अपनों से अपनी बात-2 - लीला पुरुष के सहचरों-अनुगामियों से एक भाव भरा अनुरोध

February 1993

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एक युगऋषि का अस्सी वर्ष जिया गया तपःपूत जीवन। आयुष्य का पल-लप ऐसा जो मानव मात्र की पीड़ा को मन में रखकर उन्हीं के निमित्त जिया गया। स्वभाव ऐसा सरल व मृदु कि हर कोई उन्हें अपना मित्र, सखा, आत्मीय समझता रहा। करुणा इतनी गहरी कि उसी ममत्व के सहारे देखते-देखते एक छतवार वृक्ष के नीचे एक विराट परिवार विनिर्मित होता चला गया, नाम जिसका रखा गया “गायत्री परिवार”। लाखों व्यक्तियों के हृदय के सम्राट, गायत्री परिवार-युगनिर्माण योजना के संस्थापक अधिष्ठाता परम पूज्य गुरुदेव का जीवन-वृत्त जब हम देखते है तो पाते है कि एक बहु आयामी हिमालय समान ऊँचाई वाला-अलौकिक सिद्धियों से भरा जीवन उनके द्वारा जिया गया, किन्तु दृश्य रूप में वह अति साधारण जान पड़ता है।

पूज्यवर पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी का जन्म दिवस जो हम उनके आध्यात्मिक बोध दिवस के रूप में मनाते है पिछले दिनों 28 जनवरी को हमने मनाया एवं सभी परिजनों ने गहराई दृष्टि डालकर देखा तो पाया कि अगणित अनुदान उनमें से प्रत्येक ने पाये हैं, असंख्यों संस्मरण उनके मस्तिष्क पटल पर इस महापुरुष के अंकित है एवं अनेकों यादें साथ लेकर उन्हीं के सहारे अपनी नित्य की श्वास वे लिया करते है तथा स्वयं को कृतकृत्य मानते है। उनके संस्मरणों पर आधारित एक कार्यकर्ता प्रशिक्षण गोष्ठी का क्रम शान्तिकुँज में विगत दिसम्बर 12 माह की 16 तारीख से 31 तक चला एवं ढेरों ऐसी घटनाएँ उभर कर आयीं जिनसे लगा कि आज की परिस्थितियों में तथा आगामी 8-9 वर्षों में प्रत्याशित संकटों विपत्तियों में उनसे सभी को बहुमुखी मार्गदर्शन मिल सकता है। प्रस्तुत पंक्तियाँ उस जखीरे का पता लगाने जो विश्वभर के परिजनों के रूप में बिखरा पड़ा है, के निमित्त ही लिखी जा रही है ताकि संस्मरणों, अनुभूतियों लीला प्रसंगों के प्रकाश में हर व्यक्ति जान सके कि गुरुसत्ता के रूप में कैसा उसे आज भी वे पा सकते है अपनी निज की समस्याएँ ही नहीं, मानव मात्र की आज की हर समस्या का समाधान उसमें वे उपलब्ध कर सकते है चमत्कारों को उजागर करने की दृष्टि से नहीं यह शोध प्रक्रिया वस्तुतः इस प्रयोजन के लिए है कि हम सब जान सकें कि साधारण जीवन जीकर भी कैसे हर व्यक्ति गुरुसत्ता जैसा ही महानता संपन्न, प्रतिभा संपन्न लोकनायक बनता हुआ अपना जीवन धन्य बना सकता है।

एक सद्गृहस्थ साधक के रूप में श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन सभी के समक्ष उनके लीलामृत, वचनामृत तथा कथामृत के माध्यम से इस सदी के प्रारीं आया। लाखों व्यक्तियों के लिए ये प्रसंग जीवन को ऊँचा उठाने की प्रेरणा बनकर आए व अगणित व्यक्तियों ने अपने को लौकिक से आध्यात्मिक धाराकी ओर उन्मुख किया। एक बार राम कृष्ण जब ध्यानस्थ थे समाधि की गहन अवस्था में चलें गये थे तो उनके चारों ओर प्रकाश फैल गया। सहज ही उनकी आँख खुली तो उनने चारों ओर प्रकाश विस्तारित होता देखा तुरंत चिल्ला उठे “माँ! भीतर कर। बाहर मत जाने दे। नहीं तो चेले आकर चिपट जायेंगे। मैं तो साधारण आदमी बनकर जीना चाहता हूँ।” तुरंत प्रकाश तिरोहित हो गया तथा वे साधारण व्यक्ति की तरह दिखाई देने लगे। कुछ ऐसे ही प्रसंग परम पूज्य गुरुदेव के जीवन-वृत्त पर भी लागू होते है। अनेकों व्यक्तियों ने उनके भिन्न-भिन्न रूपों में दर्शन किए है तथा अपनी अनुभूति का संसार विनिर्मित किया। स्वयं वे कभी भी नहीं चाहते थे कि लोग उन्हें उस रूप में जाने या उसका प्रचार करें। नहीं तो वही होता जो किसी चमत्कारी सिद्धपुरुष के साथ होता है या होता आया है। फिर भी जैसे किसी हीरे को धूल के ढेर में सूर्यकान्त-श्यामन्तक मणि को कहीं किसी कपड़ों की थैली में बिना उस चमक के फैलाए पास नहीं रखा जा सकता, लगभग वैसा ही महापुरुषों के साथ होता आया है। सुपात्र व्यक्तियों को उनकी जानकारी मिलती रहती है।

