वैदिक संस्कृति ही विश्व संस्कृति

February 1993

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संसार में फैली हुई सैकड़ों जातियों और विभिन्न देशों के निवासी आकृति, रंग, रूप, खानपान और परिस्थितियों के कारण वेश व बनावट में कितने ही बदल क्यों न गये हों, वे सब एक ही मूल-पुरुष से जन्में, एक ही स्थान से विकसित हुए है। एक घर में जब चार लड़के होते है तब बड़े होने पर चार घरों की आवश्यकता पड़ती है। बड़ा वहीं रह जाता है, शेष तीन नया घर बना लेते है। ऐसा करते-करते ही इस पृथ्वी पर इतने देश, इतनी जातियाँ बन गयी और वे ऐसी अलग-अलग हो गयीं कि अब उनको एक को पिता की सन्तान कहना भी कठिन हो गया है।

किन्तु धार्मिक भूगोल और मनुष्य-जाति के पुरातत्व इतिहास की खोज एक बार हमें फिर उसी ओर ले जाती है। उपलब्धियाँ और निष्कर्ष यह बताते है कि भारत कभी सारे संसार के सिरमौर की भूमिका निभाता था और यहाँ की संस्कृति विश्व-संस्कृति अनेक देशों में रहने वाले लोग भाषा की दृष्टि से एक थे, सभी ईश्वर उपासक और संगठन बनाकर जीवों को पालकर रहने वाले थे। सच्चाई, ईमानदारी आदि के पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। राजाओं को अनेक अधिकार और सुविधायें इसीलिए दी जाती थीं कि वे खण्ड-खण्ड में बसे देशवासियों का निरीक्षण करते रहें और कभी कहीं उद्दण्डता न पनपने दें। यह सब राजे-महाराजे और शासनतंत्र भारतवर्ष से जुड़े रहते थे। उन्हें दिशा निर्देश यहीं से होता था। वेदान्त संस्कृति की आदि भूमि होने के कारण ‘चक्रवर्ती साम्राज्यों का यहीं से संचालन होता था। यह धर्म का एक आवश्यक अंग था और उसके लिए लोगों में ज्ञानधारायें ही प्रवाहित नहीं की जाता था। यह उत्तरदायित्व हिन्दुओं ने एक समर्थ और संगठित जाति उसका धर्मपूर्वक पालन भी करते थे। आज भी यदि हम ज्ञान-विज्ञान, धर्म-संस्कृति, आचार-विचार, रहन-सहन आदि की दृष्टि से समर्थ हो और शास्त्र व शक्ति के द्वारा विश्व-संघ की रचना एक महान आदर्श विश्व शान्ति के लिए कर सकें तो यह एक बड़ी बात होगी।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि पहले ऐसा ही था। भारतीय संस्कृति मनु को आदि पुरुष मानती है। संसार के सभी देश और धर्म भी मनु को ही अपना पितामह मानते है। महाभारत, वनपर्व में कहा है-

“मनुन च प्रजाः सर्वाः स देवासुर मानुषाः। सृष्टय्याः सर्वलोकाश्च यत्रैगति पचचेगति॥’

अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार जाकर बसे देवता, मनुष्य और राक्षस (यह मनुष्यों के क्रमशः गुण-विभाग हैं) सब मनु की ही संतानें है।

बाल्मीकि रामायण में उल्लेख है-

“अमरेन्द्रया बुद्धया प्रजाः सृष्टास्तथा प्रभो। एक वर्णाः समाभाषा एकरुपाश्च सर्वशः॥”

अर्थात् हे प्रभो! संसार भर में बसे सभी लोग एक ही जाति, एक ही भाषा और सब प्रकार का एक आचार-विचार वाले मनु के पुत्र है।

“एन्सियन्ट एण्ड मीडिवल इण्डिया” नामक ग्रन्थ के प्रथम खण्ड पृष्ठ 118 में प्रख्यात इतिहासविद् मैनिंग ने उपरोक्त तथ्य की जो तुलनात्मक व्याख्या की है, वह बड़ी महत्वपूर्ण है। वे लिखते है कि मानव-जाति के आदिजनक जिन्हें भारतीय ‘मनु’ कहते हैं, उन्हीं से समूचे संसार की समस्त जातियाँ बनी, यह निर्विवाद सत्य है। भारतीय मनु या मनस् की तरह जर्मन लोग भी आदि पुरुष को “मानस” कहते है, यहीं ट्यूटनों के मूल पुरुष समझे जाते है। जर्मनी के ‘मन्न’ और अँग्रेजी का “मैन”उच्चारण में थोड़ा अनंतर रखता है, पर वस्तुतः वह ‘मनु’ शब्द ही है। जर्मनी के ‘मनस’ और संस्कृति के मनुष्य’ में कोई अन्तर नहीं हैं

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि बाहर गयी हुई जातियाँ कालांतर में अपने आहार-विहार और रहन-सहन बदलती अवश्य गयीं, पर वे लम्बे अर्से तक साधना, उपासना, व्यापार, धर्म और दर्शन, भाषा और शासन व्यवस्था आदि की दृष्टि से भारतीय संविधान से जुड़ी रहीं। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व मध्य एशिया में ‘मिटानी’ और हिटाइट’ नामक दो पड़ोसी राज्य थे। मिटानी का शासक ‘मालिउजाला’ था। और हिटज्ञइट में ‘शाविलुउिमा’ राज्य करता था। प्राचीनकाल में जब दो राजाओं के मध्य सन्धि या किसी प्रस्ताव पर बातचीत होती थी तो अदालतों में जिस प्रकार भगवान की शपथ ली जाती है, उसी प्रकार देवताओं को साक्षी बनाया जाता था। इन दो राजाओं के मध्य हुई सन्धि का एक शिलालेख मिला है। उसमें जिन देवताओं की साक्षी दी गयी है उनके नाम इन्द्र, मित्र, वरुण, और नासत्य यानी अश्विनी कुमार है। यह देवता केवल ऋग्वेद में ही प्रयुक्त हुए है और संसार के किसी भी धर्म में नहीं। इससे स्पष्ट पता चलता है कि यह दोनों ही संभाग वेदान्त सभ्यता से प्रभावित थे।

