“अश्वमेध” जो ब्रह्मवर्चस् का जागरण कर रहे हैं!

February 1993

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शतपथ ब्राह्मण में अश्वमेध की व्याख्या करते हुए अनेकानेक इष्टियों में उसकी महिमा का गान हुआ है। तेरहवें काण्ड के इस प्रकरण के अंतर्गत उल्लेख आता है-

एषवाऽऊर्जस्वात्राम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते सर्वमेवोर्जस्वद् भवति॥ 13-3-7-6

अर्थात् “इस यज्ञ का नाम ऊर्जस्वान (दिव्य ऊर्जा प्रदान करने वाला )है। जहाँ यह यज्ञानुष्ठान संपन्न होता है, वहाँ सभी लोग ऊर्जास्वी (प्राणवान) बन जाते है।” थोड़ा इस अर्थ को गहराई से समझने का प्रयास करें। लौकिक अर्थों में ऊर्जा वह है जो कैलोरी के रूप में ग्रहण की जाती है। आहार में विभिन्न पोषक द्रव्यों को लेने से शरीर में जो ताकत आती है, वह ऊर्जा उत्पन्न करती है एवं जब यह ऊर्जा काया के अवसान के पश्चात् पलायन कर जाती है तो व्यक्ति निष्प्राण या मृत कहलाता है। स्थूल दृष्टि से ऊर्जा का यही अर्थ भौतिकी व जैविकी की विधाओं के अंतर्गत आता है। यदि प्राणवान शब्द से इसी ऊर्जा से अभिपूरित व्यक्ति की चर्चा की जा रही है तो इस धरती का एक-एक प्राणी इस परिभाषा में आ जाता है। स्थूल अंग-अवयव संरचना की दृष्टि से वह कैसा भी हो, इन इन्द्रियों का नियोजन वह चाहे जिस दिशा में करता हो, उसे इस परिभाषा के अनुसार तो प्राणवान ही कहना चाहिए। नरपशु जो शिश्नोदर परायण होते हैं तथा पशु जो मूक है, अपनी भावना विचारणा वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते किंतु प्राणतत्व जिनके रोम-रोम में स्पन्दन कर रहा है, इसी दायरे में आ जाने चाहिए। किन्तु ऐसा है नहीं।

जब हम ऋषियों की अभिव्यक्ति की निराली शैली का गहरा विवेचन करते है तो हम पाते है कि वे व्यक्ति को इस यज्ञ के द्वारा “ऊर्जावान” बनाने की बात करते है। प्राण वे जो दिव्य ऊर्जा के पर्याय है। लौकिक नहीं। एक ग्राम पानी को जो एक सेंटीग्रेट तापमान तक ऊष्मायुक्त कर दे, वह लड़ाई ऊष्मायुक्त कर दे, वह इकाई ऊर्जा की एक कैलोरी कहलाती हैं यह लौकिक परिधि वाली ऊर्जा हैं किंतु अश्वमेध यज्ञ जिस ऊर्जा से याजक को-साधक को अभिपूरित करता है, वह अत्यन्त विलक्षण है। वह सामान्य ऊर्जा को दिव्यऊर्जा में बदलकर व्यक्ति को सामान्य न रहने देकर असामान्य रूप से प्राणवान-शक्ति संपन्न आत्मबल संपन्न ओजस्वी ऊर्जास्वी बना देता है। जिसकी ऊर्जा ऊर्ध्वमुखी हो, वह ऊर्जास्वी है। जो उसे असंयम के छिद्रों से नित्य के जीवन व्यवहार में अपनी जीवन जीने की अपव्यय प्रधान शैली से प्राणतत्व को गँवाता रहता है, वह तो मुर्दों में गिने जाने योग्य-निष्प्राण-निस्तेज-जीवनी-शक्ति-विहीन एक रोगी व्यक्ति समाज में है जिन्हें पीड़ित मानवता की पुकार, भाव संवेदना रूपी अध्यात्म ज्ञान समाज-राष्ट्र को क्षीण-दुर्बल बनाने वाली हलचलों से कोई मतलब नहीं। वे शरीर से ऊपर उठ ही नहीं पाते। अनगढ़ता प्रधान जीवन जीते हुए “हम शरीर है, इसका पोषण करना व इसे सँवारना चाहिए इससे जुड़े हैं, वे मेरे है, औरों से मुझे क्या मतलब?” इस मान्यता में प्रायः अपनी सारी जीवन सम्पदा होम कर देते है। ऐसे व्यक्तियों का अनुपात जिस समाज में अधिक रहता है, वह समाज दुर्बल-अशक्त होता है व जब जिसके मन में आता है अपनी शक्ति के बलबूते उन पर आधिपत्य स्थापित कर लेता है। निर्वीर्य ऐसे ही समाज के व्यक्ति कहे जाते है क्योंकि प्राण की हलचलें काया में दीख पड़ते हुए भी उनमें पौरुष-पराक्रम कहीं हिलोरें लेता दिखाई नहीं देता।