श्री केशवचंद्र सेन ने एक बार कहा-”मेरा नाम समाचार पत्रों में क्यों निकालते हो? भगवान जिसे बड़ा बनाते हैं, जंगल में रहने पर भी लोग उसे जान लेते हैं। घने जंगल में फूल खिला है, भौंरा उसका पता लगा ही लेता है, पर दूसरी मक्खियाँ पता तक नहीं पाती। मैं। प्रसिद्धि नहीं चाहता। मैं तो चाहता हूँ कि दीन से दीन हीन से हीन बनकर रहूँ।” ऐसा जीवनमुक्त लीला पुरुष जानबूझ कर करते हैं क्योंकि जीवित रहते जो अगणित काम उन्हें करने हैं, उनमें इन सभी बहिरंग के पक्षों से बाधा आती है। राम कृष्ण परमहंस ने चमत्कार दिखाये नहीं व सहज ही हो गए। इसी तरह परम पूज्य गुरुदेव ने दृश्य रूप बिल्कुल साधारण रहने दिया, जो भी कुछ असाधारण घटा वह होता चला गया व ऐसा अगणित व्यक्तियों के साथ घटा। असाधारण से अर्थ है सामान्य जीवन चर्चा के पीछे से दर्शन कराती है हलचलें गतिविधियाँ जो उस महासत्ता के अस्तित्व का बोध कराती है।

जीवित रहते क्यों एक साधारण-सा दृष्टिगोचर होने वाला जीवन जिया गया, इसे स्पष्ट करते हुए परमपूज्य गुरुदेव जनवरी 1979 की “अखण्ड ज्योति” की अपनों से बात में लिखा हैं- “जब तक रंगमंच पर प्रत्यक्ष रूप से हमारा अभिनय चल रहा है तब तक वास्तविकता बता देने पर दर्शकों का आनन्द दूसरी दिशा में मुड़ जाएगा और हम जिस कर्तव्यनिष्ठा को सर्वसाधारण में जगाना चाहते हैं, वह प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। लोग रहस्यवाद के जंजाल में उलझ जायेंगे। इससे हमारा व्यक्तित्व भी विवादास्पद बनेगा और जो करने-कराने हमें भेजा गया, उसमें भी हमें अड़चन पड़ेगी। निस्सन्देह हमारा जीवन अलौकिकताओं से भरा पड़ा है, रहस्यवाद के पर्दे इतने अधिक है कि उन्हें समय से पूर्व खोला जाना अहित कर ही होगा। पीछे वालों के लिए उसे छोड़ देते है कि वस्तु स्थिति को सच्चाई की प्रमाणिकता की कसौटी पर कसें और जितनी हर दृष्टि से परखी जाने पर सही निकले उससे यह अनुमान लगायें कि अध्यात्म विद्या कितनी समर्थ और सारगर्भित है।”...........”अभी तो उस पर वैसे ही पर्दा पड़ा रहना चाहिए जैसे कि अब तक पड़ा रहा है।” पाठक ध्यान दें-यहाँ स्पष्ट लिखा है कि पीछे वालों के लिए यह छोड़ देते है कि वे दृश्य जीवन के रहस्यों की पिटारी को खोलकर परखें। पीछे वाले कौन? वस्तुतः हम सब और वे सब जिनने उनके जीवन को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा हैं

