इक्कीसवीं सदी का आधार स्तंभ बनेगाआध्यात्मिक अर्थशास्त्र

February 1993

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मनुष्य की दृष्टि के संबंध में एक चौंकाने वाला आँकड़ा ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने विश्व के सम्मुख रखा है। इसके अनुसार पूरे विश्व में इस समय एक अरब के लगभग व्यक्ति मायेपिया ( अर्थात् व्याधि जिसमें आँखों को दूर का स्पष्ट नहीं दिखाई देता) से ग्रस्त हैं। यह समाचार चिकित्सकों एवं वैज्ञानिक समुदाय को हैरानी में डाल सकता है। पर उससे एक संकेत यह भी मिलता है कि रोग की दृष्टि से न भी सोचा जाय तो भी अदूरदर्शिता (जिसमें दूर का भी विचार ही नहीं आता) से तो तकरीबन विश्व की समूची जनसंख्या ही ग्रस्त है। न दीखने का उपचार तो लेन्स उपचार से हो जाता है, पर जीवन व्यापार की जो योजनाएँ है- उनमें व्याप्त अदूरदर्शिता का उपचार किस प्रकार संभव है?

यदि सारे समाज में इसी आर्थिक चिन्तन को आधार बना लिया जाय तो सौंदर्य, शालीनता, सदाचार, नैतिकता, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता जैसे सरल अनार्थिक मूल्यों का भी अस्तित्व तब रह सकेगा जब वे आर्थिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों। नीति-अनीति के मामले में भी यही आर्थिक चिन्तन बार-बार हावी होकर उसी अदूरदर्शिता को अपनाने को बाध्य करता है-जो तुरन्त लाभ की है।

वस्तुतः; स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। भौतिकवादी, उच्छृंखल बुद्धिवादिता कितने ही तर्क दे लें, मानवता को कुपथ पर अपनी मर्जी से नहीं ले जा सकती। धन मानव जीवन के लिए आवश्यक है, पर इतना ही नहीं कि वही सब कुछ बन जाय। पहला स्थान अध्यात्म-परक मूल्यों का है। अर्थ की चर्चा इसके बाद की जाती है। धर्म से रहित अर्थ व्यर्थ है, हानिकारक है, रोग-शोकों को आमन्त्रित करता है। धन कमाने से पूर्व मानव में सदाचार की विवेक-बुद्धि जाग्रत होनी चाहिए-ताकि वह कमाई का सदुपयोग कर सके।

महर्षि जैमिनी ने “मीमांसा दर्शन” में निर्देश दिया है- “ यतो हि अभ्युदानि निःश्रेयस स धर्मः “- आध्यात्मिक उन्नति और नैतिक प्रगति एक दूसरे की परम मित्र है। पर उत्पादन को आधार बड़े-बड़े उद्योग नहीं श्रम-सहकार होना चाहिए। शुभाकर इसके तीन कारण बताते हुए इसी का ‘आध्यात्मिक अर्थशास्त्र’ की संज्ञा देते हैं। पहला तो यह कि इसी माध्यम से अपनी छिपी क्षमताओं एवं अविज्ञात शक्तियों का उपयोग करने एवं उन्हें विकसित करने का पूर्ण अवसर मिलता है। दूसरे सबके साथ काम करने से व्यक्ति में सहयोग की भावना जन्म लेती है। यह विचार मन से निकल जाता है कि यह काम ‘मैंने’ किया है। इसके स्थान पर जब ‘हम’ आ जाता है तो ‘अहं’ की विकृति नहीं पनपने पाती। तीसरे आध्यात्मवादी व्यक्ति जब वस्तुओं के निर्माण हेतु श्रम करता है तो आवश्यक वस्तुओं को सुन्दर-सुदृढ़ बनाने का भरपूर प्रयास करता है। जिसका किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र में नितान्त अभाव होता है।

