विशेष लेखमाला-3 युगपुरुष पू. गुरुदेव पं. श्री राम शर्मा आचार्य - प्राण ऊर्जा का अक्षय कोष रहा, उस साधक का व्यक्तित्

February 1993

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विगत दिसम्बर 12 से आरंभ की गयी इस विशेष लेखमाला में परम पूज्य गुरुदेव के जीवन के विविध पहलुओं को दो भागों में सैद्धान्तिक व व्यवहारिक-दृश्यमान रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। दिसम्बर-जनवरी में वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के जन्मदाता के रूप में उनके जीवनदर्शन के विभिन्न प्रसंगों पर प्रकाश डाला गया। इस अंक में प्रस्तुत है साधक के रूप में उनके व्यक्तित्व के गुह्यपक्षों की सैद्धान्तिक विवेचना। उत्तरार्ध में आगामी माह आप पढ़ेंगे-साधक के रूप में उनके जीवन के व्यावहारिक पक्ष के कुछ देखे-सुने प्रसंग।

तरंगों में उछलते-बिखरते जल कणों को समेट-सँजो कर यह नहीं कहा जा सकता कि सागर जलकणों का इतना ही परिचय काफी है कि यह सागर का जल है। पू. गुरुदेव का व्यक्तित्व जितने अंशों में हम सब को दिखाई दे रहा है-वे उनके जीवन सागर की कुछ बौनी तरंगें-कुछ नन्हें जलकण भर है। इनके रूप भले ही कितने बहुरंगे और अलग-अलग क्यों न दिखें? पर साधक, मनीषी-लेखक -दार्शनिक-संगठनकर्ता, समाज−सुधार जैसे ढेर जलकणों को समेट-बटोर कर यह किस तरह कहा जा सकता है-बस सागर में इतनी ही जल राशि है?

लेकिन यदि कोई सागर से उसका परिचय जानना चाहे तो? बस कुछ ऐसा ही दुःसाहस भरा सुयोग-बचपन से उनके उपाधि के बाद उसकी इच्छा थी-कि गुरुदेव के जीवन दर्शन पर कोई शोध कार्य किया जाय। इच्छा तो इच्छा ठहरी-बौने नमक के पुतले द्वारा सागर की गहराई नापने की इच्छा। पहले वह मुस्कुराए फिर खिलखिला कर हँस पड़े। कुछ देर हँसते रहने के बाद उनके चेहरे पर गम्भीरता छा गई। इस गम्भीरता के बीच उन्होंने कहा-”मेरे जीवन की पुस्तक में 80 पृष्ठ है। इन 80 में से 1 का थोड़ा-बहुत परिचय लोगों को है। बाकी जो 79 पृष्ठ है उनके बारे में मैंने अपवाद रूप से एक दो को ही कुछ बताया है और अगर अभी सबको बता भी दूँ तो विश्वास कौन करेगा?” सुन रही शोधार्थी को याद आ गए ऋषि अरविंद के वाक्य -जो उन्होंने उनका जीवन-चरित्र लिखने के इच्छुक एक शिष्य को कहे थे-”मेरी जीवन कथा कोई नहीं लिख सकता-क्योंकि यह सतह पर नहीं है।”

थोड़ी देर चुप रहने के बाद बाल हठ पुनः सक्रिय हुआ”आखिर क्या है इन 79 पृष्ठों में”? “एक साधक की जिन्दगी संक्षिप्त-सा उत्तर था।” “पर उसकी चर्चा तो चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों के रूप में कई बार हो चुकी।” हंसी को बिखेरते हुए गुरुवाणी पुनः गूँजी -”वह जो 79 पृष्ठों की प्रस्तावना भर थी और प्रस्तावना पुस्तक नहीं हुआ करती।” सुनने वालों को पढ़ने वालों को बात कितनी समझ में आयी-आ रही है? पता नहीं- पर इतना तो निश्चित है कि साधना-उनके जीवन का पर्याय थी। उनका व्यक्तित्व साधक की प्राण-ऊर्जा का अक्षय कोष था।

