तन्मयता-तल्लीनता की उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ

February 1993

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एकाग्रता एक उपयोगी सत्प्रवृत्ति है। मन की अनियंत्रित कल्पनाएँ अनावश्यक उड़ने, उस उपयोगी विचार शक्ति का अपव्यय करती हैं, जिसे यदि लक्ष्य विशेष पर केंद्रित किया गया होता तो गहराई में उतरने और महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह चित्त की चंचलता ही है जो मनः संस्थान की दिव्य क्षमता को ऐसे ही निरर्थक गँवाती और नष्ट-भ्रष्ट करती रहती है। संसार के वे महामानव जिन्होंने किसी विषय में पारंगत प्रवीणता-हासिल की है या महत्वपूर्ण सफलताएँ करने-उन्हें अनावश्यक चिन्तन से हटाकर उपयोगी दिशा में चलने की क्षमता प्राप्त रही है। इसके बिना चंचलता की वारन वृत्ति से ग्रसित व्यक्ति न किसी प्रसंग पर गहराई से सोच सकता है और न किसी कार्यक्रम पर देर तक स्थित रह सकता है। शिल्प, कला, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, व्यवस्था आदि महत्वपूर्ण सभी प्रयोजनों की सफलता में एकाग्रता की शक्ति ही प्रधान भूमिका निभाती है। चंचलता को तो असफलता की सगी बहिन माना जाता है। वयस्क होने पर भी यदि कोई चंचल ही बना रहे-विचारों की दिशाधारा बनाने और चिन्तन पर नियंत्रण स्थापित करने में सफल न हो सके तो समझना चाहिए कि आयु बढ़ जाने पर भी उसका मानसिक स्तर बालकों जैसा ही बना हुआ है। ऐसे लोगों का भविष्य उत्साह वर्धक नहीं हो सकता।

मनीषी डब्लू. आर. इन्ज के ग्रन्थ मिस्ठिसिज्म इन रिलीजन के शब्दों में सोचें तो आत्मिक प्रगति के लिए तो एकाग्रता की और अधिक उपयोगिता है। इसीलिए मेडीटेशन के नाम पर उसका अभ्यास विविध प्रयोगों द्वारा कराया जाता है। इस अभ्यास के लिए कोलाहल रहित ऐसे स्थान की आवश्यकता समझी जाती है जहाँ विक्षेपकारी आवागमन या कोलाहल न होता हो। एकान्त का तात्पर्य जनशून्य स्थान नहीं वरन् विक्षेप रहित वातावरण है। सामूहिकता हर क्षेत्र में उपयोगी मानी जाती है। उपासना भी सामूहिक हो तो उसमें हानि नहीं लाभ ही है। मस्जिदों में नमाज-गिरजा घरों में प्रेयर-मन्दिरों में आरती सामूहिक रूप से करने का रिवाज है। इसमें न तो एकान्त की अखरती है और न एकाग्रता में कोई बाधा पड़ती है।

एक दिशा धारा का चिन्तन हो रहा हो तो अनेक व्यक्तियों का समुदाय भी एक साथ मिल बैठकर एकाग्रता का अभ्यास भली प्रकार कर सकता है। नितान्त एकान्त में बैठना वैज्ञानिक, तात्विक शोध अन्वेषण के लिए आवश्यक हो सकता है, उपासना के सामान्य संदर्भ में एकान्त ढूंढ़ते फिरने की कोई खास आवश्यकता नहीं है। सामूहिकता के वातावरण में ध्यान-धारणा और भी अच्छी तरह बन पड़ती है। सेना का सामूहिक कार्य साथ-साथ कदम मिलाकर चलना-सैनिकों में से किसी का ध्यान नहीं बंटाता वरन् साथ-साथ चलने की पग ध्वनि के प्रवाह में हरेक के पैर और भी अच्छी तरह अपने आप नियतक्रम से उठने चले जाते हैं। सहगमन से पगक्रम को ठीक रखने में बाधा नहीं पड़ती वरन् सहायता ही मिलती है। सहगान की तरह सहध्यान तथा सहभजन भी अधिक सफल और तरह सहध्यान प्रखर बनता है।

