अपनों से अपनी बात 1 - कैसे होंगे विश्व मानवता के लिए आने वाले कुछ वर्ष?

February 1993

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“दृश्य और अदृश्य दुनिया सन् 2000 की” शीर्षक से फरवरी 1979 माह की “अखण्ड ज्योति” पत्रिका में परम पूज्य गुरुदेव ने एक लेख लिखा था जिसमें आज हो रहे है, पूर्व में ही चुके तथा आगे संभावित घटनाओं का हवाला विस्तार से दिया गया है। प्रसिद्ध फ्रेंच भविष्य विज्ञानी जूलवर्न का हवाला देते हुए परम पूज्य गुरुदेव उसमें लिखते है कि उनके अनुसार “सन् 1990 तक सारी पृथ्वी विशेषकर शहरी क्षेत्रों में फैक्ट्रियों तथा कारखानों में धुआँ इतना अधिक बढ़ जाएगा कि 80 प्रतिशत वायु दूषित होगी। इस वायु प्रदूषण के कारण लोग पूरी तरह नष्ट तो नहीं होंगे पर उनकी स्थिति अर्थ विक्षिप्तों जैसी होगी। बीमारियां बढ़ेगी-साहस घटेगा अपराध विश्व भर में बढ़ेंगे। याँत्रिक सभ्यता के प्रति तीव्र रोष पैदा होगा तथा योरोपीय जातियों का झुकाव भारतवर्ष जैसे धार्मिक देश की ओर तेजी से बढ़ेगा। न केवल भारतीयों का अनुगमन वेश-भूषा, खान-पान, गृहस्थ जीवन इत्यादि के रूप में करेंगे वरन् भारतीय धर्म-संस्कृति के प्रति श्वेत-जातियों का आकर्षण इतना अधिक बढ़ जाएगा कि सन् 2000 तक दूसरों देशों में बीसियों हिंदू देवी-देवताओं के मंदिरों की स्थापना हो चुकी होगी और उनमें लोग उपासना, जप-यज्ञ, भजन-कीर्तन, भारतीय पद्धति के संगीत का आनंद लेने आने लगेंगे। यूरोपवासियों व सुदूर पश्चिम में अमेरिका-कनाडा में घरों में देवी-देवताओं के चित्र तक लगें, मैंने पूर्वाभास के समय देखे है।” यह सारा जूलवर्न का तब का कथन है।

आइए थोड़ा ऊपर दी गयी भविष्यवाणी पर विचार करे। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि वायु प्रदूषण चलती मोटर गाड़ियों के धुएं तथा फैक्ट्रियों की चिमनियों-बढ़ते सीमेण्ट-कंक्रीटों के जंगलों के कारण इतना बढ़ गया है कि व्यक्ति को सामान्य ऑक्सीजन मिल पाना दूभर हो गया। वह ताजी हवा अब दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती। दिल्ली विश्व का नंबर दो का सबसे प्रदूषित क्षेत्र है। वहाँ हर पाँच व्यक्ति के पीछे एक कार या स्कूटर जैसे प्रदूषण फैलाने वाले वाहन है। प्रायः यही स्थिति सारे विश्व के महानगरों की है, जिनमें टोक्यो, हाँगकाँग, शेघाई, लंदन लाँस एंजेल्स, शिकागो, टोरोण्टो, पेरिस तथा न्यूयार्क भी आते है। ओजोन की परत बढ़ते प्रदूषण के प्रभाव के कारण पतली होते-होते झीनी हो गयी है, जगह-जगह छेद हो गये है। परिणाम स्वस्प स्कीन कैंसर से लेकर अन्याय जीवन-शक्ति घटाने वाली व्याधियाँ व तनावजन्य बीमारियाँ अपनी चरम सीमा पर है। इनसे मनोबल व जीवट में कमी आयी है।

