प्रत्यक्ष से परे परोक्ष जगत का अस्तित्व

February 1993

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भौतिकी के मूर्धन्य प्रोफेसर एड्रियान इलिंगवर्थ अपने साथी प्राध्यापक जॉन एच. वाकर के साथ पदार्थ की प्लाज्मा अवस्था पर विचार कर रहे थे। इलिंगवर्थ का कहना था कि प्लाज्मा और पदार्थ के ऊर्जा में रूपांतरण के बीच एक अन्य अवस्था होनी चाहिए, जबकि वाकर इसका प्रतिवाद कर रहे थे। कह रहे थे यह संभव नहीं। चर्चा अभी चल ही रही थी कि प्रो. वाकर देखते-देखते न जाने अचानक कहाँ गायब हो गये। इलिंगवर्थ और उनकी पत्नी ने सारे कमरे छान मारे, बाहर देखा, कॉलेज और उनके घर में पता लगाया, पर कही पता न चला कि वे कहाँ अंतर्धान हो गये।

प्रस्तुत प्रसंग अब से पाँच वर्ष पूर्व घटी हॉलैण्ड (हेग) की एक सत्य घटना है। योग विज्ञान और रहस्यवाद के पास ऐसी घटनाओं का सुनिश्चित समाधान है, पर विज्ञान का प्रत्यक्षवाद अब भी स्थूल इन्द्रियों की क्षमता से परे के संसार में प्रवेश नहीं कर सका है, अस्तु इनका कारण भी नहीं ढूंढ़ सका है। यों धीरे-धीरे वह अब इस निश्चय पर पहुँच रहा है कि मनुष्य की इन्द्रिय चेतना के आधार पर विकसित बुद्धि जितना जान पाती है, दुनिया वस्तुतः उससे कहीं अधिक है। उसे न बुद्धि समझ पाती है और न मानव निर्मित यंत्र ही उसे पूरी, पकड़ पाते हैं, फिर भी कुछ विशेष सूक्ष्म संवेदना वाले यंत्र थोड़ी बहुत जानकारी कभी-कभी देते रहते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि प्रत्यक्ष दर्शन न केवल अधूरा, वरन् भ्रामक भी है।

हम नित्य ही सूर्य की धूप को देखते हैं, पर सच्चाई यह है कि धूप कभी भी देखी नहीं जा सकती। उसके प्रभाव से प्रभावित पदार्थ विशेष स्तर पर चमकने लगते हैं। यह पदार्थों की चमक है। सूर्य की किरणें जो इस चमक का प्रधान कारण हैं, हमारी दृश्य शक्ति से सर्वथा परे हैं। अन्तरिक्ष में प्रायः पूरे सौरमंडल को प्रकाशित एवं प्रभावित करने वाली धूप वस्तुतः सोलर स्पेक्ट्रम-सौरमंडलीय वर्णक्रम है। उसे ऊर्जा की तरंगों एवं स्फुरणाओं की एक सुविस्तृत पट्टी कह सकते हैं। इस पट्टी में प्रायः 10 अरब प्रकार के रंग हैं। उनमें से हमारी आँखें लाल से लेकर बैंगनी तक के रंगों एवं उनके सम्मिश्रणों को ही देख पाती हैं। बाकी सारे रंग हमारे लिए सर्वथा अदृश्य और अपरिचित है।

अब हम कुछ एक सूक्ष्म किरणों को किन्हीं विशेष यंत्रों की सहायता से देख-समझ सकने में थोड़ा-थोड़ा समर्थ होते जाते हैं, जैसे धूप में इन्फ्रारेड तरंगें देखी तो नहीं जा सकती हैं। आजकल इसकी सहायता से दुनिया की विचित्र ही तस्वीर सामने आयी है। कुछ वर्ष पूर्व इन किरणों की मदद से अमेरिका ने क्यूबा में लगे रूसी प्रक्षेपास्त्रों के फोटो हवाई जहाज में खींचे थे। आश्चर्य यह कि उसमें वे उन जलती सिगरेटों के फोटो भी आ गये जो 24 घंटे पूर्व वहाँ के कर्मचारियों ने जलाई थीं और वे तभी बुझ भी गयी थीं। दृश्य जगत में पदार्थ समाप्त हो जाने पर भी वह अन्तरिक्ष में अपनी स्थिति बनाये रह सकता है। यह अजूबा हमें भूत और वर्तमान के बीच खिंची हुई लक्ष्मण रेखा से आगे बढ़ा ले जाता है। जो वस्तु अपने अनुभव के अनुसार समाप्त हो गई, वह भी अन्तरिक्ष में वर्तमान की तरह यथावत् मौजूद है, यह कैसी विचित्र है।

