संत, राष्ट्र की आत्मा

February 1993

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सामान्य-जन हुआ तो क्या? अपमान किसी का भी नहीं होना चाहिए। मनुष्य का अधिकार किसी को सुधारने और सही पथ-प्रदर्शन करने में है, पर अपशब्द और अपमान तो एक बच्चे का भी असह्य है। सेनापति! जाओ युद्ध की तैयारी करो। सम्राट विश्वजित की आज्ञा टालना भला किसके लिए सम्भव था। महामन्त्री आचार्य दशमेध ने भी समझाया- महाराज! जिस प्रकार माताएँ बच्चे की छोटी-छोटी भूलें क्षमा कर देती हैं, उसी प्रकार कैवर्त सम्राट तोतराज की भूल भी साधारण है। अपने यहाँ के नागरिक अनंगपाल के पास यदि वहाँ की स्वर्णमुद्राएँ न होती तो उसे अपमानित न किया गया होता।

सम्राट ने जैसा महामंत्री के कथन को अनसुना कर दिया। अनंगपाल का अपमान उन्हें अपना अपमान लग रहा था। उसी दिन सेना सजा दी गई और कैवर्त राज्य पर आक्रमण हो गया। कई दिन के निरन्तर युद्ध के बाद भी कैवर्त को जीता न जा सका। युद्ध की अवधि बढ़ती गई। कैवर्त राज्य के प्रकांड पण्डित और सन्त देवलाश्व विश्वजित के सैनिक खेमों के पास से गुजरे। सैनिकों ने समझा यह कोई गुप्तचर हैं, सो उन्हें बन्दी बनाकर महाराज के सामने लाया गया। महाराज विश्वजित ने उन्हें प्राण-दण्ड की सजा सुना दी।

तेज आँधी की तरह यह खबर सारे कैवर्त देश में फैल गई कि सन्त देवलाश्व बन्दी बना लिये गए हैं और उन्हें शीघ्र मृत्युदण्ड दिया जाने वाला है। विश्वजित के आक्रमण से भी प्रजा को जो कष्ट न हुआ था, वह देवलाश्व के बन्दी बना लिए जाने से हो गया। कैवर्त-वासियों ने अपने प्रिय सन्त के लिए अन्न-जल का भी परित्याग कर दिया। सारे राज्य में शोक छा गया।

रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जबकि विश्वजित की सेनाएँ युद्ध की तैयारी कर रहीं थीं-धुँधलके में से एक आकृति स्पष्ट हुई। उसने सैनिकों से निवेदन किया कि मैं कैवर्त का राजदूत हूँ मुझे विश्वजित के पास महाराज-तोमराज का संदेश पहुँचाना है। इस पर आगन्तुक को नरेश विश्वजित के पास पहुँचा दिया गया।

कहो! क्या संदेश लाए हो कैवर्त नरेश का? क्या उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली? स्वाभिमान से अपनी मूछों पर ताव देते हुए विश्वजित ने प्रश्न किया। नहीं महाराज, कैवर्त नरेश इतने भीरु नहीं जो युद्ध सम्पन्न हुए बिना पराजय स्वीकार कर लें, पर यदि आप बन्दी सन्त देवलाश्व को मुक्त कर दें तो वे उनके बदले आपको दो करोड़ स्वर्णमुद्राएँ भेंट कर सकते हैं।

बस! एक साधारण गुप्तचर का मूल्य कुल दो करोड़ रुपए। बोलो दूत उन्हें इस बन्दी से इतना मोह क्यों है? विश्वजित ने उसी वीरता के अभिमान से सवाल किया।

आगन्तुक ने उत्तर दिया-महाराज! हव गुप्तचर नहीं यथार्थ में एक बड़े सन्त हैं। सन्त राष्ट्र की आत्मा है। वह न रहे तो कैवर्त अनाथ हो जाएगा। पथ भ्रष्ट होने से बचाने के लिए दो करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ तो क्या सम्पूर्ण राज्य आपके भेंट कर सकते हैं।

इसका प्रमाण। विश्वजित ने फिर प्रश्न किया। शान और स्वाभिमान सब कुछ वही पहले जैसा था और उत्तर में आगन्तुक ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया। अनामिका पर शोभित मुद्रिका में साफ लिखा था-सम्राट तोमराज।

विश्वजित एक पल को हतप्रभ रह गए। उन्होंने अपना राज्यासन छोड़ दिया। तोमरराज को हृदय से लगाते हुए बोले-आज हम आपसे पराजित हुए। सचमुच जिस राष्ट्र में सन्त को सम्मान नहीं मिलता वह पथभ्रष्ट और खोखला हो जाता है।

सन्त देवलाश्व मुक्त कर दिए गए। विश्वजित की सेनाएँ भी वापस लोट पड़ी।


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