अंतर्योग पुस्तक के लेखक महायोगी अनिवार्ण के अनुभव के अनुसार उपासना के लिए जिस एकाग्रता का प्रतिपादन है उसका लक्ष्य है-भौतिक जगत की कल्पनाओं से मन को विरत करना और उसे अंतर्जगत की क्रिया-प्रक्रिया में नियोजित कर देना। उपासना के समय यदि मन साँसारिक प्रयोजनों में न भटके और आत्मिक क्षेत्र की परिधि में परिभ्रमण करता रहे तो समझाना चाहिए कि एकाग्रता का प्रयोजन पूरा हो रहा है। विज्ञान के शोध कार्यों में-साहित्य के सृजन प्रयोजनों में वैज्ञानिक या मनीषी का चिन्तन अपनी निर्धारित दिशा धारा में ही सीमित रहता है। इतने भर में एकाग्रता का प्रयोजन पूरा हो जाता है। यद्यपि इस प्रकार के बौद्धिक पुरुषार्थों में मन और बुद्धि को असाधारण रूप से गतिशील रहना पड़ता है और कल्पनाओं को अत्यधिक सक्रिय करना पड़ता है तो भी उसे चंचलता नहीं कहा जा सकता।

अपनी निर्धारित परिधि में रहकर कितना ही द्रुतगामी चिन्तन क्यों न किया जाय, कितनी ही कल्पनाएँ, कितनी ही स्मृतियाँ, कितनी ही विवेचनाएँ क्यों न उभर रही हों वे एकाग्रता की स्थिति में तनिक भी विक्षेप

उत्पन्न नहीं करेगी। गड़बड़ तो अप्रासंगिकता में उत्पन्न होती है। बेतुका-बेसिलसिले का अप्रासंगिक अनावश्यक चिन्तन ही विक्षेप करता है। एक बेसुरा वादन पूरे आरकेस्ट्रा के ध्वनि प्रवाह को गड़बड़ा देता है, ठीक इसी प्रकार चिन्तन में अप्रासंगिक विक्षेपों का ही निषेध है। निर्धारित परिधि में कितनी ही, कितने प्रकार की कल्पनाएँ-विवेचनाएँ करते रहने की पूरी छूट है।

महात्मा नरहरि बोधसार में कहते हैं- कई व्यक्ति एकाग्रता का अर्थ मन की स्थिरता समझते है और शिकायत करते है कि उपासना के समय उनका मन भजन में एकाग्र-स्थिर नहीं रहता। ऐसे लोग एकाग्रता और स्थिरता का अन्तर न समझ पाने के कारण ही इस प्रकार की शिकायत करते हैं। मन की स्थिरता सर्वथा भिन्न बात है। उसे एकाग्रता से मिलती-जुलती स्थिति तो कहा जा सकता है, पर दोनों का सीधा सम्बन्ध नहीं है। जिसका मन स्थिर हो उसे एकाग्रता का लाभ मिल सके या जिसे एकाग्रता की सिद्धि है-उसे स्थिरता की स्थिति प्राप्त हो ही जाय यह आवश्यक नहीं है।

स्थिरता को निर्विकल्प समाधि कहा गया है। और एकाग्रता को सविकल्प कहा गया है। सविकल्प का तात्पर्य है उसे उदधि में आवश्यक विचारों को मनःक्षेत्र में अपना काम करते रहना। निर्विकल्प का अर्थ है एक केन्द्र बिंदु पर सारा चिन्तन सिमटकर स्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो जाना।

यहाँ मनः संस्थान की संरचना को ध्यान में रखना होगा। एक वैज्ञानिक की दृष्टि रखकर साधना की गहराइयों में प्रवेश करने पर मन की बनावट एक प्रचण्ड विद्युत भंडार जैसी अनुभव की जा सकती है। उसके भीतरी और बाहरी क्षेत्र में विचार तरंगों के आँधी तूफान निरन्तर उठते रहते हैं। यह तरंग-तूफान जितने तीव्र-गति सम्पन्न होते हैं उसकी मानसिकता उतनी ही उर्वर और कुशाग्र बुद्धि मानी जाती है। जहाँ उतनी ही जड़ता, दीर्घसूत्रता, मूर्खता छाई रहेगी। हरे-थके मस्तिष्क को निद्रा घेर लेती है अर्थात् उसकी गतिशीलता शिथिल हो जाती है। यह कृत्रिम निद्रा नशीली शिथिल हो जाती है। यह कृत्रिम निद्रा नशीली दवाएँ पिलाकर, क्लोरोफार्म आदि सुँघाकर उत्पन्न की जा सकती है। मूर्छा की स्थिति में मस्तिष्क की बन्द होने की प्रदर्शन वाली जड़ समाधि में ऐसी ही स्थिरता होती है। मनस्वी लोग अपनी संकल्प शक्ति से हृदय की धड़कन और मानसिक सक्रियता को ठप्प कर देते हैं। स्थिरता जड़ समाधि के वर्ग में आती है। वह संकल्प शक्ति से उत्पन्न की जा सकती है। स्थिरता का लाभ विश्राम मिलना है। इससे आन्तरिक थकान दूर हो सकती है और जिस तरह निद्रा के उपरान्त जागने पर नई चेतना एवं स्फूर्ति का अनुभव होता है, वैसा ही मन की स्थिरता का लाभ मिल सकता है। सामान्य रूप से इस स्थिति को शिथिलीकरण मुद्रा का एक प्रकार कहा जा सकता है। उसमें भी शरीर और मन की स्थिरता शिथिलता का ही अभ्यास किया जाता है। मैस्मरेजम-हिप्नोटिज्म प्रयोगों में भी इसी प्रकार का अभ्यास काले गोले के माध्यम से करना पड़ता है। नेत्रों में बेधक दृष्टि उत्पन्न करने के लिए एकाग्र मनःशक्ति को एक ही स्थान पर केन्द्रित करते हैं। ऐसे ही सामान्य चमत्कार उस स्थिरता से उत्पन्न किए जा सकते हैं जिसके लिए आम तौर से अध्यात्म साधना के विद्यार्थी ललचाते रहते हैं और जिसके न मिलने पर अपने अभ्यास की असफलता अनुभव करके खिन्न होते हैं।

मन की स्थिरता अति कठिन है। तीन मिनट की स्थिरता मिल सके तो साधक शून्यावस्था में पहुँच जाता है। जिन्हें निर्विकल्प समाधि अभीष्ट हो उन्हें ही स्थिरता की अपेक्षा और चेष्टा करनी चाहिए। सविकल्प साधना में स्थिरता की नहीं एक दिशाधारा में मन को नियोजित किए रहने की आवश्यकता है। पर ब्रह्म में आत्म-समर्पण और उस पराशक्ति का आत्म सत्ता में अवतरण की ध्यान का मुख्य प्रयोजन है। उसके लिए कितने ही प्रकार की साकार-निराकार ध्यान-धारणाएँ विद्यमान है। उनमें से जो उपयोगी एवं रुचिकर लगे उसे अपनाया जा सकता है।

स्थिरता-स्तर की एकाग्रता हिप्नोटिज्म प्रयोगों में तो काम आती है। सरकस के अनेक खेलों में मानसिक सन्तुलन ही चमत्कार दिखा रहा होता है। स्मरण शक्ति के धनी भी प्रायः एकाग्रता के ही अभ्यासी होते हैं। शोधकर्ताओं की सफलता का आधार यही है। इतने पर भी इसे आत्मिक प्रगति की अनिवार्य शर्त नहीं माना जा सकता है। अधिक से अधिक इसे सहायता कहा जा सकता है। यदि ऐसा न हो तो ये सब एकाग्रता सम्पन्न लोग आत्मबल सम्वन्न हो गये होते। इनकी गणना सिद्ध योगियों में मीरा, चैतन्य, रामकृष्ण-परमहंस आदि इसी वर्ग के थे, जिन पर प्रायः भावावेश छाया रहता था।

आत्मसाधना में निमग्न साधक एवं मनीषी गोपीनाथ-कविराज अपने सम्पादित ग्रन्थ श्री श्री सद्गुरु प्रसंग में स्पष्ट करते है कि मन की स्थिरता एवं एकाग्रता का सार तत्व तन्मयता में आ जाता है। तन्मयता का अथ है इष्ट के साथ भाव संवेदनाओं को केंद्रीभूत कर देना। यह स्थिति तभी आ सकती है जब इष्ट के प्रति असीम श्रद्धा हो। श्रद्धा तब उत्पन्न होती है जब किसी की गरिमा पर परिपूर्ण विश्वास हो। साधक को अपनी मनोभूमि ऐसी बनानी चाहिए जिसमें इष्ट और मार्गदर्शक सद्गुरु की चरम उत्कृष्टता पर, असीम शक्ति सामर्थ्य पर संपर्क में आने वाले के उत्कर्ष होने पर गहरा विश्वास जमता चला जाय। यह कार्य शास्त्र वचनों का अनुभवियों द्वारा बताये गए सत्परिणामों का गहरा विश्वास जमता चला जाय। यह कार्य शास्त्र वचनों का अनुभवियों द्वारा बताये गए सत्परिणामों का, उपासना विज्ञान की प्रामाणिकता का, अधिकाधिक अध्ययन अवगाहन करने पर सम्पन्न होता है। आशंकाग्रस्त अविश्वासी मन, उपेक्षा भाव से आधे-अधूरे मन से उपासना में लगे तो स्वभावतः वहाँ उसकी रुचि नहीं होगी, मन जहाँ-तहाँ उड़ता फिरेगा। मन लगने के लिए आवश्यक है कि उस कार्य में समुचित आकर्षण उत्पन्न किया जाय। व्यवसाय उपार्जन में, इन्द्रिय भागों में, विनोद मनोरंजनों में, सुखद कल्पनाओं में, प्रियजनों के संपर्क सान्निध्य में मन सहज ही लग जाता है।