ट्रेवर जेम्स ने इन्फ्रारेड मूवी फिल्म के लिए प्रयुक्त होने वाले एक विशेष कैमरे आई.आर. 135 का उपयोग करके मोजावे रेगिस्तान के अन्तरिक्ष की स्थिति चित्रित की है। फिल्म में ऐसे पक्षी दिखाई पड़ते हैं, जो स्थूल चक्षुओं से कभी दिखाई नहीं पड़ते।

जीवाणुओं की अपनी अनोखी दुनिया है। वे मिट्टी घास-पात, आनी और प्राणियों के शरीरों में निवास करते और अपने ढर्रे की जिन्दगी जीते हैं, पर हम उनमें से कुछ को ही सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से देख पाते हैं, बाकी तो इतने सूक्ष्म हैं कि किसी भी यंत्र की पकड़ में नहीं आते, किन्तु अपने क्रिया-कलाप वे बड़ी शान के साथ जारी रखते हैं।

शास्त्रकार ने उसे अणोरणीयान् महतोमहीयान् कहा है। परमाणु से भी गहरी उसकी संचालनकर्त्री सूक्षमता को देखा और जाना तो नहीं जा सकता, पर उसका आभास पा लिया गया है। महतोमहीयान् की बात भी ऐसी ही है। विशालकाय ग्रहपिण्ड और निहारिका समुच्चय अत्यन्त विशाल है-इतना जिसकी तुलना में अपना सौरमण्डल बाल बराबर भी नहीं है। फिर भी वह सब कुछ अधिक दूरी होने के कारण दीखता नहीं। रेडियो टेलिस्कोप जिन आकाशीय पिंडों का परिचय देते है वह आँखों से देखे जा सकने वाले सितारों की तुलना में अत्यधिक विस्तृत हैं, आश्चर्य यह है कि यह रेडियो दूरबीनें भी पूरी धोखेबाज हैं। वे अब से हजारों -लाखों वर्ष पुरानी उस स्थिति का दर्शन कराती हैं जो संभवतः अब आमूल-चूल ही बदल गई होगी। संभव है वे तारे बूढ़े होकर मर भी गये हों, तो हमारी दूरबीनों पर जगमगाते दीखते हैं।

अल्ट्रा वायलेट फोटोग्राफी से ऐसे प्राणियों के अस्तित्व का पता चलता है, जो हमारी समझ, परख और प्रामाणिकता के लिए काम में आने वाली सभी कसौटियों से ऊपर हैं। इन प्राणियों को प्रेत मानव अथवा प्रेत प्राणी कहा जाय, तो कुछ अत्युक्ति न होगी, अब हमारे परिवार में यह अदृश्य प्राणधारी भी सम्मिलित होने जा रहे हैं। सूक्ष्म जीवाणु की तरह उनकी हरकतें और हलचलें भी अपने अनुभव की सीमा में आ जायेंगी।

हर्बर्ट गोल्डस्टीन ने अपने शोध निबन्ध प्रोपगेशन ऑफ शार्ट रेडियो वेव्स में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वायुमंडल में संव्याप्त अपवर्तनांक प्रवणता के पर्दे से पीछे अदृश्य प्राणियों की दुनिया है। वह दुनिया हमारे साथ जुड़ी हुई है और दृश्यमान समदर्शी साधन अपर्याप्त हैं, तो भी हमें निराश न होकर ऐसे साधन विकसित करने चाहिए, जो इस अति महत्वपूर्ण अदृश्य संसार के साथ हमारी अनुभव-चेतना का संबंध जोड़ सकें।