ऋषि कहते हैं-जो व्यक्ति शरीर से उठकर मन में तथा मन की दुर्बलताओं से मुक्त होकर चित्त में विद्यमान संस्कारों का भी साक्षी भाव से दर्शन-परिमार्जन कर जब शुद्ध अहं तत्व को प्राप्त होता है तो वास्तविक रूप से प्राणवान बनने की दिशा में अग्रगामी होता है। चेतना की एनोटॉमी का अंतःकरण चतुष्टय का यह पाठ पढ़ने के लिए किसी भी साधक को किसी मेडिकल कॉलेज या ऋषि आरण्यक की नहीं, अंतः की गुहा में प्रवेश कर इस तत्व की अनुभूति करने की आवश्यकता पड़ती है कि वह शुद्ध रूप में क्या है। आत्मसत्ता पर छाए है कि वह शुद्ध रूप में क्या है। आत्मसत्ता पर छाए धुँधलेपन को मिटाता हुआ जो पवित्रता के रूप में योग की उच्चतम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है तथा अपनी शक्तियों को ऊर्ध्वमुखी बनाता हुआ अपनी ईश्वर प्रदत्त ऊर्जा को लौकिक से दिव्य ऊर्जा में बदल लेता है, वह निश्चित ही प्राणवान कहलाता है- प्राणमयकोश की सिद्धि का अधिष्ठाता बनता है तथा अपनी ऊर्जस्विता से सारे समुदाय के मनोबल को ऊँचा उठाता हुआ अध्यात्म की श्रेष्ठतम उपाधियों को प्राप्त करते हुए समाज व राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति का निमित्त कारण बनता है।

वैदिक काल को ऊर्जस्विता प्रधान व्यक्तियों का काल कहा जाता है। गायत्री रूपी वह रसायन जो अनगढ़ को भी ब्राह्मण बना देता है तथा यज्ञ रूपी वह तप साधना विधान जो आत्मतत्व का परिशोधन-परिष्कार करने की, आदर्शों को कर्तृत्व में समाहित करने की शिक्षा देता है, देव संस्कृति के दो मूल आधार रहे है। उसमें भी यदि अश्वमेधी स्तर का गायत्री महायज्ञ समाज में समय पर संपन्न हो रहा है, आत्मबल संपन्न ऋषिगण-राष्ट्र को तेजस्वी-पराक्रम बनाने के उद्देश्य से क्षात्रबल अपनाने वाले राष्ट्राधिपति उसे संपन्न करा रहे तो निश्चित ही यह मानकर चलना चाहिए कि असुरता से मोर्चा ले, मानसिक दुर्बलताओं से जूझते हुए जन-जन को ऊर्जस्विनी ओजस्वी, प्राणशक्ति संपन्न बनाने की प्रक्रिया संपन्न हो रही है। यदि कहीं इस पुरुषार्थ में व्यक्तिक्रम आ रहा है तो यह समझ लेना चाहिए कि धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड की चिह्न-पूजा तो संपन्न हो रही है किन्तु इसमें वह अध्यात्म तत्व नहीं है जिसका मूल प्रयोजन हो देवशक्तियों और उनके अधिष्ठाता परमात्मा में सामंजस्य स्थापित करना है। अध्यात्म घनीभूत संवेदनाओं को जीवन में देने की प्रक्रिया का नाम है तथा वह सबसे पहले व्यक्ति को शूरवीर, प्राणवान तथा शक्ति संपन्न बनाने का कार्य संपन्न करता है। ऋषियुग में यहीं सब होने से प्राणवान व्यक्तियों का मनीषियों का-शूरवीरों का कभी अकाल नहीं था।

