सचेतन तीर्थ सिद्धपीठ

February 1993

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इन दिनों तीर्थ आयोजनों का स्वरूप मेले–ठेले जैसा बनकर रह गया है। पिकनिक, मनोरंजन, पर्यटन जैसे उद्देश्यों के लिए लोग सैर-सपाटे के लिए निकलते है। भीड़-भाड़ का अपना मौज-मजा होता है जहाँ ऐसी भीड़-भाड़ होती है, वहाँ मनोरंजन के खेल तमाशे भी व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जमा हो जाते है। सरकस, सिनेमा, कठपुतली, जादूगरी जैसे खेल तमाशे वालों की ऐसे अवसरों पर अच्छी आमदनी हो जाती है। चाय-पान, मिठाई, चाट-पकौड़ी जैसी स्वादिष्ट वस्तुएँ लेकर भी छोटे-बड़े दुकानदार पहुँच जाते है। खरीद फरोख्त के साथ दैनिक आवश्यकताओं की तथा जब तब जहाँ-तहाँ से मिलने वाली दक्षिणा भी वहाँ मिल जाती है। दुकानदारों से लेकर ठहरने-ठहराने का प्रबंध करने वाले तक कुछ न कुछ कमा ही लेते हैं। सरकारी मुंशी मेलाधिकारियों, पुलिस आदि को मिलाकर उस भीड़भाड़ का नाम भी हो जाता है। लोग भी मनोरंजन कर लेते है और आयोजक भी अपने आप से कोई कमी नहीं रहने देते। कपटी से मनचाहा प्रसंग कहलवाया जा सकता है, प्रेम-प्रकाशन का आधार तो और भी सस्ता है उनसे भी मनचाहा लिखवाया जा सकता है। विज्ञापन इसी का एक रूप है। उसके माध्यम से इच्छित प्रदर्शन कराया जा सकता है। इतने पर भी यह आवश्यक नहीं कि पैसे के बदले जो खरीदा गया है, वह वास्तविक और चिरस्थायी हो।

पैसे का उतना महत्व दृष्टिगोचर होते हुए भी यह आवश्यक नहीं है कि अपना संतोष, दूसरों का श्रेय और हर किसी का सौजन्य प्राप्त कर लिया जा सके। यदि उन्हें महत्वहीन माना जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा साधन सामग्री के अनुसार कुछ न कुछ लाभ लोग उठा ही लेते है। कहीं-कहीं तो पशुओं के मेले भी लगते है, अक्सर और भी बढ़ जाते है।इस प्रकार मेला एक व्यवसाय बन गया है। उससे अपने-अपने ढंग से लोग लाभ उठते हैं।

कभी-कभी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक स्तर के मेले प्रदर्शनियाँ भी जहाँ-तहाँ होती है। उत्सव आयोजन भी होते हैं कही-कही विशेष पर्वों या देवी-देवताओं के स्थानोँ पर ऐसी ही भीड़ हो जाती है सबका अपना-अपना उद्देश्य होता है। भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का, खरीद-फरोख्त भर नहीं है। इन्हें तो मनोरंजन, की श्रेणी में ही गिना जा सकता है। भले वहाँ कोई देवालय बना हो अथवा नदी-तालाब को देखने-नहाने आदि का प्रबंध हो। इनकी अन्य दृष्टि से न सही, मनोरंजन, खरीद-फरोख्त, कौतुक की दृष्टि से तो कुछ न कुछ उपयोगिता ही है, किन्तु इसके साथ “तीर्थ” नाम ना जोड़ा जाय तो ही अच्छा है।

जिस तीर्थ शब्द के साथ शास्त्रकारों ने अनेक माहात्म्य जोड़े हैं, जिन्हें पुण्य-परमार्थ कहा है। आत्मशोधन, प्रायश्चित्त, पाप प्रकटीकरण आदि उद्देश्य के साथ जोड़ा गया है, उसका स्थान इन दिनों की भीड़-भाड़ वाले माहौल से सर्वथा भिन्न है। उसके साथ जीवन परिमार्जन की शिक्षा जुड़ी होती है। इतना ही नहीं जो दुर्गुण अपने स्वभाव में सम्मिलित हो गये उनके निष्कासन तथा जिन-जिन निर्धारित सद्गुणों की कमी पड़ गई है, उनकी पूर्ति के लिए भूलों के परिमार्जन के लिए प्रायश्चित करने की विद्या तीर्थ प्रक्रिया में सम्मिलित है, जिसे सम्पन्न करने के उपरान्त व्यक्ति अपने को अधिक निष्पाप हुआ अनुभव करे और यह समझे कि पहले की अपेक्षा पवित्रता एवं प्रामाणिकता की मात्रा बढ़ गई है। सद्गुणों का विकास-विस्तार हुआ है। ऐसा होने लगे तो यह समझना चाहिए कि तीर्थयात्रा बन पड़ी है। ऐसा जहाँ बन पड़ता है, वहाँ का वातावरण पवित्र बनता है। सामान्य स्थानों की अपेक्षा वह पुण्य परम्पराओं का बाहुल्य ही होता है। इतना ही नहीं उस प्रयोग प्रयोजन को सम्पन्न कराने वालों में अनुशासन बनाये रहने और नैतिक अंकुश को कसे रहने की तेजस्विता भी होती है। यह दोनों ही पक्ष वहाँ दीख पड़ते है जहाँ के सूत्र संचालक निजी जीवन में उत्कृष्टता और नैतिकता का अनुपात सामान्य लोगों की अपेक्षा कही अधिक ऊँचा बनाये रहते है। जले हुए दीपक ही दूसरे बुझे हुए दीपकों को जलाने में समर्थ होते है। अग्नि प्रज्वलित हो तो उसी के स्पर्श से साधारण ईंधन गर्मी खींचता ओर ज्योतिर्मय होता है। जो स्वयं ही निस्तेज है, वह दूसरों को ज्योति कैसे दे सकेगा। साबुन में मैल काटने और स्वच्छ बनाने का गुण होना चाहिए। यदि वे विशेषताएँ न हों, मात्र वैसी वेशभूषा बनाली जाय तो कोयले का बना साबुन और कीचड़ से धुला वस्त्र किस प्रकार किसी मैले कपड़े को स्वच्छ बनाने में समर्थ हो सकेगा?

