अनासक्त कौन?

February 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जिन दिनों भगवान बुद्ध श्रावस्ती में जैतवन में विचरण कर रहे थे, उन्हीं दिनों सुप्पारक तीर्थ में साधु बाहिय दारुचीरिय पर लोगों की श्रद्धा और सम्मान के सुमन चढ़ रहे थे। दारुचीरिय वासना पर विजय पा चुके थे। धन से कोई मोह नहीं रहा था। पर सम्मान को पचा सकना उनके लिए कठिन होता जा रहा था। लोकेषणा को प्रबलतम ऐषणा मानना वस्तुतः-शास्त्रकारों की सूक्ष्म दृष्टि का ही परिचायक है। मान और अपमान में समान भाव रख सकना सचमुच बहुत दुष्कर है, उसे कोई विरला योगी ही सिद्ध कर सकता है।

दारुचीरिय जहाँ भी जाते, लोग उनके चरणों पर धन, सम्पत्ति, वस्त्र उपादानों का ढेर लगा देते। यह देख कर उनके मन में वितर्क उठा-अब मेरा योग सिद्ध हो गया और मैं स्वर्ग एवं मुक्ति का अधिकारी हो गया।

इस प्रकार का अहंकार लिए वह आश्रम लौटे। वृद्ध गुरु की तेज आँखों से उनका यह अहं भाव छिपा नहीं रह सका। दारुचीरिय को पास बुलाकर उन्होंने कहा-वत्स! जाओ, समिधाएँ ले आओ। प्रातःकाल के यज्ञ की तैयारी कर लें।

दारुचीरिय ने उपेक्षा से कहा-भगवन्! अब मुझे कर्म करने की आवश्यकता नहीं रही। मैं अर्हत् मार्ग पर आरुढ़ हो चुका हूँ।

यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है -गुरु ने स्नेह-मीलित स्वर में कहा और पूछा तात! टाप गौतम बुद्ध को तो जानते हैं?

हाँ-हाँ महात्मन्! मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूँ। वे इन दिनों जैतवन में परिव्राजक हैं। उन्होंने भी अर्हत् मार्ग सिद्ध कर लिया है। मुझे इस बात का पता है।

तब तो एक बार उनके दर्शन अवश्य कर आयें तपस्वी ने धीरे से कहा-सम्भव है उनके सामीप्य से आपके ज्ञान-चक्षु कोई नवीन प्रकाश प्राप्त कर लें।

दारुचीरिय सुप्पारक से चल पड़े और थोड़े ही समय में श्रावस्ती जा पहुंचे। अनाथ पिण्डक के जैतवन में पहुँचने पर बुद्ध तो नहीं मिले, पर वहाँ उनके अनेक शिष्य-भिक्षुगण विचार कर रहे थे। दारुचीरिय ने पूछा-आप लोग बता सकते हैं कि गौतम बुद्ध कहाँ है? इस पर एक भिक्षु ने बताया-महानुभाव! वे भिक्षाटन के लिए गये हुए हैं-तीसरे पहर तक लौटेंगे। आप यहीं विश्राम करें।

दारुचीरिय आश्चर्य आश्चर्यचकित रह गए। इतने भिक्षुओं के होते हुए भी भगवान बुद्ध को भिक्षाटन की क्या-आवश्यकता पड़ी। अभी चलकर देखता हूँ बात क्या है? यह सोच कर वे श्रावस्ती की ओर चल पड़े। एक सद्गृहस्थ के घर भीख माँगते हुए उनकी भेंट भगवान बुद्ध से ही हो गई। दारुचीरिय ने देखा-उनके मन में न किसी प्रकार का हर्ष है न शोक। विशुद्ध शान्त मन से बैठे भगवान बुद्ध को उसने प्रणाम किया और कहा-भगवन्! मुझे बन्धन मुक्ति का उपदेश करें।

बुद्ध बोले-तात्! यह उचित समय नहीं है। तुम जैतवन चलो, वहीं आकर बात-चीत करेंगे।

किन्तु दारुचीरिय ने वही बात फिर दुहराई-भगवान मुझे अनासक्ति का तत्वज्ञान समझाएँ।

जब तक आप ऐसा नहीं करेंगे, मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा।

तब तथागत बोले-तात! जो एक बार में केवल एक ही कर्म में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसकी दूसरी इन्द्रियों का भाव ही शेष नहीं रह जाता, ऐसा कर्मयोगी ही सच्चा अनासक्त और अर्हत् आरुढ़ है। जिसकी चित्त-वृत्तियाँ एक ही समय में चारों ओर दौड़ती हैं वही आसक्ति में लीन एवं वही संसारे के दुःखों में भ्रमण करता है।

दारुचीरिय को तब अपनी भूल का पता चल गया वे वहाँ से लौट पड़े। उनकी समग्र भ्रान्तियाँ जाती रहीं और कर्म को पूर्ण तन्मयता तथा आत्म साधना मानकर करने की शिक्षा लेकर लौटे। यही तो बन्धन मुक्ति का राजमार्ग है, जो उन्हें बुद्ध के कर्मयोग का दर्शन कर स्वतः मिल गया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles