महाकवि माघ का प्राणोत्सर्ग

February 1993

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कल तक उनके पास छत्तीस हजार मणियों वाला रत्नहार था, सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरातों की अकूत सम्पत्ति थी। लेकिन आज वह कंगाल थे-धनहीन निःस्व। पिता ने अपार सम्पत्ति उत्तराधिकार में दी थी। उन्हें मालूम था कि पुत्र की करुणा समुद्र की तरह अगाध है। वह दुखियों का दुःख नहीं देख सकता, पीड़ितों की पीड़ा नहीं सह सकता। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति, सारी योग्यता को राष्ट्र की सम्पत्ति मानता है। इसलिए जो भी अभाव-ग्रस्त उसके द्वार आता है, उसे खाली हाथ नहीं जाने देता। कोई दुःखी रहा हो, उसका वृत्तांत कानों में पड़ा हो और तत्काल सहायता न पहुँची हो, ऐसा एक भी क्षण उसके जीवन में नहीं आया। यह, सोच कर ही उनके पिता ने एक ऐसा होर बनवाया था, जो कम से कम सुरक्षित बना रहता और उसे उदर पोषण की समस्या से मुक्त बनाये रखता। किन्तु पिता की आशा निष्फल गई।

श्रीमाल का अकाल इस सीमा तक बढ़ा कि लोगों के भूखों मरने की नौबत आ पहुँची। असह्य होती जा रही भूख की तड़प-धरती की संतानों को मौत के अँधेरे में धकेलती जा रही थी। शायद इसी दुःख को न सहन कर पाने के कारण धरती की छाती जगह-जगह से दरक गई थी। जो साधन सम्पन्न थे-अभी भी स्व में सिकुड़े-सिमटे थे। पर उनके हृदय में उठ रहे भावोद्वेलन ने उन्हें चैन से नहीं बैठने दिया। उन्होंने कहा-सम्पूर्ण देश जब क्षुधा, अत्याचार या महामारी की ज्वाला में जल रहा हो, उस देश के विचारशील और साधन-सम्पन्न व्यक्ति को चुप नहीं रहा जा सकता। सो उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ-साथ, पिता की दी हुई वह माला भी भूख से पीड़ितों के सहायतार्थ दान कर दी।

जिस प्रकार गुण और सज्जनता से विमुख हुए के पास से यश और समृद्धि भाग जाते हैं। वैभव क्षीण हो जाने पर उसी प्रकार उनके पास आने वाले याचकों और अतिथियों का आवागमन भी बन्द हो गया। अब उनके पास उनकी सहधर्मिणी विद्यावती के अतिरिक्त और यदि कोई था तो अन्तःकरण में कर्तव्य पालन का सन्तोष। मुख पर आत्म भाव का प्रकाश और वह महाकाव्य जिसमें उन्होंने मानव जीवन की मार्मिक प्रेरणाओं को छन्द बद्ध कर रखा था।

अभाव-ग्रस्त स्थिति में आत्म-विकास और लोक’-कल्याण के मार्ग में बाधा पड़ती देखकर वह चिन्तित हो उठे। उन्होंने अपनी धर्म पत्नी से पूछा-”भद्रे! ऐसी स्थिति में क्या यह उचित न होगा कि हम लोग किसी ऐसे स्थान पर चलें, जहाँ आजीविका का प्रबन्ध हो सके और अपनी रुकी हुई साधना का क्रम फिर चल उठे। श्रीमाल के पीड़ितों का दर्द मुझे अब भी असह्य हो रहा है, जब तक मेरे कानों में जनता के दुःख के समाचार पहुँचते रहेंगे, तब तक मुझे शांति न मिलेगी।”

आप ठीक कहते हैं स्वामी! उनकी विदुषी पत्नी विद्यावती ने उसी गम्भीरता से उत्तर दिया-”व्यक्ति को भगवान ने और कुछ नहीं तो सम्पूर्ण क्षमताओं से परिपूर्ण मानव शरीर तो दिया ही है। जब तक शरीर रहे, तब तक हम साधनों का अभाव क्यों अनुभव करें। क्यों न कहीं अन्यत्र चलकर वर्तमान परिस्थितियों से छुटकारे का मार्ग ढूंढ़ निकालें।”

वह और उनकी धर्म पत्नी दोनों चल पड़े। उन दिनों उज्जयिनी के महाराज भोज भारतीय कला और संस्कृति के लिए प्राण-पण से उत्थान के लिए जुटे थे। सरस्वती पुत्र भोज के दरबार में पाँडित्य को बड़ा सम्मान दिया जाता था। पैदल यात्रा करते हुए वह और उनकी धर्मपत्नी विद्यावती मालव पहुँचे। उन्होंने राजा भोज के बारे में बहुत कुछ सुना था, सो आजीविका की आशा से उन्होंने अपनी पत्नी विद्यावती को भोज के दरबार में भेजा। महाकाव्य साथ लेकर विद्यावती सम्राट भोज के समक्ष उपस्थित हुई, और उस पुस्तक की गिरवी रखने का निवेदन किया।

भोज ने महाकाव्य उठाया। यों ही देखने के लिए एक पृष्ठ खोला। एक बहुत भावपूर्ण श्लोक सामने दिखाई पड़ा। श्लोक में प्रकृति और परमेश्वर की विलक्षणता बड़े मार्मिक शब्दों में प्रतिपादित की गई थी। शब्द, छंद और उसमें भरे भाव-सभी कुछ अद्भुत अद्वितीय। सम्राट ने हतप्रभ हो पूछा- “कौन है इसका रचनाकार?” “मेरे पति महाकवि माघ।” विद्यावती का उत्तर था। ओह। कुछ सोचते हुए अति प्रसन्न और प्रभावित हुए सम्राट ने कोषाध्यक्ष को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ पारितोषिक देने का आदेश देकर विद्यावती की ओर मुड़ते हुए बोले-”महाकवि से कहना वह यहाँ आयें और रहें, राजदरबार उनका हार्दिक अभिनन्दन कर अपने को कृतार्थ अनुभव करेगा।”

विद्यावती जब अतिथिगृह छोड़कर निकलीं तो उन्होंने देखा कि वहाँ भी अकाल की छाया घिरी हुई है। हजारों याचक उनके पीछे लग गए। पति के आदर्शों का अन्तःकरण से पालन करने वाली माघ की धर्मपत्नी का हृदय उस समय इस तरह विह्वल हो उठा, जिस तरह किसी माँ का हृदय अपने बहुत दिन के बिछुड़े हुए पुत्र को देखकर हो उठता है। उनके मस्तिष्क में आया- “जब सारी प्रजा दुःख और पीड़ा से ग्रस्त हो तो साधनों का, चाहे कितने ही परिश्रम से कमाये गए हों, संग्रह नहीं होना चाहिए।” उन्होंने वह धन भी बाँटना प्रारम्भ कर दिया।

मार्ग में जो भी भूखा मिला, उसे अन्न लेकर दिया। जो भी पीड़ित और कराहता हुआ मिला, उसे औषधि दिलवाई वस्त्रहीनों को वस्त्र और याचकों को धन बाँटती हुई, विद्यावती जब माघ के पास पहुँची, तब तक प्राप्त की हुई सम्पूर्ण मुद्राएँ भी समाप्त हो गई। विद्यावती गई थी तब तो उनके पास महाकाव्य भी था पर लौटी तो हाथ बिल्कुल खाली थे। महाकवि ने धर्मपत्नी से सारा वृत्तान्त सुना तो उनका हृदय विद्यावती के इस आदर्श पर गदगद हो उठा। उनकी आँखों से प्रेमाश्रु फूट निकले।

अभी वे इस असमंजस में थे कि विद्यावती का स्वागत और सम्मान किस प्रकार करें? तभी याचकों की एक नई टोली आ पहुँची। उन्हें कई दिनों से खाने को भी न मिला था। माघ ने अपने चारों ओर नजर दौड़ाई। कुछ भी न दिखाई दिया। निराशा हाथ लगी। पास में कुछ भी तो नहीं था, जिसे देकर वे याचकों को संतुष्ट करते। गीली आँखों से दुःख के आँसू झर-झर झरने लगे।

महाकवि माघ की अश्रुसिक्त मुद्रा देखकर अकाल पीड़ित समझ गए, अब उनके पास कुछ नहीं रहा, सो वे चुपचाप लौट पड़े। लौट रहे दुखियों-पीड़ितों के चेहरे पर गहरी हो गई निराशा को देखकर माघ व्याकुल हो उठे। उनके हृदय की विह्वलता वाणी से फूट पड़ी-”मेरे प्राणों! तुम और कुछ नहीं दे सकते पर इनकी सहायतार्थ इनके साथ तो जा सकते हो। धन से न सही सम्भव है प्राणों से ही उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिल जाय। ऐसा सुन्दर अवसर न जाने फिर कब मिलेगा?”

इन अन्तिम शब्दों के साथ महाकवि की जीर्ण काया एक ओर लुढ़क गई। चेतना ने अपने पाँव समेट लिए और अनन्त अन्तरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो गई।


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