बेरोजगारी, औद्योगिक अशांति, हड़तालें, अपराध, नैतिक पतन आदि सभी उसी प्रकार उत्पन्न हुई समस्याएँ हैं जिस प्रकार अल्पकालीन लाभ के लिए ली गई पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की एक तेज औषधि अपने पीछे दुष्परिणाम में रोगों का सिलसिला छोड़ जाती है। जब बाढ़ आती है तो अपने साथ महामारी, भुखमरी लेकर आती है। उसी प्रकार औद्योगीकरण के बूते समृद्धि की बाढ़ का दम्भ करने वाले देशों में इसकी परिणति-प्रेम, सौहार्द तथा धार्मिक-पवित्रता से कदापि निरपेक्ष-संकीर्ण, स्वार्थी, निष्ठुर व्यक्तियों की भरमार के रूप में देखी जा सकती है।

विज्ञान, टेक्नोलॉजी और औद्योगिकी के अनियंत्रित विस्तार से होने वाले दुष्परिणामों से राष्ट्र पिता गान्धी अवगत थे। उन्होंने स्वतंत्र ग्राम इकाइयों के निर्माण द्वारा ग्राम स्वराज्य का सपना देखा था। किन्तु प्रगति के पाश्चात्य अन्धानुकरण ने औद्योगीकरण को अधिक महत्व दिया। अधिक उत्पादन के तात्कालिक लालच ने दूरवर्ती सत्परिणामों को भुला दिया और मानव जाति के लिए गाँधी की कल्याणकारी योजना मात्र सपना ही बनी रही।

‘दि अमेरिकन रिव्यू’ में प्रकाशित शोधपत्र “वैल्यूज टू ए वाँयबेल फ्यूचर” के लेखक विलियम इर्विन थाम्पसन की कल्पना भी शुभाकर की भाँति ‘ग्राम्य स्वराज्य’ विचारधारा पर आधारित है। थाम्पसन का विश्वास है कि वर्तमान सभ्यता जिस ओर गतिशील है-उससे मानव आमूल-चूल परिवर्तन करना जरूरी है। उन्होंने एक ग्रामीण सभ्यता पर आधारित हो, जिसमें रहने वाले व्यक्तियों में आपसी स्नेह सौहार्द हो। उत्पादन के स्रोत छोटे कुटीर उद्योग हों।

इस संस्कृति का नाम इर्विन थाम्पसन ने ‘परा औद्योगिक संस्कृति’ दिया है। उनके अनुसार परा औद्योगिक संस्कृति में उत्पादन एवं श्रम शक्ति का विकेन्द्रीकरण छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों के माध्यम से होगा। उनका कहना है कि आज प्रगतिशीलता एवं फैशन के नाम पर कितनी ही वस्तुएँ बनती हैं और उपयोगी होते हुए भी कुछ समय बाद फैशन के बाहर कह अनुपयोगी ठहरा दी जाती हैं। यह प्रवृत्ति हानिकारक है। अब जो वस्तुएँ बनेंगी-उपयोगिता के आधार पर विनिर्मित होंगी तथा वर्षों तक कारगर सिद्ध होंगी।

विलियम इर्विन ने अपनी ‘भविष्यत् संस्कृति’ को विकसित करने में चार आदर्शों पर बल दिया है। इन आदर्शों का नाम उन्होंने ‘कार्यकारी सामाजिक शक्ति’ रखा है। प्रथम आदर्श है-”राष्ट्रों का ग्रहीकरण” अर्थात् समस्त विश्व को एक कुटुम्ब के रूप में माना जाय। जब तक प्रत्येक राष्ट्र अपने को स्वतंत्र एवं अलग समझते रहेंगे तब तक आपसी सद्भाव नहीं बन सकता है। अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने और दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की दृष्टि से अधिकाधिक शस्त्रों के निर्माण एवं संग्रह की होड़ चलती है। फलतः आपसी तनाव एवं संघर्ष बढ़ते हैं। अतएव राष्ट्रों के एकीकरण का प्रयास आवश्यक है। दूसरा आदर्श है- “नगरों का विकेन्द्रीकरण”। वे कहते हैं कि नई संस्कृति में नगरों की ओर केन्द्रित परिधि के ध्रुवीकरण को हटाकर प्रकृति की ओर उन्मुख करना होगा। पर्यावरण के संकटों से इसी प्रकार बचना संभव है।