मिश्र के संग्रहालय ‘एल अमारा’ में बेबीलोनिया का एक शिलालेख है जिसमें प्रयुक्त हुए नाम आर्तमन्य, यश दत्त, सुवर्ण, आर्जवीय आदि संस्कृतिनिष्ठ शब्द भी वेदों के ही है। कश्मीर में मिले ‘दबिस्तान’ नामक शिलालेख में बैक्ट्रिया के राजाओं की नामावली दी है, जो हिन्दुओं के नामों की तरह है, इस तथ्य को सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. मिले ने भी अपनी कृति “हिस्ट्री ऑफ इण्डिया” में स्वीकार किया है। हिस्टोरिकल हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड “ में कहा गया है कि इजिप्ट निवासी पणिकों की शाखा है। ये लोग पान्त देश से आये। यह पान्त पहले पाण्ड्य देश था और उनके पणि ही पाणिक है। उन्होंने ही फिनीशिया बसाया। लेखक ने उक्त पुस्तक में स्वीकार किया है कि इजिप्ट पहले भारत महासंघ का ही एक भाग रहा है, भले ही कालांतर में उसने अपनी अलग संस्कृति बना ली हो।

पुराणों में वर्णित आन्ध्रालय ही आस्ट्रेलिया है। महाभारत एवं रामायण में वर्णित पाताल लोक आज का अमेरिका है। बलि पाताल का राजा था। दक्षिण अमेरिका में उसके नाम का स्मरण कराने वाला नगर ‘बलिविया’ आज भी है यह किसी समय वहाँ की राजधानी थी। अंग देश से पहुँचने से पहले पेरु और मैक्सिको में स्वास्तिक का चिन्ह प्रत्येक मंगल पर्व पर प्रचलित था जो बिलकुल भारतीयों की अनुकृति है।

इण्डोनेशिया के द्वीप जावा, सुमात्रा, लम्बोक, बलि आदि के नाम तो ज्यों के त्यों महाभारत में आये हैं। वहाँ के लोगों के नाम अभी भी सुकर्णों, भीमों, अर्जुनों आदि होते हैं, जो यह स्पष्ट बताते हैं कि उनके नामों की शैली भारतीय थी अर्थात् वे संस्कारों की दृष्टि से भारतीय संस्कृति के ही अंग थे। वहाँ के लोकजीवन, साहित्य और छाया नाटकों में पुराण-काल की संस्कृति के दर्शन आज भी किये जा सकते है। कम्बोडिया, थाईलैण्ड और रूस के अधिकाँश राज्यों के नाम और वहाँ की संस्कृति में अभी भी भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक साम्य पाया जाता है। यह उदाहरण इस बात के प्रमाण है कि सृष्टि में मानव-जाति का आदि पदार्पण भारतवर्ष में हुआ। यहीं जाति इस संस्कृति को लिए हुए सारे विश्व में फैलती चली गयी। भारत में पहले राष्ट्रसंघ स्थापित था, इसलिए सभी लोगों को भारतीय संस्कृति के अनुरूप जीवन पद्धति, नीति, धर्म, दर्शन आदि को अपनाना ही पड़ता था। विश्वभर में बिखरी समस्त मानव-जाति अपना पितामह देश भारत को ही मानती थी, इसलिए इसे विदेश मानने का कोई कारण ही नहीं थी, इसलिए इसे विदेश मानने का कोई कारण ही नहीं था। भारतीय संस्कृति को विश्व-संस्कृति मानकर ही वे लोग इसे अपने जीवन में स्थान देते रहे।

कालान्तर में धीरे-धीरे यहाँ के लोगों में भेदभाव, स्वार्थ-परायणता और ऊँच-नीच का भाव आता गया। उससे अथवा किन्हीं भौगोलिक एवं ऐतिहासिक कारणों से परिवर्तन होते गये और विश्व अनेक देशों, अनेक संस्कृतियों के रूप में दिखायी देने लगा। विश्व की अशान्ति का आज का कारण भी यही है कि जाति, गुण, कर्म, स्वभाव धर्म, दर्शन की एकता को भूलकर आज सारा संसार वर्ण, भेद, जाति और धर्म भेद के मैदान में कूद पड़ा है। उसी से परस्पर संघर्ष से तभी बचा जा सकता है, जब पुनः लोगों को पता चले कि हमारा मूल उद्गम भारतीय संस्कृति है। सारे संसार को एक सूत्र में बाँधने ओर सबका हित साधने की क्षमता भारतीय संस्कृति में है। वहीं अपने दूर-दूर तक जा बसे लोगों को मातृत्व और स्नेह देकर विश्व को पुनः एक राष्ट्र संघ, एक भाषा, एक ही मानव-जाति के मनकों में पिरो सकती है। अगले दिनों यही सब कुछ होने भी जा रहा हैं।


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