अणु-अणु में समायी है, उस बाजीगर की सत्ता

February 1993

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दृश्यमान शरीर की स्थूल संरचना तो अन्य प्राणियों जैसी ही है; पर उसके अन्तराल में प्रवेश करने पर पता चलता है कि पग-पग पर उसमें विलक्षणताएँ भरी पड़ी है। इनके स्वरूप और उपयोग को जाना जा सके, तो तिलिस्म के वे पर्दे उठ सकते हैं, जिनके भीतर रहस्यमय सिद्धियों के अनन्त भाण्डागार भरे पड़े हैं। काय-कलेवर में स्थूल क्षमताओं का आधार अत्यन्त छोटी इकाई है-’जीन्स’। यह आँख से दृष्टिगोचर न होने वाली कोशाणुओं के अन्दर पाये जाने वाली सूक्ष्मतम इकाई है। इतने पर भी उनकी क्षमता देख कर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है और सोचना पड़ता है कि जब उसके स्थूल अंश में इतनी बढ़ी-चढ़ी सामर्थ्य है, तो उसकी सूक्ष्म सत्ता को जाग्रत कर लेने पर व्यक्ति कितना विभूतिवान बन सकता है-यह कल्पना से परे है। इसे आज की विडम्बना ही कहनी चाहिए कि हम न तो उसकी अद्भुत सामर्थ्य को समझ पा रहे हैं, न स्वीकार कर पा रहे है। फिर उसके जागरण और सुनियोजन की बात ही कैसे बने।

काया का स्थूल भाग अन्नमय कोश छोटी-छोटी कोशिकाओं से बना है, जिसके अन्दर के द्रव में एक नाभिक होता है। इस नाभिक में अनेक धागों के समान संरचनाएँ होती है, जिन्हें गुणसूत्र कहते है। इनमें कुछ छोटी-छोटी सूक्ष्म गांठें उभरी रहती है। यही ‘जीन्स’ कहलाती है। यह जीन्स क्या है? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते है? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा पूरी तरह उठा नहीं सका है। उनके संबंध में तेजी से शोध कार्य चल रहे है। बहुत से रहस्य खुले भी हैं, पर वह नहीं के बराबर है।

जीन्स की सूक्ष्म-संरचना के बारे में अभी तक पूरी तरह नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियाँ निश्चित रूप से हो गयी है कि शरीर के अंग-प्रत्यंग की विशिष्ट रचना से लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों, गुणों एवं क्रिया-कलापों को कैसे नियंत्रित किया जाय? यह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है; किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि ‘जीन्स’ के गुणों एवं कार्य-प्रणाली को प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त हो सकती है। यह अन्नमय कोश के छोटे-से घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य आकार वाले कण मनुष्य के आस-पास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ है।

मनुष्य के विकास के संबंध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर आनुवांशिकता के साथ-साथ वाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी। किंतु अब यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव-गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को इसके द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है; पर यह तथ्य आँशिक रूप से ही सत्य है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएँ सीखी है, तो वह उस भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी; पर मिथ्या यह भी नहीं है कि अपने व्यवहार और आचरण को साध और शोध लेने से जो प्रखरता पैदा होती है, उसे अन्तस् की उस इकाई तक पहुँचाया जा सकता है, जो वंशानुक्रम का प्रमुख आणारित हैं भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे, तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रगत, तपस्वी, संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इन्द्रिय लिप्साओं जैसी कुचेष्टाओं में संलिप्त रह कर सुसंतति की आकाँक्षा करते रहना आकाश कुसुम खिलाने के समान है। अन्नमय कोश की इन सूक्ष्मताओं से परिचित होकर अपना जीवनक्रम उस प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य संतति के जनक-जननी बनने की क्षमता से विभूषित होता है, अपितु उन अनेक विशिष्ट विभूतियों से सम्पन्न बनाता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है। अन्नमय कोश की साधना स्वयं की इन क्षमताओं के विकास का ही दूसरा नाम है।

इसीलिए आनुवांशिकता और वातावरण दोनों को सामान महत्व दिया जाता हैं आनुवांशिकता द्वारा अर्जित गुण दूसरे तरीके से कदाचित ही प्राप्त होते हैं, पर इस बात से भी सर्वथा इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही इसे माना जाता है। ये जन्मजात गुण वंशानुगत के लक्षण कहे जाते है। यह लक्षण गुणसूत्रों के आधार पर प्राप्त होते है। गुणसूत्र ही व्यक्ति की विशिष्टताओं का निर्माण करते है।