साधारणतया हमारी जानकारी पदार्थ के तीन आयामों तक सीमित है-लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई। अब इसमें काल को चौथे आयाम के रूप में सम्मिलित का लिया गया है। आइंस्टीन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धान्त की विवेचना करते हुए यह समझाने का प्रयत्न किया है, कि यह भौतिक संसार वस्तुतः संयुक्त किया है, कि यह भौतिक संसार वस्तुतः संयुक्त चतुर्विस्तारीय दिक्−काल जगत है। वे देश और काल की वर्तमान मान्यताओं को एक प्रकार से सापेक्षवाद और दूसरे प्रकार से अपूर्ण-अवास्तविक मानते हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ. राबर्ट सिरगी अपने दल के साथ ऐसे उपकरण बनाने में संलग्न हैं, जिनसे पदार्थ के चौथे आयाम को समझ सकना संभव हो सके। वे कहते हैं, जो हम जानते और देखते हैं, उनसे आगे की गतियाँ और दिशाएँ मौजूद हैं। हम केवल तीन आयामों की परिधि में आने वाले पदार्थों का ही अनुभव कर पाते हैं, जबकि इससे आगे भी एक विचित्र दुनिया मौजूद है। उस विचित्र को समझे बिना हमारी वर्तमान जानकारियाँ बाल-बुद्धि स्तर की ही बनी रहेगी।

दृश्य का अदृश्य बन जाना और अदृश्य का दिखाई देने लगना-मोटी-बुद्धि से बुद्धि-भ्रम अथवा कोई देवी चमत्कारी ही कहा जा सकता है। इतना होते हुए भी एक ऐसे सूक्ष्मजगत का अस्तित्व विद्यमान है, जो अपने इस ज्ञात जगत की तुलना में न केवल अधिक विस्तृत वरन् अधिक शक्तिशाली भी है। भूतकाल में उसे सूक्ष्मजगत एवं दिव्यलोक कहा जाता रहा है। उसमें पदार्थों का ही नहीं दिव्यलोक कहा जाता रहा है। उसमें पदार्थों का ही नहीं, प्राणियों का भी अस्तित्व मौजूद है। वे प्राणी मनुष्य की तुलना में बहुत छोटे भी हो सकते हैं, और बहुत बड़े भी। आवश्यकता और परिस्थितियाँ उनकी भी हो सकती हैं और जिस प्रकार हम उस सूक्ष्मजगत के साथ संबंध जोड़ने को उत्सुक हैं, उसी प्रकार वे भी हमारे सहचरत्व के लिए इच्छुक हो सकते हैं। प्राणियों और पदार्थ का लुप्त एवं प्रकट होते रहना इन स्थूल-सूक्ष्मजगत के बीच होते रहने वाले आदान-प्रदान का एक प्रमाण हो सकता है।

सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक ए. पी. मेगरमोट ने अपनी पुस्तक दि इनविजिवल मैन में उन संभावनाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके अनुसार कोई दृश्य पदार्थ या प्राणी अदृश्य हो सकता है और अदृश्य वस्तुएँ दृष्टिगोचर होने लग सकती हैं। इस विद्या का उन्होंने अपवर्तनाँक का विज्ञान-साइंस ऑफ रिफ्रेक्टिव इण्डेक्स नाम देकर उसके स्वरूप एवं क्षेत्र का विस्तृत वर्णन किया है।

हम ज्ञात को ही पर्याप्त न मानें प्रत्यक्ष को ही सब कुछ न कहें। प्रस्तुत मस्तिष्कीय क्षमता और यांत्रिक साधनों को सीमित मानकर न चलें और जो अविज्ञात है, उसकी शोध में बिना किसी पूर्वाग्रह के लगे रहें, तो इस अणोरणीयान् महतोमहीयान् जगत के वे रहस्य जानने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं, जो अभी तक नहीं जाने जा सके हैं। निश्चित ही सूक्ष्म जगत के लीला उपक्रम जो ज्ञात हैं उससे कहीं अधिक विलक्षण होंगे।


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