साधक के रूप में पू. गुरुदेव ने कौन-सी साधना की? इस कठिन सवाल का सरल जवाब है-’जीवन साधना’। हो सकता है इस जवाब से सरल सस्ते हथकण्डों को ढूंढ़ खोजकर चमत्कारी बनने सिद्ध-पुरुष कहलाने के इच्छुक जनों का निराशा हो। पर सच्चाई को उन्हीं के शब्दों में सुनें तो-”अध्यात्म विद्या के शक्ति तन्त्र को धारण करने के लिए परशुराम, भगीरथ जैसी आत्माओं की जरूरत पड़ती है। घटिया लोग कुण्डलिनी जागरण से लेकर सिद्धि-सामर्थ्यों की उपलब्धि के स्वप्न भर देखते है। उन्हें धारण करने के लिए शंकर जैसी जटाएँ चाहिए सो कोई अपनी सर्वतोमुखी पात्रता विकसित करता नहीं, मात्र तंत्र-मंत्र के छुटपुट कर्मकाण्डों से लम्बे चौड़े स्वप्न देखते और विफल मनोरथ असफल बने रहते है।” (अपनी से अपनी -बात अ. ज्यों. अप्रैल 79)।

एक अन्य स्थान पर वे कहते है- “जिनके पास इस प्रकार का ब्रह्मवर्चस् न होगा। वे माला सटक कर पूजा पत्री उलट-पुलट कर मिथ्या आत्म प्रवंचना भले ही करते रहें। मिथ्या आत्म प्रवंचना भले ही करते रहे। वस्तुतः परमार्थ पथ पर एक कदम भी र बढ़ सकेंगे।” (अपनों से अपनी बात-अ. ज्यों. जून 79)

इस कठोर चेतावनी का अर्थ किसी को निराश करना नहीं बल्कि भ्रम जंजालों-मूढ़ मान्यताओं की जड़ पर कुठाराघात करना है। आज मनुष्य की जिन्दगी का बहिरंग क्षेत्र (सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक) जितना गँदला, भद्दा और ओछा हो चुका है, अंतरंग उससे कहीं कम थोड़ा नहीं है। हो भी क्यों न? आखिर बहिरंग है क्या? अंतरंग की प्रतिच्छाया मात्र। युग ऋषि का पुरुषार्थ जीवन के इन दोनों पक्षों के परिशोधन-परिमार्जन हेतु रहा है। इसी कारण कभी-कभी वे हँसी में स्वयं को समाज का धोबी-भंगी तक कह डालते थे। अध्यात्म इसी तत्व का पर्याय है पर इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि औरों की तो बात क्या स्वयं आध्यात्मिक कहने-कहलाने वाले इस तत्व बोध से वंचित है।

जिन्दगी की नैसर्गिक जरूरत अध्यात्म की ओर मुड़ने वालों का यदि सर्वेक्षण किया जाय तो पता चलेगा कि बहुसंख्य व्यक्ति तो इस कारण आध्यात्मिक होना चाहते है कि वे बिना कुछ किए-अकर्मण्यता को गले लगाए ही लोक-सम्मान के अधिकारी हो जायेंगे। “स्वयं को असाधारण समझने -कहलाने का सुयोग अर्जित कर सकेंगे। पर इनकी अन्तिम गति क्या होती है, गोस्वामी जी कह गए हैं-”

“उधरे अन्त न होहिं निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥’

अर्थात् पोल खुलने पा निर्वाह नहीं हो पाता। जैसे -कालनेमि और रावण ने साधु वेश धारण किया, राहू ने भी देवता बनने का ढोंग रचाया था-पर इनकी दुर्गति किसी से छुपी है क्या?

