मुक्ति का मार्ग सरल (kahani)

February 1993

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इंजीनियर अमृतलाल ठक्कर की नियुक्ति बम्बई कारपोरेशन में उच्च पद पर हुई थी। उस बीच उन्हें मेहतरों के मुहल्लों में काम कराना पड़ा। उनको दयनीय स्थिति देखकर उनने विचारा कि ऊँचे वेतन के लिए नौकरी करने के स्थान पर यह अच्छा है कि इन पिछड़े लोगों की सेवा में जीवन समर्पित किया जाय।

बापा ने नौकरी छोड़ दी। गान्धी जी के साथ हो लिए और जीवन भर हरिजनों, आदिवासियों तथा

पिछड़े लोगों की सेवा में लगे रहे।

शिक्षा पूरी हुई, तो शिष्यों ने गुरु से कहा कि कृपया मुक्ति का मार्ग भी बता दें। गुरु ने कहा’-परिसर में जो देवी की मूर्ति है, उसे जी भर कर गालियाँ देकर आओ।” शिष्यों ने अक्षरशः उसका पालन किया और लौट कर गुरु के पास आये। गुरु ने पुनः आदेश दिया कि अब तुम लोग उस प्रतिमा पर फूल चढ़ा आओ। शिष्यों ने वैसा ही किया। अब गुरु ने उन्हें संबोधित किया-दोनों ही अवसरों पर मूर्ति की क्या प्रतिक्रिया थी? उन्होंने एक स्वर से कहा-कुछ नहीं। गुरु ने कहा-बस, मुक्ति का यही मार्ग है। भले-बुरे प्रसंगों में जब तुम लोग भी सहिष्णुता का अभ्यास कर लोगे, तो मुक्ति का मार्ग सरल हो जायेगा।

शिष्यों का समाधान हो चुका था। गुरु के उत्तर से वे संतुष्ट थे।


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