प्रतिदिन आत्म हत्या करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रत्यक्षतः स्वस्थ किंतु अंदर से खोखले रोगी व्यक्तियों की संख्या नित्य वृद्धि पर है। अर्ध-विक्षिप्त व अपनी सनक में आतंक व नृशंसता का है। साँप्रदायिकता-पंथ व नस्लगत विद्वेषों के कारण सूक्ष्म जगत इतना प्रदूषित है कि सुदूर अमेरिका में जाति-नस्ल के आधार पर भयावह दंगों से लेकर, यूरोप में नाजीवाद के पुनः उभर आने तथा सर्विया-क्रोएशिया उन्मादी संघर्ष की नीति ने व्यापक स्तर पर जन हानि व न गिनी जा सकने योग्य धन-संपत्ति, सुख-शाँति की क्षति की है। सोमजिया व इथियोपिया में जहाँ एक ओर भुखमरी है, वहास् राज्य करने वाले मद में चूर नृशंस व्यक्तियों का समुदाय भी है जो कबीलों के युद्ध में तो निरत है ही, अन्य राष्ट्रों की सहायता सामग्री भुखमरी से मर रहे लोगों तक नहीं पहुंचने दे रहा है। प्रतिदिन 30000 व्यक्ति मौत के मुँह में जा रहे है। एशिया में कंबोडिया में अभी भी शाँति नहीं है व यू.एन. पीस-फोर्स को पुनः आना पड़ा है ताकि नर संहार रुक सके। भारत-पाकिस्तान-बंगला देश आदि देशों में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, वह सबके सामने है। किस जाति व धर्म के व्यक्ति ने किसे मारा, यह नहीं अपितु विचारणीय व चिंताजनक यह है कि क्रूरता की बलिवेदी पर मानवता का हनन हुआ है। जिस पैशाचिक ढंग से पूजनीया मानी जाने वाली मातृसत्ता के साथ सामूहिक बलात्कार कर उनके गले में जलते टायर डालकर तड़पा-तड़पा कर उन्हें मारा गया है, इसने एक प्रश्नचिह्न मानव की संवेदना के अस्तित्व पर लगा दिया है।

यह सारा विवेचन श्री जूलवर्न की भविष्यवाणी के परिप्रेक्ष्य में किया जा रहा है जिसमें उनने प्रत्यक्षतः तो कुछ और कारण बताये है किंतु हो वही रहा है जो उनने व उनके जैसे अनेकों ने तब बताया था। अब दूसरा पहलू भी देखें। वे लिखते है कि “योरोपीय देशों का झुकाव भारतीय धर्म व अध्यात्म की ओर बढ़ेगा। अनेकानेक हिंदू मन्दिरों की स्थापना विदेश में सन् 2000 तक हो चुकी होगी।” वस्तुतः यही हो रहा है। परम पूज्य गुरुदेव के संदेशवाहकों की टोली जब इंग्लैंड, डेनमार्क, नार्वे, कनाडा तथा अमेरिका भारतीय संस्कृति का संदेश सुनाने गयी तो अगणित श्वेत पाश्चात्य नर-नारी इस तत्व-दर्शन को हृदयंगम करने के लिए उत्सुक दिखाई दिए। धर्म का विज्ञान सम्मत प्रस्तुतीकरण उनके लिए सबसे रुचिकर विषय था। गायत्री एवं यज्ञ के तत्व ज्ञान को जानने व उससे मनःशाँति पा जीवन को आध्यात्मिक प्रगति की ओर ले जाने की कोशिश जो उनने मनों में देखी गयी,कदाचित हमारे यहाँ के व्यक्तियों की तुलना में अधिक नहीं तो कम भी नहीं है। यही कारण है कि यहाँ से जो भी गया है, उसके अधकचरे ज्ञान को भी योगा-मेडीटेशन के रूप में शाँति का संदेश मानकर वे उसे जीवन में उतार रहे है। प्रायः चौदह सौ मन्दिर तो अभी भी अमेरिका में हैं वे दो सौ मन्दिर कनाडा में है। प्रतिवर्ष क्योंकि उनमें वृद्धि हो रही है तथा इसके लिए पुराने चर्चों को उपासना गृहों, ध्यानकक्षों या मन्दिरों में बदला जा रहा है। अपने चहाँ गिरती उपस्थिति (7 प्रतिशत) को देख कर चर्चों के कर्ताधर्ता भी नये विषयों का चयन कर उन लेक्चर आयोजित करने अथवा उनका अस्पताल-विद्यालय आदि रूपों में उपयोग किये जाने की वकालत करने लगे है। यह वही परिवर्तन की लहर है, जो मनीषी-दृष्टा-भविष्यवक्ताओं के अनुसार सन् 2000 तक एक नये ‘एरा’ के सूत्रपात के रूप में बदल जाएगी।