परिवर्तन वेश का नहीं जीवन का आवश्यक है। जो इसके लिए थोड़ी बहुत कोशिश करते है। उनका अविश्वास, अधैर्य, और छोटे लक्ष्य रह रहकर उनमें घबराहट पैदा करते-पथ विमुख करते रहते है। अभी सिद्धि नहीं मिली-अभी कुण्डलिनी नहीं जगी-प्रकाश नहीं चमका-चमत्कार नहीं घटित हुआ। तब क्यों साधना की जाय? शायद यह रास्ता ठीक न हों, हो सकता है, गुरु जी में शक्ति न हो-अन्यथा अब तक शक्तिपात हो जाता, सम्भव है मंत्र में दम न हो तब? ऐसी स्थिति में बार-बार गुरु बदलते बार-बार साधना पद्धतियों को परिवर्तित करते ही-जीवन नष्ट हो जाता है। दक्षिणेश्वर के संत परमहंस श्री कृष्ण की भाषा में कहें-एक पानी का इच्छुक व्यक्ति कई स्थानों पर दस-दस फीट खोदता फिरा। बारह सौ फीट खोद डालने के बावजूद भी उसने निष्कर्ष दिया-धरती में कहीं पानी नहीं है।

जबकि गुरुदेव ने आधुनिक युग में हम सबके बीच रहकर-इस स्वानुभव तथ्य का उद्घोष किया-आध्यात्म सौ फीसदी सटीक, इसको हमने अपने जीवन की प्रयोगशाला में कसा-परखा और खरा पाया है। इसके पीछे वे तीन तत्व है जो उनके समूचे जीवन में घुले-मिले रहे। ये तत्व है 1-गुरु के प्रति समर्पण 2- विश्व मानव के प्रति छलकती संवेदना 3-जीवन के प्रत्येक पक्ष को स्वांग सुन्दर बनाने का अनवरत उद्योग। उनके शब्दों को दुहराएँ तो-”हमने अपनी जीवन साधना में इन तत्वों का समावेश किया और मंजिल की एक सन्तोष-जनक लम्बाई पार कर चुके। अपने हर अनुयायी से इस अवसर पर यही अनुरोध कर सकते हैं कि जितना अधिक सम्भव हो इसी मार्ग पर कदम बढ़ाएँ जिस पर हम चलते रहे हैं।”

महत्वाकाँक्षा को पूरा करने की हवस और ललक स्वभावतः मनुष्य में भरी है। पल-पल पर वह अपने अहं को बुलन्दियों पर पहुंचाने के लिए कोशिश करता, इसी के लिए जूझता-खपता रहता है लेकिन यह तो अधोगामी क्रम हैं साधना मार्ग में भला इसकी गुँजाइश कहाँ? पर आदत जो ठहरी इस प्रकाश लोक में भी वह अहंता का अँधेरा चिपकाए स्वप्न देखना शुरू कर देता है-”गुरुजी बनेंगे “ “विवेकानंद बनेंगे” इससे कम कुछ बनना नहीं है। ऐसा क्यों-रैदास, गोरा कुम्हार-क्यों नहीं बनना चाहते? बस इसलिए कि वहाँ लोक सम्मान नहीं दिखाई पड़ रहा है पर साधना का अर्थ है अहं का विसर्जन -विलय।

वे किस तरह इसे एक पल में कर गुजरे इसे तनिक उन्हीं के शब्दों में सुनें “हमने अपना शरीर, मल-मस्तिष्क, धन और अस्तित्व, अहंकार सब कुछ मार्गदर्शक के हाथों बेच दिया है। हमारा शरीर ही नहीं अंतरंग भी उनका खरीदा है। अपनी कोई इच्छा शेष नहीं रही। भावना का समस्त उभार उसी अज्ञात शक्ति के नियंत्रण में सौंप दिया है।” .........................”समाज के सम्बन्ध में, दूसरों के सम्बन्ध में हम बहुत ढंग से सोचते है पर अपने बारे में सिर्फ उतना ही सोचते है कि हमारा मास्टर हमें जिधर ले चलेगा उधर ही चलेंगे भले ही वह मार्ग हमारी रुचि या सुविधा के सर्वथा विपरीत ही क्यों न हो।” .....”समर्पण इससे कम में सम्पन्न ही कहाँ होता है। प्रेमी ने प्रियतम पर अपनी इच्छा थोपी तब तो वह व्यापार व्यभिचार बन गया। हमारी आत्मा इतनी उथली नहीं जो समर्पण करने के बाद अपने मास्टर पर अपनी अभिरुचि का प्रस्ताव लेकर पहुँचे।”