इसका कारण यह है कि इन प्रसंगों के द्वारा मिलने वाले सुख, लाभ एवं अनुभव के सम्बन्ध में पहले से ही विश्वास जमा होता है। प्रश्न यह नहीं है कि वे आकर्षण दूरदर्शिता की दृष्टि से लाभदायक हैं या नहीं। तथ्य इतना ही है कि उन विषयों के सम्बन्ध में अनुभव-अभ्यास के आधार पर मन में आकर्षण उत्पन्न हो गया है। उस आकर्षण के फल स्वरूप ही मन उसमें रमता है और भाग-भाग कर जहाँ-तहाँ घूम-फिर कर वहीं जा पहुँचता है। हटाने से हटता नहीं, भगाने से भागता नहीं।

मानसिक संरचना के इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें उपासना के समय मन को इष्ट पर केन्द्रित रखने की आवश्यकता पूरी करने के पहले से ही मन को प्रशिक्षित करना चाहिए। गायत्री महाशक्ति के सम्बन्ध में सूर्य तत्व के संदर्भ में जितना अधिक ज्ञान विज्ञान संग्रह किया जा सके मनोयोगपूर्वक करना चाहिए। विज्ञ व्यक्तियों के साथ उसकी चर्चा करनी चाहिए। जिनने लाभ उठाए हों उनके अनुभव सुनना चाहिए। यह कार्य तद् विषयक स्वाध्याय एवं मनन चिन्तन के एकाकी प्रयत्न से भी सम्भव हो सकता है।

चेतना शक्ति के उत्थान परिष्कार में तन्मयता सबसे बड़ा आधार है। शरीर से किए जाने वाले कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनके कारण अन्तःकरण को साथ-साथ चलने का आधार मिल जाय। चिन्तन का गहरा पुट लगने पर पर ही आत्मिक भूमिका में हलचलें होती हैं और प्रगति का सरंजाम जुटता है। यदि मन इष्ट पर जमे नहीं-मंत्र देने वाले गुरु पर श्रद्धा में कमी हो-ऐसी दशा में मंत्रोच्चारण का श्रम-जीभ की कसरत भर बनकर रह जाएगा।

तन्मयता की स्थिति उत्पन्न करने के लिए धैर्यपूर्वक देर तक प्रयत्न करना होता है। यह एक दिन में सम्पन्न होने वाले काम नहीं हैं। मन का पुराना अनुभव अभ्यास-भौतिक आकर्षणों के साथ खेल करते रहने का है। उसे इससे विरत करने के लिए यदि उससे अधिक नहीं तो कम से कम उतना बड़ा आकर्षण तो प्रस्तुत किया जाना ही चाहिए। अरुचिकर प्रयोजन पर जमने की उसको आदत है ही नहीं। आकर्षण के अभाव में उसे बुरी तरह ऊब आती है और वहाँ से उचटने भागने की ऐसी धमा-चौकड़ी मचाता है कि देर तक उस कार्य को चलाते रहना कठिन हो जाता है। तरह-तरह की बहानेबाजी बनाकर वहाँ से उठने के लिए अचेतन मन कितनी-कितनी तरकीबें खड़ी करता है। तरह-तरह की बहानेबाज़ी बनाकर वहाँ से उठने के लिए अचेतन मन कितनी-कितनी तरकीबें खड़ी करता है, यह सब देखते ही बनता है। खुजली उठना, जम्हाई आना, कोई साधारण-सा खटका होते ही उधर देखने लगना पालथी बदलना, कपड़े संभालना, जैसी चित्र-विचित्र क्रियाओं का होना यह प्रकट करता है कि मन यहाँ नहीं रहा। उसे उस काम को छोड़कर जल्दी-जल्दी भाग निकलने के लिए हड़बड़ी हो रही है।

इस स्थिति का सामना करने के लिए उपाय यही है कि श्रद्धा उत्पन्न करने वाले स्वाध्याय और सत्संग का मनन चिन्तन का ऐसा क्रम बनाया जाय, जिससे कि उस दिशा में चलने के सत्परिणामों के सम्बन्ध में तर्क, तथ्य, प्रमाण एवं उदाहरणों के आधार पर अपनी इष्ट निष्ठा और गुरुभक्ति को प्रगाढ़ किया जाय। यह प्रगाढ़ता ही साधक में-तन्मयता को जन्म देती है। शनैः शनैः इ तन्मयता का ही रूपांतरण ध्यान में होता है। फिर ध्यान की प्रगाढ़ गम्भीरता को सविकल्प समाधि-आत्म-बोध के क्षणों में बदलते भला कितनी देर है?


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