आज यदि कोई सबसे बड़ा संकट है तो वह है प्राणों का, मनोबल का, ओजस्विता का जीवनी शक्ति का। कहीं कोई प्राणवान, तेजस्वी, मनस्वी दिखाई ही नहीं देते जिन्हें समाज का कीर्ति-स्तम्भ कहा जा सके व यह आशा मन में रखी जा सके कि वे मानव मात्र का मार्ग दर्शन कर राष्ट्र व विश्व को संगठित -शक्तिशाली बना सकें। अशक्ति को दुःखों का सबसे बड़ा कारण बताया गया है तो असुरता के पैर जमने के लिए भी वहीं निमित्त कारण बनती है। अशक्ति से यहाँ तात्पर्य प्राणों की शक्ति की न्यूनता से है, किसी पोषक तत्व की कमी या व्याधि जन्य दुर्बलता से नहीं। हाँ! यह आवश्यक है कि शरीर व मन में रोगों के आ घुस पड़ने, घर में पैर जमा लेने तथा समाज में असुरक्षा को जन्म देने वाले अनेकानेक कारण उत्पन्न करने में अशक्ति की मुख्य भूमिका होती है। तनाव आज बाहर के कारणों से जितना नहीं हैं, उतना व्यक्ति की स्वयं की प्राण के कारण है तथा आत्मबल की कमी के कारण है। जब समाज व राष्ट्र की ईकाई ही कमजोर होगी तो कैसे एक सशक्त राष्ट्र रूपी भवन की आशा इन घटकों से लगायी जाय। यह आज का सबसे अहम् यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर इक्कीसवीं में कदम रखने वाली नयी पीढ़ी हम से माँगती है।

सारी समस्याओं का समाधान अध्यात्म है, यह युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव का मत हैं। अध्यात्म अर्थात् पशु प्रवृत्तियों को-एनीमल इंस्टींक्ट्स को देव आस्थाओं में बदल देने वाली एक सशक्त प्रक्रिया जो व्यक्ति को प्रसुप्त से जाग्रति में ले जाती है। निर्वीय-अनशक्त निस्तेज व्यक्ति प्राणों से युक्त तो है किन्तु उस कला से अनभिज्ञ है जो उन प्राणों का ऊर्ध्वगमन कर उसे वीर्यवान-शक्तिमान-तेजवान बनाना सिखाती है। अध्यात्म इसी उच्चतम स्तर का पराक्रम है तथा अश्वमेधी प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति को प्राणवान बनाता हुआ उस मूलभूत समस्या से जूझता है जो ऋषि अपनी विलक्षण शैली में इसी तथ्य को पुनः प्रतिपादित करता हुआ शतपथ ब्राह्मण में 13-3-7-8 में यह कहता है-

“एष वै ब्रह्मवर्चसी नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजनतऽआ ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायते॥”

अर्थात्-”इस यज्ञ का नाम “ब्रह्मवर्चसी “ है अर्थात् ब्रह्मवर्चस् प्रदायक। इस यज्ञानुष्ठान में भाग लेने वालों को “ब्रह्मवर्चस्” की प्राप्ति होती है।

यह “ब्रह्मवर्चस् “ क्या है। अथर्ववेद में गायत्री महासत्ता से-वेदमाता से स्तुति करते हुए इह लोक के सात तथा परलोक में परमपद की प्राप्ति रूपी आठवें लाभ की प्राप्ति रूपी सूक्त में यहीं माँगा गया है।

“स्तुतामया वरदा वेदमाता प्रचेदयन्ताम्। पावमानी द्विजानाँ आयुः प्राणं प्रजाँ॥

पशु कीर्ति द्रविणं ब्रह्यवर्चसम!। मह्यम दत्वा व्रजत ब्रह्यलोकम्॥”

ब्रह्मवर्चस्-अर्थात् वह बल वह वर्चस् जो आत्मसत्ता को ब्रह्म के समकक्ष बनाता हो। आत्मबल संपन्न व्यक्ति ही ब्रह्मवर्चस् संपन्न कहा गया है। ऐसा व्यक्ति किसी से डरता नहीं सिवा भगवान के। किसी चीज का लोभ नहीं रखता न लौकिक वस्तुओं का न जीवन्मुक्ति का, मोक्ष का। उस का लक्ष्य एक ही होता है कि अपनी आत्मसत्ता के बलबूते वह मल्लाह की तरह अपनी नैया में बिठाकर मजबूत, माँसल, पराक्रमी भुजाओं के सहारे डाँड चलाता हुआ वह अगणित व्यक्तियों को मझधार में इससे उस पार पहुँचा दे। अकेले नहीं, अपितु समूचे समूह-समाज या राष्ट्र का दायित्व जिस पर हो जो सही अर्थों में “ग्रुप लीडर” लोकनायक हो तथा अगणित व्यक्तियों में प्राण फूँकने की सामर्थ्य रखता हो, ऐसा वर्चस्वी व्यक्ति ही ऋषियों को अश्वमेध रूपी महायज्ञीय पराक्रम से अभीष्ट है। ऐसे व्यक्ति जब समाज में अधिकाधिक संख्या में गढ़े जाने लगते है तो समाज निर्भय, सुरक्षित व संगठित हो प्रगति की दिशा में अग्रसर होता चला जाता है।