जिसमें जो गुण विशेष मात्रा में होते हैं, वहीं दूसरों को यह विशेषताएं दे सकने में समर्थ हो सकता है। संगीतकार, कलाकार, पहलवान, विद्वान आदि की समरूपता का लाभ उन व्यक्तियों को मिलता है जो वैसा बनने की इच्छा रखते हैं किन्तु यदि अध्यापक ही उन विषयों से अनभिज्ञ हो तो समझना चाहिए कि उससे कुछ चाहने वालों को निराश ही होना पड़ेगा।

तीर्थ-इमारतों, देवालयों, प्रतिमाओं, जलाशयों आदि के सहारे ही बन जाते। वस्तुओं का प्रतिफल वस्तुओं के रूप में ही होता है। विशालकाय मन्दिर या ऊँची प्रतिमा आखिर पदार्थ ही है, उसमें चेतना कहाँ होती है? तीर्थ की विशेषता चेतनात्मक वातावरण में यह विशेषता होगी, वहीं से अभीष्ट आकाँक्षा पुरी हो सकने का सुयोग बनेगा। जो स्वयं ही भूखा भिखारी है, उससे यह आशा कैसे की जा सकती है कि वह किसी दरिद्र की दरिद्रता दूर कर सकेगा। उठे व्यक्ति ही दूसरे गिरे हुओं को उठाने में समर्थ हो सकते है। जो स्वयं ही कीचड़ में सने और खाई खंदक में पड़े हैं, उनसे यह आशा कैसे की जा सकती है कि दूसरों को उठाने या स्वच्छ बनाने का उद्देश्य पूरा कर सकेगा।

तीर्थ सचेतन होते हैं। वहाँ के सूत्र संचालक अनुशासित अध्यापक, चेतना की दृष्टि से आदर्शवादी और उच्च चरित्रवान होते है। उन्हीं के तत्वावधान में साधारणजनों को अधिक पवित्र, अधिक प्रखर और अधिक समर्थ बनने का अवसर मिलता है। इसीलिए यदि कहीं वस्तुतः तीर्थ बना हो या बनाया गया हो तो उसके सूत्र संचालक को सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचा या प्रखर होना चाहिए। जो स्वयं अनुशासन पालन कर सका है, जिसने स्वयं जीवन में उत्कृष्टता अर्जित कर ली है, उसी को तीर्थ संचालक कहा जा सकता है या उसी से यह आशा की जा सकती है कि उसके संपर्क में आने वाला व्यक्ति ऊँचा उठेगा। ऊँचे पेड़ से लिपटने के बाद ही बेल ऊँचा उठ सकने में समर्थ होती है। हरे भरे पेड़ पर ही फूल या फल आते है। जो स्वयं सूख चुका है, निर्जीव बन गया है, जो अपनी हरियाली तक को बनाये नहीं रह सकता, वह साथ में लिपटी बेल का कुछ हित साधन कैसे कर सकेगा?

तीर्थ तारने वाले को कहते है। मल्लाह स्वयं भी तैरता है, नाव को भी पार कराता है, उसमें बैठे यात्रियों को भी। यह सभी गुण जंगम तीर्थों में होना चाहिए। स्थावर तीर्थ तो इमारतों जलाशयों, मूर्तियों आदि जड़ पदार्थों में गिने जाते है। उनका प्रभाव-माहात्म्य आँखों से दीख पड़ने वाले मनोरंजक दृश्य जैसा ही होता है। मात्र इन स्थानों का सुहाना दृश्य देखकर अपने मनोरंजन की पूर्ति भर कर लेनी चाहिए।

असली तीर्थ तो प्राणवान होते है। उनका यह नामकरण उनकी जीवन्त एवं सार्थक गतिविधियों को देखकर ही किया गया था। अब भी सच्चे अर्थों में उस स्थान को ही प्राणवान कहा जा सकता है, जहाँ सत्प्रवृत्तियाँ सतत् चलती रहती हों, संपर्क में आने वालों को उन्हें अपनाने की प्रेरणा मिलती हो। जिस वातावरण से ऐसे सुसंस्कारित तीर्थों का संपर्क रहता है, वह स्वतः प्राणवान बनता चला जाता है। शान्तिकुँज गायत्री परिजनों के लिए विनिर्मित एक ऐसा ही तीर्थ है। ऐसे सचमुच के तीर्थ जहाँ भी होंगे, वहीं उनका माहात्म्य और प्रभाव भी दृष्टिगोचर होकर रहेगा।


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