एक विशाल बहुकोणीय आर्कीटेक्टर की दृष्टि से विलक्षण संरचना को जो जिस कोण से देखता है, अपना दृष्टिकोण उसके बारे में वैसा ही बनाता है, वैसी ही परिकल्पना करता है। नंदादेवी माउंटएवरेस्ट के बाद में हिमालय की भारत में दूसरे नंबर की सर्वोच्च चोटी है। यों के-2 को भी एवरेस्ट के बराबर ऊँचा माना जाता है पर हम तिब्बत क्यों जाएँ व क्यों ही गिलगित की यात्रा करें। हिमालय के हृदय की इस विलक्षण चोटी की त्रिशूलपर्वत व पंचचूली चोटियों के साथ जब गढ़वाल की ओर से देखते हैं तो भिन्न-आकार की जब इसे अल्मोड़ा-बिन्सर रानीखेत से देखते हैं तो अलग आकार की तथा जब पिथौरागढ़ से देखते हैं तो कुछ अलग ही आकार-प्रकार की दिखाई देती है। पर्वत एक ही है पर दो सौ मील की परिधि में देखने पर कोण बदल जाने से उसका रूप व आकार भिन्न-भिन्न जान पड़ता है। फिर ट्रैकिंग करने वाला पर्वतारोही या पिकनिक मनाने वाला हनीमून मनाने वाला व्यक्ति उसे भिन्न रूप में देखता है तथा योगी-सिद्ध साधक जीवन्मुक्त तपस्वी व आध्यात्मिक दृष्टि से ऊँचा उठा व्यक्ति अलग रूपों में देखता है। एक ग्लेशियालॉजिस्ट के लिए वह केवल हिमाच्छादित पत्थरों का ढेर मात्र है। यही उदाहरण महामानवों के जीवनवृत्त पर भी लागू होता है।

हर व्यक्ति ने परम पूज्य गुरुदेव के जीवन को विभिन्न कोणों से विभिन्न भावों से देखा व समझा हैं, अनुभूति की है तथा उनके अनुदानों से लाभान्वित हुए, है। यदि वे अपने उन प्रसंगों को जो संस्मरणों से लेकर छोटे-छोटे घटनाओं के रूप में, प्रेरणादायी प्रसंगों के रूप में हो सकते हैं हमारे पास भेज सकें तो हम इन्हें पुस्तकाकार देकर सबके लाभ के लिए प्रकाशित करना चाहेंगे। उद्देश्य एक ही है गुरुदेव की महत्-चेतना के साथ लोगों के मनों को जोड़ देना। वे उन प्रसंगों में वे झलकियाँ देख सकेंगे जो उनके लिए जीवन मात्र के किसी भी मोड़ पर प्रेरणादायी बन सकती है। यह इतना बड़ा पुण्य है आज की परिस्थितियों में कि इसकी किसी भी मोड़ पर प्रेरणादायी बन सकती है। यह इतना बड़ा पुण्य है आज की परिस्थितियों में कि इसकी किसी और परमार्थ कार्य से तुलना नहीं की जा सकती। महापुरुषों के जीवन के छोटे-छोटे से क्रिया–कलापों में भी विलक्षणता छिपी होती है। पाठकों से तो हम एक ही अनुरोध करेंगे कि लोक-शिक्षकों की नर्सरी बनाने के लिए, उसका समुचित पोषण करने के लिए साधारण असाधारण जो भी घटना प्रसंग परम पूज्य गुरुदेव-परम वंदनीया माताजी के जीवन से जुड़ा हुआ उन्हें दिखाई दिया हो, किसी प्रामाणिक व्यक्ति से सुना हो या उनके पास लिखित प्रमाण के रूप में रखा हो वे हमें अपनी जैसी भी अभिव्यक्ति संभव हो लिखकर भेज दें। साथ ही उनके पास ऑडियो कैसेट्स के रूप में उनकी अमृत वाणी या पत्र हो तो उनकी काँपी हमें भेज दें। यह कार्य अभी व इन्हीं दिनों व अविलम्ब होना चाहिए क्योंकि धीरे-धीरे वह पीढ़ी समाप्त होती चली जाएगी जो उनके निकट संपर्क में उनके कार्यक्षेत्र के दिनों में चालीस व पचास के दशक में आयी थी। पत्रों पर “संस्मरण अनुभूति पूजयवा” यह ऊपर लिख दें तो पत्राचार विभाग से सम्पादन विभाग तक आने में कोई विलम्ब न होगा। उस पर अन्य कुछ न लिखकर उसे अलग से ही लिफाफे में भेजेंगे। हम प्रत्येक का नाम भी देना चाहेंगे। यदि वे नाम देने के अनिच्छुक होते तो हम नहीं देंगे।