समर्पण जितना समग्र होगा, गुरु की चेतना, सिद्धियों, शक्तियों, सामर्थ्य को हम उतना ही व्यापक रूप में धारण कर सकेंगे। जीवन उतनी तेजी से परिवर्तित होने लगेगा। इसके अभाव में हिमालय यात्रा की कल्पनाएँ करना-व्यर्थ दौड़ भाग का परिणाम पत्थरों से सिर टकराने के सिवा और क्या हो सकता है? ऐसों के लिए उन्होंने अपनी जून 79 की हिमालय यात्रा के समय निर्देश दिया था-”कितने व्यक्ति कहते रहते हैं कि हम आपके साथ हिमालय चलेंगे। उनसे यही कहना है कि वे आदर्शों के हिमालय पर उसी तरह चढ़े, जिस तरह हम जीवन पर चढ़ते रहे। असंदिग्ध रूप से गुरु के प्रति समर्पण ही वह गौरी शंकर शिखर है, जिस पर स्थित हो कोई भी चेतना के नीलाभ आकाश से एक हो सकता है। आध्यात्मिक जीवन के अनोखे रहस्य उसके लिए-सहज उद्घाटित हो सकते है।” गुरुदेव के जीवन में यही हुआ। पन्द्रह वर्ष की अल्प वयस् में साधना की जो ज्योति प्रज्वलित हुई। वह निष्कम्प-अनवरत अविराम जलती रही। उसे अविश्वास, अधैर्य, विषमताओं के प्रचण्ड झंझावात बुझा तो क्या डिगा भी नहीं सके।

साधना और जीवन दोनों वे एक दूसरे में घुलते गए। थोड़े ही समय में घुल-मिलकर एक हो गए। जीवन-साधना का उदय इसी अनुभूति का निष्कर्ष था। यों यह बात किसी को कहने-सुनने में सामान्य लग सकती है। पर जिन्होंने साधना पद्धतियों पर शोध की है साधकों के जीवन का बारीकी से अध्ययन-अन्वेषण किया। वे इस विरल-सुयोग को पाकर न केवल हतप्रभ होंगे बल्कि सुखद आश्चर्य से भर उठेंगे।

अब तक के आध्यात्मिक इतिहास में साधना और जीवन दो विरोधी ध्रुवों पर स्थित रहें है। अपने अस्तित्व की शुरुआत से मानव-समाज यह धारणा सँजोये रहा है “ जिसे साधना करती है उसे जीवन का त्याग करना पड़ेगा। जिसे का मोह है उसे साधना का लाभ नहीं मिलेगा।” बात सिर्फ हिन्दू धर्म-आर्य भूमि की नहीं जहाँ कहीं जिस किसी भूखण्ड में जाति समूह में आस्तिक भावनाएँ पनपी, व्यक्तित्व विकास को चरम स्तर पर ले जाने की ललक उमगी है। इन भावों का विकास हुए बिना नहीं रहा। ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी, यहूदी, जैन सभी को इन दो मनोभावों में बाँटा जा सकता है। मानव की प्रवृत्तियों और प्रकृति के इस विभाजन में कितनी ही निराशा की वेदना क्यों न सहनी पड़ी हो, पर होना इसकी मजबूरी रही है।

