देवात्मा हिमालय की पवित्रता अक्षुण्ण बनी रहे

February 1993

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पर्वत तो संसार में बहुत से ऐसे हैं जिन पर हिम का श्वेत आवरण छाया होता है, देखने में दृश्य नयनाभिराम होता है तथा वहाँ जाने वाले ठण्डक पाकर ग्रीष्म के आतप से मुक्ति पाते हैं। उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव दोनों ही हिम शिलाखण्डों से भरे पड़े हैं तथा वर्ष में कभी कभार ऐसा समय आता है, जब वहाँ उस हिस्से में जाना मनुष्य को सुखद लग पाता है। कनाडा का तो उत्तरी भाग पूरा ही न्यू-फाउण्डलैण्ड से लेकर अलास्का तक बर्फ से ढका है तथा जो भी कुछ जनसंख्या उस देश की है-कुल 230 लाख, वह दक्षिण के उस हिस्से में रहती है, जिसे वनस्पति कवचयुक्त रहने योग्य भाग माना जाता है। जब हिम की ठिठुरन व्यक्ति को निष्क्रिय व जीवन को दूभर बनाती हो तब क्या कारण है कि हिमालय की सतत् बर्फ से ढकी श्वेत चोटियाँ अगणित व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करतीं व चेतना के प्रवाह से अनुप्राणित कर एक विशिष्ट ऊर्जा का उन में संचार करती हैं।

यहाँ हिमालय की तुलना अन्य हिमाच्छादित क्षेत्रों से करके यह प्रतिपादन करने का प्रयास किया जा रहा है कि देवतात्मा हिमालय में कुछ ऐसी विशिष्टता समाहित है जो उसे अन्य शिलाखंडों-भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पर्वतों से अलग ठहरती है। पर्यटकों, ट्रैकिंग करने वाले दुस्साहसी पर्वतारोहियों तथा स्केटिंग का आनन्द लेने वाले व्यक्तियों की बात एक तरफ रखकर यदि इसी पक्ष पर विचार करें कि क्या कारण है कि व्यक्ति भारत वर्ष की उत्तरी सीमा पर प्रहरी की तरह खड़े इस पर्वतराज के अंदर परमात्मा की सत्ता के दर्शन करता है तथा एक अलौकिक प्राणशक्ति का संचार इसमें विचरण करने, इसका दर्शन मात्र करने तथा ध्यान लगाने से पाता है। इसका उत्तर एक ही है कि हिमालय वस्तुतः देवताओं की क्रीड़ा-स्थली रहा है व पृथ्वी पर स्वर्ग की उपमा इसे सही ही दी गयी थी। सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण अभी भी वहाँ ध्यान लगाने वाले एक पहली कक्षा के साधक का ध्यान भी तुरंत लग जाता है। अध्यात्म चेतना का ध्रुवकेंद्र हिमालय को इसी कारण सोद्देश्य ही कहा गया है।

मैडम ब्लाट्स्की ने हिमालय में दिव्यात्माओं की (मार्स्टस की-गुरुसत्ताओं की) पार्लियामेंट विद्यमान होने की बात अपने ग्रन्थों में लिखी है। समय-समय पर अदृश्य सहायकों के आते रहने व लोगों की जड़ व चेतना जगत की गुत्थियों को सुलझाने की बात वे सिक्रेट डॉक्ट्रीन में कहती हैं तो उनके शिष्य श्री लेडबीटर अपनी पुस्तक इनवाजीबल हेर्ल्पस में कहते हैं। पॉल ब्रण्टन से लेकर मैक्समूलर तक तथा स्वामी दयानंद व रामतीर्थ से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक हिमालय आते व तपश्चर्या कर सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों से संपर्क स्थापित कर अपनी भावी क्रियापद्धति का निर्धारण करते रहे हैं। स्वामी दयानन्द ने जहाँ धरासू में परशुराम शिला पर तपकर पाखंड-खण्डिनी पताका फहराने व देशव्यापी दिग्विजय करने के निमित्त शक्ति अर्जित की, वहाँ स्वामी रामतीर्थ ने तो अपनी साधना का समापन ही हिमालय की छाया व भागीरथी की गोद में कर प्राणों का विसर्जन किया। स्वामी विवेकानन्द ने अल्मोड़ा में हिमालय के दर्शन कर स्वयं को कृतार्थ किया व बाद में विश्व की एक निराली स्थापना मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना करके की। अल्मोड़ा में वे अपने अल्पकालीन जीवनावधि में तीन-तीन बार आए तथा यहीं से पर्वत श्रृंखलाओं में भ्रमण करते हुए वे पूरे उत्तराखण्ड में विचरण कर गए। निश्चित ही कोई विशेष कारण रहा होगा जो इन महापुरुषों ने

हिमालय के इस भाग को विशिष्ट महत्व दिया।

हिमालय यों तो गिलगित-कराकोरम व क-2 नामक विश्व की नम्बर दो की चोटी से आरंभ होकर वर्मा के जंगलों तक फैला हुआ है पर इसकी विशिष्टता इसके इस भाग में है जो धौलाधार-बंदरपूछ चोटियों के भाग से लेकर बद्रीनाथ के पूर्व में स्थित नन्दाकोट-पंचचूली-त्रिशूल व कैलाश पर्वत तक फैला हुआ है। भौगोलिक दृष्टि से भी यह समग्र हिमालय का मध्यभाग है तथा आध्यात्मिक दृष्टि से इसे हिमालय का हृदय कह सकते हैं। उत्तराखण्ड को अपने अंक में समेटे यह समूचा हिमक्षेत्र अति विशिष्ट ऊर्जा संपन्न क्षेत्र है, यह वहाँ जाकर उसके सामीप्य का लाभ लेकर समझा व आत्मसात किया जा सकता है।

परमपूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन काल में चार बार अपनी सूक्ष्म-शरीरधारी सत्ता के संकेतों पर हिमालय की यात्रा की। बाल्यकाल में तो वे एक बार घर से हिमालय भाग ही खड़े हुए थे व हल्द्वानी काठगोदाम जाने वाली रेल में बैठ भी चुके थे, जब संबंधीगण उन्हें समझा बुझाकर वापस लाए। हिमालय को पूज्यवर कहते थे व अपना पिता-संरक्षक मानते थे। नंदनवन के मखमली पठार से लेकर दुर्गम हिमालय के गंगोत्री से लेकर नर-नारायण पर्वत-नीलकण्ठ पर्वत तक के देवयान मार्ग को एक बार नहीं, तीन बार उनने मात्र अपने तपोबल-योगशक्ति के सहारे पार किया था। आर्षग्रन्थों का भाष्य उनके क्षरा हिमालय प्रवासों के संस्मरणों दस्तावेज सुनसान के सहचर पुस्तक के रूप में एक अलौकिक स्तर की मानवी चेतना को उच्चतर लोकों में ले जाने वली कृति है। तीर्थों की चेतन सत्ता जिन्दा हो, उनमें प्राण आए व पर्यटन करने आए तीर्थ यात्री वास्तव में हिमालय की प्राणऊर्जा से लाभान्वित होकर जाएँ, यह वेदना संस्कृति पुरुष पूज्य गुरुदेव के अंतस्तल में सतत् बनी रही।

वस्तुतः हिमालय का हृदय कहा जाने वाला यह

क्षेत्र न केवल आध्यात्मिक प्रगति के पिपासु, जिज्ञासु साधकों के लिए एक महत्वपूर्ण साधन स्थली है, वरन् आत्मबल उपार्जन हेतु एक श्रेष्ठ कर्मशाला भी। आज भी इस क्षेत्र में वे कम्पन विद्यमान हैं जो किसी भी व्यक्ति में पवित्रता के संचार-प्राणाग्नि के उद्दीपन तथा सूक्ष्म शरीर में ऊर्जा संचालन में सक्षम हैं। यही कारण है कि विश्वभर से आध्यात्मिक क्षेत्र में कुछ उत्थान करने, उच्चतर स्तर की साधनाएं करने वाले व्यक्ति यहाँ आते व अपना साधना पुरुषार्थ संपन्न करते हैं। तिब्बत जिसे रुफ ऑफ द वर्ल्ड कहा जाता है में कभी संपन्न होने वाले विशिष्ट स्तर के मंत्रशक्ति व तंत्रशक्ति के प्रयोग इसी क्षेत्र में अभी भी कई साधक संपन्न करते देखे जाते हैं। कैलाश-मानसरोवर का क्षेत्र इसी से जुड़ा हुआ है तथा परमपूज्य गुरुदेव ने तो शिवलिंग-भगीरथ पर्वत-गोमुख -गंगोत्री ग्लेशियर जैसे क्षेत्र को ही वास्तविक कैलाश मानसरोवर कहा है। बर्फ की श्वेत चादर से ढके इन पर्वतों को सूक्ष्म दृष्टि से देखने वाले साधक वास्तव में जाग्रत जीवन्त पाते हैं। हिमवान् पर्वतराज हिमालय की पुत्री जो प्रलयंकर शंकर के परिणय बंधन में बंधी ने भी यहीं तपकर अपनी पात्रता का संवर्धन किया। संत एक नाथ, आद्य शंकराचार्य, सहजानन्द स्वामी नारायण महाप्रभु, महाप्रभु ईसा, जैन तीर्थंकर ऋषभेदेवजी तथा सिक्खों के गुरु श्री गोविन्दसिंह जी ने भी यहीं आकर तप किया था। पुराणों के तो सारे आख्यान हिमालय क्षेत्र में ही होते संपन्न बताए गए हैं। इस प्रकार यह तो प्रामाणित ही है कि देवात्मा हिमालय की प्रचण्ड प्राणचेतना अपने चुम्बकीय आकर्षण से जन-जन के मन-मन को प्रभावित करती रही है।

हमारा यह कर्तव्य बनता है कि इस संक्रान्ति काल की वेला में जब हमें आध्यात्मिक बल सर्वाधिक अभीष्ट है, अपनी ऊर्जा के ध्रुवकेन्द्र हिमालय की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें। इसका हरीतिमा कवच नष्ट न करें। पर्यटन के नाम पर-पर्वतारोहण के नाम पर वर्जनाओं का उल्लंघन कर तामसिक वस्तुओं का माँस-शराब आदि का वहाँ प्रयोग वर्जित करें। अधिक भीड़ उस क्षेत्र में एकत्र हो-तीर्थाटन के नाम पर प्रदूषण पैदा करे, इसके स्थान पर इसके चप्पे-चप्पे को तीर्थ बनाते हुए उससे प्रेरणा लेने का प्रयास करें। साधना-स्थलियाँ अपने प्राकृतिक रूप में यहाँ बने तथा इससे सुपात्र व्यक्ति लाभ उठायें। स्वयं को गलाकर भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनन्दा को जन्म देने वाले इस हिमालय में कृत्रिम बाँध बनाकर देवी प्रकोपों को आमंत्रित न करें। यदि हम हिमालय को सुरक्षित रख सके तो हमारा साँस्कृतिक गौरव भी अक्षुण्ण बना रहेगा तथा हम इक्कीसवीं सदी के लिए प्राणवान पीढ़ी भी समाज के लिए छोड़कर जा सकेंगे।


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