तीसरा आधार है- “तकनीकी शिक्षा (जिससे औद्योगीकरण को प्रोत्साहन मिलता है) के प्रति उत्साह को कम करना।” छोटे उद्योगों को बड़े उद्योगों के स्थान पर प्रतिष्ठित करना होगा। ‘थाम्पसन’ का कहना है कि बड़े उद्योगों में लगी तकनीकी शक्ति को, प्रकृति को सुरम्य पेड़ पौधों से युक्त बनाने में प्रयोग करना अधिक श्रेयस्कर होगा। बड़े-बड़े उद्योगों के विस्तार का प्रभाव पर्यावरण पर ही नहीं हमारे नैतिक वातावरण पर भी पड़ता है। जब हम नई वस्तुओं के अधिकाधिक निर्माण के स्थान पर सद्ज्ञान को, अधिक पूँजी वाली अर्थव्यवस्था की जगह क्षेत्रीय उत्पादन के लिए लघु उद्योगों वाली अर्थव्यवस्था को, तथा उपभोक्ता मूल्यों को स्थान देने लगेंगे, तो औद्योगिक असन्तुलन के खतरे घटने लगेंगे। आपसी मन मुटाव एवं तनाव भी समाप्त होता दीख पड़ेगा।

इर्विन की नव संस्कृति निर्माण प्रक्रिया का चौथा आदर्श है- “चेतना का अंतर्मुखीकरण”। इससे उनका अभिप्राय यह है कि मानव जाति आज बहिर्मुखी बनी हुई है। विचारशील वर्ग भी सभ्यता के विकास का चरम अर्थ-अन्तरिक्ष में अपनी बस्तियाँ बसाना अथवा उपनिवेश स्थापित करना मानता है। जबकि सभ्यता का चरम लक्ष्य है मनुष्य जाति का आँतरिक विकास। वर्तमान सभ्यता में इस अंतर्दृष्टि का अभाव है। इसके विकास द्वारा ही मानव जीवन से संबंधित भौतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना सम्भव है। ऐसी स्थिति में संसार का स्वरूप दूसरा ही होगा। भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के लिए उन्मुख राष्ट्रों के बीच आपसी तनाव एवं संघर्ष पैदा होता है। चेतना के अन्तर्मुखी होने पर समस्त विश्व एक परिवार के रूप में दिखाई देगा। मनुष्य का लक्ष्य “ वसुधैव कुटुम्बकम “ की स्थापना होगा।

इन चार आदर्शों के आधार पर विकसित हुई ‘नवयुग संस्कृति’ का लक्ष्य समाज में सद्विचारों की समृद्धि होगा न कि वस्तुओं की समृद्धि। छोटे कलकारखानों, उद्योगों से विनिर्मित हुए उपकरणों का उपयोग तो होगा किन्तु मनुष्य पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों के सहचर्य में रहकर अपनी चेतना के विकास एवं विस्तार के प्रयत्न को अधिक पसन्द करेगा। समाज की वास्तविक प्रगति इसी में मानी जाएगी। बस्तियाँ छोटी-छोटी तथा पेड़-पौधों से घिरी होंगी। आज जैसे महानगर नहीं होंगे, जिनके लिए ऊर्जा एवं खाद्यान्न जुटाना एक समस्या बनती जा रही है। तब बुद्धि को प्रखर एवं परिष्कृत तथा हृदय को उदात्त बनाना शिक्षा का लक्ष्य होगा न कि वस्तुओं का विस्तार।

इर्विन की ही भाँति-विश्व के हर विचारशील को परिवर्तनकारी शक्तियां यह सोचने के लिए मजबूर कर रही है कि एकाँगी भौतिक समृद्धि की नीति अदूरदर्शितापूर्ण है। सहजीवन, सौम्य जीवन एवं सन्तुलित जीवन क्रम की ओर वापस लौटने में ही कल्याण है। इस तथ्य को अगले दिनों समझाया ही नहीं अपनाया भी जाएगा। मानवीय अदूरदर्शिता को दूर करती चली आ रही इक्कीसवीं सदी के गतिमान चरण-इसी ओर बढ़ रहे हैं।


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