धीरे-धीरे लोकमानस में यह धारण बद्धमूल हो गई कि जो साधक है-उसे जीवन से क्या-लेना-देना, उसे संन्यासी हो जाना चाहिए और जिसे जीवन से प्रेम है जो गुणी है-उसे साधना का क्या करना। एक का स्वधर्म दूसरे का विधर्म बनकर रह गया। विधर्म के प्रति अधिक से अधिक संवेदना जन्य सहानुभूति भर हो सकती है। उसे अंगीकार किया जाने से तो रहा। परिणाम में संन्यासी-गृही भिक्षु भ्रमण के रूप में दो समूह स्थायित्व पा गए।

गुरुदेव ने मानव इतिहास में पहली बार जीवन और साधना को एकाकार किया। उन्होंने कहा-”क्या वस्तुतः जीवन ऐसा ही है जिसे रोते-खीजते किसी प्रकार पूरा किया जाना है? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि अनाड़ी हाथों में पड़कर हीरा भी उपेक्षित होता है तो बहुमूल्य मनुष्य जीवन भी क्यों न भार बनकर लदा रहेगा। ..........यदि उसे कलाकार की प्रतिभा से सँभाला, सँजोया जाय तो निश्चय ही उसे स्वर्गीय परिस्थितियों से भरापूरा जिया जा सकता है। साधना जीवन जीने की कला है।”

वे इसके समर्थ कला-शिल्पी थे। बुद्ध की करुणा, शंकराचार्य का ज्ञान और महावीर का त्याग पाकर भी वे वन की ओर भागे न जीवन से मुख मोड़ा। बल्कि घोषित किया “गृहस्थ एक तपोवन है” जहाँ उन्होंने वन्दनीया माता जी के साथ संयम, सेवा, सहिष्णुता की साधना करते हुए-दो पुत्र, दो, पुत्रियों के पिता का दायित्व भली प्रकार निभाया। जीवन का कोई भी पक्ष हो छोटा या बड़ा खान-पान की समस्याएँ हो या लोकाचार-शिष्टाचार के सामान्य प्रश्न अथवा आत्म साधना की जटिल पहेलियाँ हर जगह उनके उत्तर सटीक और सार्थक है। ध्यान रखने की बात है-ये उत्तर वाणी से नहीं दिए गए-बल्कि स्वयं के आचरण से इनमें प्राण फूँका गया है।

ये बातें किसी सामान्य चेतना में जीवन जीने वाले को साधारण लग सकती है। पर जिन्होंने स्वयं साधना कर चेतना के विशिष्ट शिखरों को पार किया है-वे जानते होंगे-यह सब सहज नहीं है। श्री रामकृष्ण परमहंस को बार-बार भाव समाधि में जाना पड़ता था। चैतन्य देव पर निरन्तर एक तरह का भावावेश चढ़ा रहता। व्यवहार कुशलता वहाँ रहती है- जहाँ अपेक्षाएँ हों। अपेक्षा-शून्यता होने पर व्यवहार कुशल बने रहना-उसी महायोगी से सम्भव है-जो मनके साथ प्राण और शरीर में भी ठीक-ठीक ईश्वरीय प्रकाश का अवतरण कर सका हो। पू. गुरुदेव के जीवन में साधना जगत का यह परम रहस्य सहज उजागर हो सका था।

साधक के रूप में उन्होंने आश्चर्य के अनेकों मानदण्ड स्थापित किए। इन्हीं में से एक था-विश्व जीवन का केन्द्र बनकर किया गया प्रचण्ड साधनात्मक पुरुषार्थ। सामान्यतया साधक स्वयं के जीवन को ठीक बनाने, परिशोधित करने, मोक्ष के रूप में जीवन लक्ष्य पाने का पुरुषार्थ करते रहते है। पर उनने स्पष्ट शब्दों में कहा “मेरी साधना का उद्देश्य किसी उद्देश्य जीवन एवं अस्तित्व का परिवर्तन है। “ वे विश्व चेतना के केन्द्र बन सकें-क्योंकि-”पीड़ित मानवता की, विश्वात्मा की व्यक्ति और समाज की व्यथा वेदना अपने भीतर उठने और बेचैन करने लगी। आँख, दाढ़ और पेट के दर्द से बेचैन मनुष्य-व्याकुलता फिरता है कि किस प्रकार-किस उपाय से इस कष्ट से छुटकारा पाया जाय। लगभग अपनी मनोदशा ऐसी ही है। अपने सुख-साधन जुटाने की फुरसत किसे है? विलासिता की सामग्री जहर-सी लगती है। विनोद आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आई तो आत्मग्लानि से उस क्षुद्रता को धिक्कारा जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के एक गिलास को अपने पैर धोने की विडम्बना में बिखरने के लिए ललचाती है।”