श्री अरविंद की एक जीवनी श्री सतप्रेम की लिखी हुई है जो विशुद्धतः आध्यात्मिक प्रगति के बिंदुओं को पिरोती हुई एक विलक्षण संरचना है। एक अन्य जीवनी जो श्री के. आर. श्री निवास अयंगर की लिखी हुई है, अतिविस्तृत है तथा श्री अरविंद के जन्म से लेकर उनके महाप्रयाण तक का ऐतिहासिक के साथ-साथ उनसे जुड़े व्यक्तियों के कथनों के गुँथन से बना एक प्रामाणिक दस्तावेज है। एक ऐसा ही ग्रन्थ जन-जन की प्रेरणा हेतु विनिर्मित करने का उस गुरुसत्ता की प्रेरणा से ही संकल्प उभरा है तो वह निश्चय ही बनकर रहेगा। सभी जानते है तो वह निश्चित ही बनकर रहेगा। सभी जानते है कि श्री राम कृष्ण परमहंस के महाप्रयाण के बाद उनके लीलामृत-वचनामृत के प्रकाशन के पुरुषार्थ के बाद ही पूर्व व पश्चिम में लोगों ने उन्हें जाना था। स्वयं कलकत्ता में ही वे कहाँ अधिक परिचित थे, न ही वे चाहते थे। किंतु जब उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंग जन-जन के समक्ष आने लगे तो दक्षिणेश्वर लाखों व्यक्तियों की प्रेरणा बन गया, एक विराट स्तर का बवण्डर उठा व उसमें से संन्यासियों की टोली निकली, जिसके रत्न के रूप में स्वामी विवेकानन्द प्रकट हुए। वे ही अन्ततः अपने गुरु की वाणी को जन-जन तक पहुंचाने में सफल हुए। ऐसे अगणित विवेकानन्द व निवेदिता स्तर की आत्माएँ अपने मिशन में क्रियाशील हैं जो बहिरंग में तो दैनन्दिन जीवन के व्यापार में उलझी दिखाई देती हैं किन्तु अंतरंग से वे उच्चस्तरीय पुरुषार्थ करने में सक्षम है। उन्हें झकझोरना व देव संस्कृति को विश्वव्यापी बना देना अब हम सबका कर्त्तव्य बन जाता है।

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि “मैं निराकारवाणी बनना चाहता हूँ” (आय वाण्ट टू बि. ए वाँयस विदाऊद फाँर्म) यह बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि वे बने तथा बीसवीं सदी के पूर्वार्ध से लेकर इक्कीसवीं सदी में कदम रखने जा रही पीढ़ी के आदर्श है। एक ऐसे लोकनायक के रूप में उनकी छवि रही जिनने जहाँ शहीद भगत सिंह, आजाद, बिस्मिल, सुखदेव जैसों को प्रेरित प्रभावित किया, वहाँ तिलक, गाँधी पटेल आदि तथा महर्षि श्री अरविंद जैसे उच्चस्तरीय साधक भी उनके आदर्शों से प्रेरित दिखाई देते हैं परम पूज्य गुरुदेव को पुरुषार्थ जो 1911 से 1990 तक की अवधि के 80 वर्षों में संपन्न हुआ अपनी विचार सम्पदा के रूप में जो कुछ निधि हमें उत्तराधिकार में दे गया है उसकी तुलना तो किसी से नहीं की जा सकती किन्तु जैसे-जैसे वह प्रकाश में आएगा, लोग जान सकेंगे कि आज उनकी सूक्ष्म एवं कारण शरीर रूप में और भी अधिक सक्षम है।

परम पूज्य गुरुदेव एक बार दिन में दोपहरी में लेटे हुए थे। उठकर जब वे सब के बीच आए तो बोले “लड़कों! मैं सोता नहीं हूँ। शरीर तो यहीं रहता है पर मैं पहुँच जाता हूँ अगणित व्यक्तियों के पास। उनकी चेतना में प्रवेश कर उन्हें सुधारने की कोशिश करता हूँ। जब तुम लोग सब सो जाते हैं तो रात्रि को भी मैं यही सब करने का प्रयास करता हूँ।” हम उनके कथन पर विश्वास रखें व स्वयं को उस चेतना के प्रवेश हेतु सक्षम एक उचित पात्र बनाने की तैयारी में लगें, यहीं आज का सबसे प्रमुख आध्यात्मिक पुरुषार्थ है। यह एक आश्वासन भी है उन सबके लिए जिनके लिए आज स्थूल रूप में वे सशरीर नहीं है किन्तु उनकी चेतना अभी भी प्रवेश होने के लिए हम सबके चारों ओर विद्यमान है। आप हम सभी निहाल हो सकें, उन प्रेरणाओं से औरों का जीवन भौतिकता से आध्यात्मिक की ओर मोड़कर उन्हें उसका रसास्वादन का अवसर दे सकें, इससे बड़ा कोई युग धर्म नहीं।


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