जो पूर्वाभास श्री जूलवर्न को भारत के संबंध में हुआ वही “श्री एलन राइट” को शाँतिकुँज के विदेश प्रवास हेतु गए दल के कनाडा पहुँचने के पूर्व हुआ। उनने “द सेंज एण्ड सीजर” शीर्षक से अप्रैल 1990 में कुछ भविष्यवाणियाँ “टोरोण्टो मेल” में प्रकाशित की थीं। अब तक के उनके सभी भविष्य कथन सही एवं समय की कसौटी पर खरे उतरे है। उनने कहा कि “अगले दिनों भारत की भूमिका क्रिश्चियन, मुस्लिम, हिंदू एवं बौद्धों सभी के लिए एक आध्यात्मिक तीर्थ के रूप में होगी। एक नये पोप का दर्शन मैं कर रहा हूँ जो न तो काला है, न गोरा किंतु वह दिव्य हिमालय की चेतना से सारे विश्व को अनुप्राणित करता दिखाई दे रहा है व उत्तर भारत में एक पावन सरोवर के पास खड़ा सबको दे रहा है। एक महिला मुझे दिव्य-प्रेम व आत्मीयता द्वारा सबका मार्ग दर्शन करती दिखाई दे रही है। वह सभी चर्चों व उपासना केन्द्रों में एकता का संदेश दे रही है। उसके हाथ में एक नयी आध्यात्मिक क्राँति आगामी सात वर्षों में होती मैं देख रहा हूँ।” दल के नेता प्रणवपाण्डया से हुई उनकी भेंट टोरोंटो के पत्रकारों व परिजनों के लिए अविस्मरणीय बन गयी। दोनों गले मिले व मिलते ही श्री राइट ने कहा कि “आप उसी क्राइस्ट के संदेशवाहक है जिसे मैंने स्वप्न में पूर्वाभास के रूप में देखा था।”

जो कुछ भी ऊपर लिखा गया, उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। देव संस्कृति की राष्ट्र व विश्व के कोने-कोने तक दिग्विजय के माध्यम से पहुँचाने का संकल्प लेकर चली वह चतुरंगिणी जो शाँतिकुँज की चेतना से अनुप्रमाणित हो अश्वमेधिक पुरुषार्थों में गतिशील होती दिखाई देती है, अपनी गुरुसत्ता के एक-एक शब्द पर विश्वास करती हुई धैर्य पूर्वक कदम आगे बढ़ती चली जा रही है। यह यात्रा धीमी जरूर दीख पड़ सकती है किंतु इसी में विश्व मानवता की शाँति, सृजन, एकता व अखण्डता निहित है, किसी को भी इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। सामयिक कुछ संकटों से जो समय-समय पर अप्रत्याशित रूप से आकर सभी को उद्वेलित कर देते हैं, यह भी नहीं मानना चाहिए कि जो कुछ हो रहा है वह तो हमें महामरण की ओर ही ले जा रहा है। ऐसी परीक्षाएँ समय-समय पर महाकाल लेता ही रहता है।

रात्रि के अन्त में हमेशा सघन तमिस्रा छा जाती है। अंधकार गहन होने पर भी सभी को विश्वास रहता है कि पशु-पक्षियों का कलरव सुनाई देगा, शीघ्र ही पूरब में ऊषा की लाली छा जाएगी व दिनमान उगकर ही रहेगा। मरणासन्न व्यक्ति की साँसें दुगुने वेग से चलती है तो लगता है कि इसमें नये प्राण लौट आये हो किंतु “इंन्टेन्सीव केयर यूनिट” के इंचार्ज डॉक्टर-नर्सें जानते है कि यह प्राण जाने के पूर्व का काया का-जीवसत्ता का अन्तिम पुरुषार्थ है। बुझते दीपक की लौ एक बार जोर से लपलपाती है फिर तुरंत बुझ जाती है। लपलपाती लौ के बढ़ते प्रकाश को देखकर यह नहीं कहा जाता कि अब प्रकाश बना ही रहेगा। यह तो अंधकार आने के पूर्व की-दीपक बुझने के पहले की एक अवस्था मात्र है। मौत आने पर चींटी के पर आने लगते है, यह कहावत नितांत सत्य है। उपरोक्त उदाहरण उस संदर्भ में दिये गण् है कि अनीति, असुरता, आतंक, उन्माद, पारस्परिक द्वेष, वर्ग संघर्ष, अपराधी, मानसिकता के पलायन में अब कोई अधिक समय नहीं है। इनका बढ़ता उभार यही बताता है कि एक बार फिर पूरी ताकत से अच्छाइयों से-सत्प्रवृत्तियों से-आदर्शों की ताकत से व सूक्ष्म जगत की चेतना से संघर्ष लेने वे बढ़-चढ़कर अपना पराक्रम दिखा रही है पर वस्तुतः वह उनमें है नहीं। वह तो महाभारत के श्री कृष्ण द्वारा दुर्योधन व उसके साथियों के तेज हरने के रूप में कभी का महाकाल द्वारा छीना जा चुका है। अब तो सृजन की ही बारी है। वही होगा क्योंकि वही भवितव्यता है।