विश्व मानव के प्रति उफनती संवेदना से जो विश्वात्मा बोध-जाग्रत हुआ। उससे प्रचण्ड साधनात्मक पुरुषार्थ उत्तुंग गिरि शिखर की तरह उठ खड़ा हुआ। इसलिए कि “अर्जुन को, हनुमान को जो अनुदान मिला वही इस युग के महामानवों की देना होगा। जो सौभाग्य हमने पाया वहीं अब अन्य असंख्यों को दे दें।” उनकी जीवन साधना के परिणामों को उन्हीं के शब्दों में आत्मसात करें- “हमारी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगीरथों का सृजन करना है। “ “नवनिर्माण के उदीयमान नेतृत्व के लिए पर्दे के पीछे हम आवश्यक शक्ति तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे।”

एक अन्य स्थान पर उनकी लेखनी से उमगते भाव हैं-”हम जिस अग्नि में अगले दिनों तपेंगे, उसकी गर्मी असंख्य जाग्रत आत्माएं अनुभव करेंगी। भावी महाभारत का संचालन करने के लिए कितने कर्मनिष्ठ महामानव अपनी वर्तमान मूर्छना छोड़कर आगे आते है, इस चमत्कार को अगले ही दिनों प्रत्यक्ष देखने के लिए सहज ही हर किसी को प्रतीक्षा करनी चाहिए। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना जो असम्भव को सम्भव बना दे, नरक को स्वर्ग में परिणत कर दे, हमारे ज्वलन्त जीवनक्रम का अन्तिम-चमत्कार होगा।”

और साथ में ही उनकी जीवन साधना पर शोध करने वालों के लिए चुनौती भरा निर्देश अब तक के जिन छुटपुट कामों को देखकर लोग हमें सिद्ध-पुरुष कहने लगे है, उन्हें अगले दिनों के परोक्ष कर्तृत्व का लेखा-जोखा यदि सूझ पड़े तो वे इससे भी आगे बढ़कर न जाने क्या-क्या कह सकते हैं। निश्चित रूप से हमारी जीवन-साधना कुछ ऐसा अनुदान विश्व मानव के सम्मुख प्रस्तुत करेगी जो उसके भाग्य और भविष्य की दिशा ही मोड़ दे। शोध की दृष्टि हो या सीखने की ललक-जब कभी किसी के मन में सवाल उठे वह कैसे साधक थे तो याद कर लें महाकवि कालिदास के इन स्वरों को-

“सर्वातिरिक्त सारेण सर्वतेजोभिभाविना। स्थितः सर्वोन्नतुनोर्वी क्रान्ता मेरुरिवात्मना॥

आकार सदृश प्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः। आगमैः सदृशाराम्भ आरम्भ सदृशोदयः॥ (रघुवंश 1-14-15)

“वे दृढ़ता में सबसे दृढ़ तेज में सबसे उदीप्त, उच्चता में सबसे उच्च, व्यापकता में सबसे व्यापक मेरु सदृश आत्मा वाले थे। जैसा उच्च व्यक्तित्व था, वैसी ही प्रज्ञा थी, वैसी ही शास्त्रज्ञता, जैसी शास्त्रज्ञता थी, वैसी ही साधना और होती थी-वैसी ही महती उपलब्धि।”


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