सूक्ष्म शरीर को सक्रिय बनाने वाली त्रिविध मुद्राएँ

February 1993

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शरीर के स्थूल अवयवों के विशिष्ट व्यायामों को ‘आसन’ कहते है। वे साधारण कसरतों से भिन्न है। कसरतों की पहुँच प्रधानतया माँसपेशियों तक सीमित रहती है। नस-नाड़ियों पर भी उनका प्रभाव पड़ता है, किन्तु आसनों की विशेष व्यवस्था में ऐसे आधार सन्निहित है जिनके सहारे भीतरी अवयवों को भी प्रभावित किया जा सके। आमाशय, आँखें,जिगर, गुर्दे, फेफड़े,हृदय आदि प्रमुख अवयवों को उनके द्वारा प्रभावित किया जाता है। उनकी असमर्थता एवं रुग्णता के निवारण में आसनों द्वारा विशेष सहायता मिलती है। किस स्थिति में, किस आसन का उपयोग कितने समय तक किया जाय, इसके लिए साधक की शारीरिक, मानसिक स्थिति का पर्यवेक्षक आवश्यक है। निदान के उपरान्त ही उपयुक्त उपचार की बात बनती है। इस संदर्भ में व्यायाम को अधिक स्थूल एवं आसनों को अधिक गहरी पहुँच वाला सूक्ष्म माना जाता है।

इनके उपरान्त गहराई की तीसरी परत में मुद्राओं का नम्बर आता है। वे प्रधानतया इंद्रियों की रहस्यमयी शक्तियों से संबंधित है। उनका प्रभाव इतनी गहराई तक पहुंचता है कि ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता अधिक प्रखर बनायी जा सके और यदि उनमें किसी प्रकार की दुर्बलता, रुग्णता का समावेश हो गया हो तो उसका निवारण आरंभ हो सकें।

हठयोग के प्रयोगों में बीस मुद्राओं का उपयोग होता है। उनमें से कुछ का प्रभाव शारीरिक कुछ का मानसिक, कुछ का कारण क्षेत्रों की गहराई तक होता है। इनमें से सभी को जनता, सीखना सामान्य साधकों के लिए न तो आवश्यक है न उपयोगी। उनमें से जो प्रमुख प्रभावोत्पादक, अधिक सरल एवं अधिक उपयोगी परिणाम उत्पन्न करने वाले है। मात्र ऐसा ही तीन मुद्राओं का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है। त्रिविध प्राणायामों की तरह मुद्राओं में भी तीनों का प्रयोग साधक की स्थिति के अनुरूप सुनिश्चित किये जाते है।

यह तीन मुद्रायें हैं-(1)-शक्ति-चालिनी मुद्रा (2) शिथिलीकरण मुद्रा और (3) खेचरी मुद्रा। इनमें से शक्तिचालिनी का संबंध मूलाधार से है। कुण्डलिनी का निवासी केन्द्र वही है। पौरुष, प्रजनन, उत्साही इसी केंद्र से संबन्धित है। शक्तिचालिनी के आधार पर मूलाधार को जाग्रत, नियंत्रित एवं अभीष्ट उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। शिथिलीकरण मुद्रा का संबंध हृदय चक्र से है। यह स्थान भाव संवेदनाओं शक्ति, एवं तेजस्विता का केन्द्र है। भावनाओं को दिशा देना भी इसी क्षेत्र के प्रयत्नों से बन पड़ता है। तीसरी मुद्रा-खेचरी मुद्रा है। उसका संबन्ध ब्रह्मरंध्र, सहस्रार कमल पर्वत की उपमा दी गयी है। यहाँ मन, बुद्धि, चित्त से सम्बन्धित सभी तंत्र विद्यमान है। खेचरी मुद्रा द्वारा उनमें से किसी को भी किसी भी प्रयोजन के लिए जाग्रत एवं तत्पर किया जाता है। बुद्धि मंदता एवं तनाव से लेकर मनोविकारों तक में इस केन्द्र की सहायता ली जा सकती है।

अध्यात्म विज्ञान में सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित तीन रहस्यमयी ग्रन्थियों का उल्लेख है। वे हैं- (1)ब्रह्म ग्रन्थि (2) विष्णु ग्रन्थि और (3)रुद्र ग्रन्थि। ब्रह्म ग्रन्थि का संबंध खेचरी मुद्रा से एवं विष्णु ग्रन्थि का शिथिलीकरण से है, जबकि रुद्र ग्रन्थि शक्तिचालिनी मुद्रा से संबंधित है। इन तीनों के स्वरूप, कारण रहस्य अभ्यास एवं प्रतिफल साधना ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक बताये गये है। उन सबका सार संक्षेप इतना ही है कि मस्तिष्क, हृदय और प्रजनन तंत्र में वरिष्ठता एवं पवित्रता, प्रखरता उत्पन्न करने के लिए उपरोक्त तीन मुद्राओं की साधनाओं का प्रयोग किया जा सकता है और उनका चमत्कारी प्रतिफल देखा जा सकता है।