‘जीन्स’ का व्यवहार या आचरण से सीधा संबंध नहीं होता। जीन्स शरीर के ऊतक तथा अंगों के विकास को निर्देशित-नियंत्रित करते है। शरीर की ये क्रियाएँ स्पष्टतः व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं और उस रूप में जीन्स का संबंध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटा कद और बहरे कान प्राप्त करता है, तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जायेगी। इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते है। इन तत्वों की उपस्थिति के आधार पर सशक्तता या दुर्बलता का संबंध जीन्स से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंश परम्परा से संबंधित होते है।

वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोजोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक है कि अन्नमय कोश में निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन के रस-परिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोश के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रह कर उसे अस्त−व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते है और भावी संततियों को भी उस विकृति का अभिशाप दे जाते है।

मूर्धन्य जन्तु विज्ञानी एवं दार्शनिक एस.वाल्टर स्मिथ ने इसी भारतीय विचारधारा का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तक “हेरेडिटरी जर्नी” में लिखा है कि बुरा चिंतन और बुरा आचरण करने वाला समाज न सिर्फ अपनी जैसी ओछी संतानें पैदा करता है, वरन् व्यक्ति में विद्यमान उन विभूतियों को भी अंकुरित होने से कुचल कर रख देता है, जो संभावित महानता के रूप में व्यक्ति में पहले से ही विद्यमान थीं।

उल्लेखनीय है कि हर व्यक्ति में गुण-अवगुण समान रूप से विद्यमान होते है। यदि कोई सद्गुणी है, तो इसका कारण मात्र इतना है कि उसने अपनी उस विभूति को प्रयासपूर्वक उभार लिया है और दोष को दवा दिया, जिसके कारण वह लौकिक दृष्टि से सदाचारी प्रतीत होता है। इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए डॉ. गोपीनाथ कविराज अपनी पुस्तक “भारतीय संस्कृति और साधना”, (खण्ड-2) के “सूर्य विज्ञान रहस्य “ अध्याय में लिखते है कि सूर्य विज्ञान के माध्यम से गुलाब के फूल को गुड़हल में अथवा जवा पुष्प को कमल में बदल देना प्रकट रूप से रूपांतरण जैसा लग सकता है; पर सच्चाई यह है कि गुलाब का गुड़हल कभी नहीं बनता, वरन् उसमें जो गुड़हल का प्रच्छन्न अंश है, वह सक्रिय हो जाता है और आकाश में अपने सजातीय अणुओं को खींच कर अपनी अभिव्यक्ति करता है। इसका यह मतलब कदापि नहीं कि गुड़हल से गुलाब की सत्ता बिल्कुल ही समाप्त हो गई, अपितु यथार्थता यह है कि वह अप्रकट रूप में अब भी उसमें मौजूद है। सूर्य विज्ञान द्वारा सिर्फ इतना किया जाता है कि जो प्रकट है, उसे अप्रकट बना दे और जो अप्रकट-अगोचर है, उसे गोचर कर दे।

प्रस्तुत विलुपित और अभिव्यक्ति के जिस सिद्धान्त से साधना विज्ञान प्राचीन काल से ही परिचित था, अब उसे “जेनेटिक्स” भी स्वीकारने लगा है। उसका “लाँ ऑफ डोमिनेन्स” इसी की स्वीकारोक्ति है। इसमें इसी बात को तथ्य रूप में अंगीकार किया गया है कि जन्तु अथवा व्यक्ति में शारीरिक या व्यावहारिक रूप में जो लक्षण दिखाई पड़ते है, सच्चाई मात्र इतनी ही नहीं होती, अपितु इसके विपरीत गुण भी उसमें अगोचर रूप में सदा बने रहते हैं-यह कथन भी उतना ही सत्य है, जितना दिन-रात का होना।

इस प्रकार इतना ज्ञात हो जाने के उपरान्त कि देव-दानव स्तर के लक्षण सदा साथ-साथ रहते है, मनुष्य का प्रयास मात्र उस पुरुषार्थ को कर गुजरना भर होता है, जो उसके अन्दर अघटित को घटित कर दे और उसे महानता की भूमिका तक पहुँचा दे। अन्नमय कोश में सन्निहित अति सूक्ष्म व उपेक्षणीय स्तर के घटक जीन्स उन्हीं लक्षणों को सँजोने वाले प्रतीक प्रतिनीतिध है। यदि व्यक्तित्व में पाये जाने वाले ये लक्षण हेय स्तर के है, तो यह तो इसका एक पक्ष हुआ। इसका दूसरा उत्कृष्ट और महान पहलू भी एक है, इसे सदा स्मरण रखना चाहिए और प्रयत्न एवं पराक्रम सदा उसी दिशा में गतिशील रखना चाहिए, ताकि सुषुप्ति को जाग्रति में परिवर्तित कर कुछ महत् और महत्वपूर्ण हस्तगत किया एवं स्वयं को अविस्मरणीय अभूतपूर्व जैसा बनाया जा सकें।


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