुष्य-मनुष्य के बीच सहकार का ही रिश्ता हो सकता है। पारस्परिक विचार विनिमय से ही किसी राजीनामे पर पहुँचा जा सकता है। भ्रान्तियों को समझदारी के साथ निवारण किया जाना चाहिए। इसके लिए तर्क प्रमाण उदाहरण आदि का प्रश्रय लिया जाना पर्याप्त है। दबाव तो विक्षिप्त, अपराधी या अविकसित बालक तक ही किसी सीमा तक क्षम्य हो सकता है। बड़े होने पर तो स्वेच्छा, सहमति ही उपयुक्त है। दबाव देकर अधिक लाभ उठाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि विचार विनिमय द्वारा जितना सहकार बन पड़े उसी को पर्याप्त समझकर किसी प्रकार काम चलाया जाय। ऐसी थोड़ी सहकारिता भी किसी न किसी काम आती है। संसार का क्रम इसी आधार पर चल रहा है। मित्रों, परिजनों एवं सम्बन्धियों में भी इसी आधार पर तालमेल बिठाया जाना चाहिए। जो नहीं बन पड़ा उसके संबंध में खिन्न या रुष्ट होने की अपेक्षा यही अच्छा है कि सहयोग का आधार बना रहे, संबंध बिगड़ने न पायें। “या तो सब कुछ अथवा कुछ नहीं” की नीति अनुपयुक्त है। इससे भिन्नता की संभावना शत्रुता के स्तर तक जा पहुँचती है। समझा जाता है कि दबाव बाधित किया जा सकता है। इसकी कटु प्रतिक्रिया होती है और कटुता बढ़कर घृणा के स्तर तक पहुँच सकती है। ऐसी दशा में उलटा हुआ मानस प्रतिशोध तक पर उतर आता है।

आवश्यक नहीं कि सभी के विचार एक जैसे हों। प्रकृति ने फूल पौधे भिन्न रंग रूप के बनाये हैं। समता कम प्रसंगों में ही आती है। भिन्नता में एकता खोजना सुसंस्कारी दृष्टिकोण है। अनीति से असहयोग बरतना तो उचित है पर उसमें भी कानून को हाथ में लेने से काम नहीं चलता। इसके लिए व्यवस्था या अंकुश रखने की, दण्ड देने की जिम्मेदारी जिनकी हो उन तक प्रसंगों को पहुँचाना चाहिए। सामाजिक स्तर पर तो इतना ही हो सकता है कि सज्जनता एकत्रित होकर अनीति का विरोध करने तक उभरे।

संतुलन बनाये रहने पर ही मस्तिष्क इस स्थिति में होता है कि औचित्य का पक्षधर बना रह सके। मात्र अपना ही मान, बड़प्पन, आदेश पालन किया जाना चाहिए। यह मान्यता अधीर लोगों में ही पाई जाती है। आतुर वे ही होते है। आवेश उन्हीं पर चढ़ता है। अतिवादी अहंकार ही दूसरों के स्वतंत्र चिन्तन को नकारता है। उसी से यह सहन नहीं होता कि कोई अपनी स्वतंत्र सत्ता का परिचय दे और जो अरुचिकर लगे उसे गले उतारना अस्वीकार कर दे। हर व्यक्ति की अपनी स्वतंत्र चेतना है। उसकी अभिरुचि एवं पसंदगी का भी महत्व है। जो अधिकार एक को मिला है उसी को दूसरा भी अपना अधिकार कह सकता है। आवश्यक नहीं कि एक की मर्जी ही प्रधान रहे और दूसरा उसे मानने के लिए बाधित या विवश ही किया जाय। मतभेदों को तर्क के आधार पर सुलझाया जा सकता है।

अपने आवेश से दूसरे में आक्रोश उपजता है। एक को उलटी होने लगे तो पास बैठे दूसरों का भी जी मिचलाने लगता है। यही बात क्रोध के संबंध में भी है। यदि अपना स्वभाव मीठा, ठण्डा और शांत रखा जाय तो संपर्क में आने वाले क्रोधी प्रकृति के लोग भी शांत हो जाते हैं। दूसरों को मन मर्जी के बनाना कठिन है पर यह अति सरल है कि अपने को शांत, संतुलित और मृदुल मुस्कान का अभ्यासी बनाया जाय। इतना बन पड़ने पर वे समस्याएँ अनायास ही सरल हो जाती हैं जिनके कारण दूसरों पर आवेश-ग्रस्त, तुनक-मिजाज आदि का दोषारोपण करना पड़ता है।


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