तीनों मुद्राओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

(1) शक्तिचालिनी मुद्रा-

शक्तिचालिनी मुद्रा वज्रासन या सुखासन में बैठकर की जाती है। इसमें मल एवं मूत्र संस्थान को संकुचित करके उन्हें ऊपर की ओर खींचा जाता है। खिचाव पूरा हो जाने पर उसे धीरे-धीरे पाँच मिनट तक बढ़ाते हुए यही क्रिया बार-बार दुहरायी जाती है। शक्तिचालिनी मुद्रा के साथ ही उड्डियान बंध अधोमुखी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए प्रयुक्त होता है। यह क्रिया स्वतः शक्तिचालिनी मुद्रा के साथ धीरे-धीरे होने लगती है। पेट को जितना ऊपर खींचा जा सके, खींचकर पीठ से चिपका देते है। उड्डियान का अर्थ है-उड़ना। कुण्डलिनी महाशक्ति का जाग्रत करने की यह पहली सीढ़ी है। इससे सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है, मूलाधार चक्र में चेतना आती हैं। इन दोनों क्रियाओं के द्वारा समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर ऐसा सूक्ष्म विद्युतीय प्रभाव पड़ता है जिससे इस शक्तिस्रोत के जागरण व मेरुदंड मार्ग से ऊर्ध्वगमन के दोनों उद्देश्य पूरे होते है। विवेकवान साधक इस शक्ति केन्द्र को जगाकर अनेक गुना प्रखर बनाते है ओर जागरण की इस प्रखरता का उपयोग व्यक्तित्व को प्रतिभा सम्पन्न बनाने, उच्चस्तरीय कार्य संपादन करने में प्रयुक्त करते है।

(2) शिथिलीकरण मुद्रा

योगनिद्रा का यह प्रथम चरण है। अचेतन को विश्राम देने, नयी स्फूर्ति दिलाने तथा अन्तराल के विकास-आत्मशक्ति के उद्भव का पथ प्रशस्त करने की यह प्रारंभिक क्रिया है। इस मुद्रा का अभ्यास शवासन में लेटकर अथवा आराम कुर्सी पर शरीर ढीला छोड़कर किया जाता है। यह क्रिया शरीर, मन बुद्धि को तनाव से मुक्त करके नयी चेतना से अनुप्राणित कर देती है। साधक को शरीर से भिन्न अपनी स्वयं की आत्मचेतना की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।

कोलाहल रहित वातावरण में शवासन में लेटकर पहले शरीर -शिथिलीकरण के स्वयं को निर्देश दिये जाते है। शरीर के निचले अंगों से आरंभ करके शनैः-शनैः यह क्रम ऊपर तक चलाते है। हर अंग को एक स्वतंत्र सत्ता मानकर उसे विश्राम का स्नेह भरा निर्देश देते है। कुछ देर उस स्थिति में छोड़कर धीरे से श्वास तीव्र करके शरीर को कड़ा और फिर ढीला होने का निर्देश दिया जाता है। धीरे-धीरे शारीरिक शिथिलीकरण सधने पर क्रमशः मानसिक शिथिलीकरण का अभ्यास करते हुए दृश्य रूप में शरीर पड़ा रहते देखने चेतनसत्ता के सरोवर में ईश्वर को समर्पित कर देने की भावना की जाती है। ध्यान योग की यह प्रक्रिया आध्यात्मिक दृष्टि से उपलब्धियों से भरी हुई है। शरीरगत तथा मनोगत इसके सत्परिणामों से आज विज्ञानवेत्ता भी परिचित हैं।

(3) खेचरी मुद्रा’

शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीरसागर माना गया है। मनुष्य की व्यष्टि सत्ता और विश्व-ब्रह्मांड व्यापी समष्टि सत्ता का आदान-प्रदान ब्रह्मरंध्र मार्ग से होता है। यह मस्तिष्क का मध्य बिन्दु है, जीवसत्ता नाभिक है, यही सहस्रार कमल है। मस्तिष्कीय-मज्जारूपी क्षीरसागर में विराजमान विष्णुसत्ता के सान्निध्य और अनुग्रह का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा की साधना की जाती है। ध्यानमुद्रा में शान्तचित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सहलाने जैसे मन्द-मन्द स्पंदन किये जाते है। इस उत्तेजना से सहस्र दल कमल की प्रसुप्त स्थिति जाग्रति में बदलती है। बन्द छिद्र खुलते है और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वाग्र भाग के माध्यम से अन्तःचेतना को अनुभव होता है यही खेचरी मुद्रा है।

तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गयी है और जीभ के अगले भाग से उसे सहलाना-सोमपान, पयपान कहलाता है। इस क्रिया से आध्यात्मिक आनन्द की-उल्लास की अनुभूति होती है। यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृतकलश से प्राप्त अनुदान आत्मा को अमरता की अनुभूति देते है। इन तीनों मुद्राओं में से साधक अपनी स्थिति के अनुरूप अपनाकर उनसे मिलने वाले लाभों से सहज ही लाभान्वित हो सकते है।


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