ब्रह्मवर्चस् के दो पक्ष शब्दार्थ की दृष्टि से स्पष्ट किए जा सकते है। एक “ब्रह्मविद्या” अर्थात् चिंतन का, दृष्टिकोण का परिष्कार तथा “वर्चस्” अर्थात् प्रसुप्त अंतःशक्तियों का जागरण, तेजस् का वर्धन-प्रतिमा का जागरण। यह प्रज्ञा और पराक्रम का युग्म है जो ब्रह्मवर्चस् से स्पष्ट होता है। गायत्री व सावित्री दोनों का इस शब्द में समन्वय है। जहाँ गायत्री मेधा संवर्धन करती-प्रसुप्ति का जागरण कर जीवन्मुक्ति का, शान्ति का, मोक्ष का पथ प्रशस्त करती है वहाँ सावित्री सर्वतोमुखी समर्थता, प्रखरता, पराक्रमशीलता मन्यु उभारने वाली प्रक्रिया है। एक प्राणाग्नि का जागरण करती है तो दूसरी ब्रह्माग्नि का। ब्रह्मज्ञान व ब्रह्मतेज के समन्वित जागरण से साधक का ब्रह्मवर्चस् जागता है एवं यही अश्वमेधीय पराक्रम संपन्न होता शतपथ ब्राह्मण के ऋषि ने दर्शाया है।

सभी जानते है कि गायत्री का महामंत्र देवता सविता है। सविता प्राण रूप है तो गायत्री प्राणों का त्राण करने वाली ब्रह्मवर्चस्-वर्धक दिव्य प्राण दिया है। सविता को भी प्रसविता प्रेरणादायक, उत्पत्तिकर्त्ता रचयिता कहा गया है। “वेद रहस्य” में श्री अरविंद कहते हैं कि साधक की प्राणशक्ति के जागरण की प्रक्रिया सविता की प्रेरणा से ही संपन्न होती है। सविता की परिभाषा करते हुए वे लिखते है-”जो रचयिता है, सत्य के रूप में सतुत्य है, मनुष्य का पोषक है, मनुष्य की अहंभाव से निकालकर विश्वव्यापी बना सीमित से असीम कर देता है वहीं सविता है।” वे लिखते है कि सूर्य सविता है अपने रचनात्मक प्रकाशक सौर रूपों वाली दिव्य सत्ता के रूप में। सूर्य विप्र है-प्रकाशमान, विशाल, स्पष्ट विचार वाला तथा ज्ञानाधिपति है। ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के 89 वें सूक्त के पहले श्लोक में बड़ी विलक्षण स्तुति सविता की आयी है। भाव है महान उस सविता देव की व्यापक स्तुतिः, (मही देवसय सवितुः परिष्टुतिः )जो तीन प्रकाश मान लोकों में जाता है और सूर्य की किरणें द्वारा पूरी तरह से अभिव्यक्त होता है।

अश्वमेध महायज्ञ एक विलक्षण अनुष्ठान रूपी प्रयोग है जो राष्ट्र के ब्रह्मवर्चस् पराक्रम शौर्य के जागरण के लिए इन दिनों भारत व विश्वभर में संपन्न हो रहा है। शतपथ ब्राह्मण के 13 वे काण्ड में अश्वमेध व सूर्य दोनों के लिए “ब्रह्मवर्चस्” संबोधन का प्रयोग हुआ है जबकि गायत्री महाविद्या भी ब्रह्मवर्चस् प्रदायक है जैसा कि अथर्ववेद में उल्लेख है। “एष वै तेजस्वी नाम यज्ञः” प्रसंग में भी यह अश्वमेध यज्ञ तेजस्विता प्रदान करने वाला है, यह कहा गया है। हम सभी इस महायज्ञ-यज्ञों के राजा अश्वमेध के माहात्म्य फलश्रुतियों को समझें व इसमें भागीदारी कर स्वयं समाज व राष्ट्र को शौर्य, तेज, वर्चस् संपन्न बनाये। यही इस युग का परम पुरुषार्थ है।


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