ज्योतिर्विज्ञानियों का ऐसा मत है कि विगत दिसम्बर माह में आए खग्रास चंद्रग्रहण के साथ ही धरती पर आने वाले अप्रत्याशित संकटों की बाढ़ ने और तीव्र वेग ले लिया है। 1992 के दिसम्बर माह से आरंभ हुई संकटों की श्रृंखला पूरे विश्व के अनेक अंचलों में प्राकृतिक दुर्घटनाओं, भूकम्प, बाढ़, सूखा, ज्वालामुखी, समुद्री तूफानों के रूप में आगामी दो वर्षों में और बढ़ेगी। पश्चिमी मध्य एशिया के कुछ राष्ट्र-यूरोप के कुछ राष्ट्रों, टूटे सोवियत संघ के कुछ राज्य तथा भारत के पड़ोसी देशों में गृहयुद्ध के बवण्डर छाए रहेंगे व इससे सारा विश्व प्रभावित होगा। आर्थिक मन्दी का दौर अभी 1995 तक चलेगा। प्रायः बीस से अधिक देशों में आतंक, अन्तःविग्रह व आर्थिक नीति के चलते सरकारें बदलेंगी व अराजकता की सो स्थिति बनी रहेगी, यान दुर्घटनाएँ, हिंसक संघर्ष कई अंचलों में और अधिक संख्या में घटित होंगे। इन सबके साथ-साथ जो ज्योतिर्विज्ञानियों ने गणित गणना करके बताया है, वह हम भारतवासियों के लिए मनोबल बढ़ाने वाला है। विश्व में आध्यात्मिक चेतना के प्रसार-विस्तार का कार्य भारत से ही आरंभ होगा व अगले दो वर्षों में यह क्रमशः बढ़ता चला जाएगा। धर्म -अध्यात्म का विज्ञान सम्मत रूप विश्व मानवता को एकता की दशा में लें जाने की प्रेरणा देगा। प्राच्यविद्या, योग, ज्योतिर्विज्ञान व अध्यात्म में शाँति का संदेश छिपा होने के कारण सभी का रुझान इनमें बढ़ेगा। संप्रदायगत विद्वेष कम होगा तथा देव संस्कृति के अनुयायियों की तादाद तेजी से बढ़ती चली जाएगी। इस कार्य में सूर्य की आराधना, गायत्री महाविद्या का अवलम्बन निश्चित रूप से महती भूमिका निभायेंगे।

जो भी कुछ ऊपर हमने कहा है, वह उन गणनाओं पर आधारित है जो ग्रहों की गति व स्थिति के आधार पर अनेकानेक विद्वानों ने करते हुए भविष्य का एक खाका खींचा है। आज का संकट सामयिक है। यह हमें संज्ञाशून्य बना विवेक से च्युत न कर दे। हम घबराकर, परेशान होकर अनिष्ट की आशंका से मनोबल न खो दें। जीवनी शक्ति, मनःसंतुलन व आत्मबल को अक्षुण्ण रखते हुए हम उन संकटों से जूझ सकें, यहीं युगधर्म है। परम पूज्य गुरुदेव सहित सभी विचारकों-मनीषियों-तत्व विज्ञानियों ने एक ही भविष्यवाणी की है-इक्कीसवीं सदी का भारत एक संपन्न सशक्त और समर्थ राष्ट्र होगा। प्रसूति काल की वेदना जब एक माँ नवशिशु की किलकारी सुनने के लिए सह लेती है, तो हम क्यों नहीं इस संधिकाल की दुखद घड़ी

से उबर सकेंगे। हम मनोबल बनाए रहें तथा एक ही कार्य करें, पारस्परिक सौहार्द बढ़ाने के लिए अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ में बढ़ोत्तरी। युगसंधि महापुरश्चरण तो सभी परिजन कर ही रहे है। सूक्ष्म जगत के संशोधन तथा सृजनकारी शक्तियों को सामर्थ्य प्रदान करने की दृष्टि से उसके अनुपात में वृद्धि कर दे। तभी “कलेक्टीव कान्शसनेस” समूह -चेतना जाग्रत हो एक सुरक्षा कवच हम सबके चारों ओर बना सकेगी। आगत से न डरकर उज्ज्वल भविष्य के लिए तैयारी में सन्निद्ध रहना ही आज की सबसे बड़ी समझदारी है।


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