उज्ज्वल-भविष्य की ओर बढ़ती मानव-जाति

February 1993

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विकास क्रम में आज मनुष्य उस पर परम लक्ष्य की ओर गतिशील है जिसका प्रतिपादन अध्यात्मवेत्ता वैदिक ऋषि-मनीषियों से लेकर महर्षि अरविन्द तक ने किया है। चेतनात्मक उत्कर्ष की यह महान क्रान्ति अध्यात्म क्षेत्र के माध्यम से ही सम्पन्न हो सकेगी, जिसका शुभारंभ हो चुका है। जो धर्म, आचार, साधना, संस्कृति, शिक्षा कभी कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमाबद्ध थी, उसका द्वार अब उसके लिए खोल दिया गया है। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-जगत में इसकी व्यापकता को विवेकवान सहज ही अनुभव करते हैं। अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न दिव्यदर्शियों से लेकर मूर्धन्य चिन्तक, मनीषी, वैज्ञानिक तक सारी मानवजाति का भविष्य उज्ज्वल होने की बात पर जोर देते हुए अब चिन्तन चेतना में आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते हैं।

इस संदर्भ में कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध मानव-विज्ञान डॉ. ऐषले मोन्टेगू ने गहनतापूर्वक अध्ययन किया है। मैन इन प्रोसेस नामक अपनी कृति के द फ्यूचर ऑफ मैन नामक अध्याय में उनने लिखा है कि मनुष्य का भविष्य उज्ज्वल है। निरन्तर प्रगतिशील रहते हुए वह देवत्व की ओर अग्रसर है। वर्तमान की स्थिति, परिस्थिति एवं विचारणाओं के अनुरूप ही भविष्य का निर्माण होता है। इस अवस्था को उनने कल्चर के नाम से सम्बोधित किया है और कहा है कि पिछले सौ वर्षों की स्थिति का अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की गति-प्रगति एवं मानवी चिंतन-चेतन में विशेष परिवर्तन हुआ है।

उनके मतानुसार संसार में दो प्रकार की विचारधाराओं वाले लोग पाये जाते हैं-एक-आशावादी और दूसरे निराशावादी। आशावादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति अपने उज्ज्वल भविष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान को सब प्रकार से सुखी-समुन्नत बनाने के प्रयास में निरंतर जुटे रहते हैं जबकि निराशावादी व्यक्तियों के जीवन में अनिश्चितता का वातावरण ही बना रहता है। इसलिए वे भविष्य के संबंध में किसी भी प्रकार का शुभ चिन्तन नहीं कर पाते। मनःस्थिति के अनुरूप ही परिस्थितियों का निर्माण होता तथा भविष्य की रूपरेखा तैयार होती है। इस संबन्ध में उन्होंने दो बातों का उल्लेख प्रमुख रूप से किया है। पहली यह कि इस संसार में भली-बुरी दोनों ही प्रकार की परिस्थितियाँ क्रियाशील पायी जाती हैं, जिनके गतिक्रम को रोका नहीं जा सकता, किन्तु भविष्य को प्रकाशमय देखने वाले उनके साथ अपनी मनःस्थिति का तालमेल बिठाने की क्षमता रखते हैं, और अनिष्टकारक संभावनाओं को टाल सकने की भी।

दूसरी अतिमहत्वपूर्ण बात इस संबंध में यह है कि अपनी सुखद संभावनाओं पर विचार करने और तदनुरूप आचरण करने वाले सदैव अपनी ईमानदारी का कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हुए अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करते हैं। साथ ही साथ संभावनाओं को साकार करने में उसी स्तर का प्रयत्न-पुरुषार्थ भी नियोजित करते हैं। अधिसंख्य जनसमुदाय आज इसी स्तर की अपनी मानसिकता बनाता जा रहा है जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मानवजाति का भविष्य सब प्रकार से सुन्दर और सुखद है।

स्मरण रखा जाने योग्य तथ्य यह है, कि मनुष्य का मूलभूत उद्देश्य देवत्व को प्राप्त करना है, जिसके लिए वह अनादिकाल से ही प्रयत्नशील है। यद्यपि इस उच्चस्तरीय उद्देश्य की उपलब्धि स्वल्पकाल में होती दिखायी नहीं देता अनवरत रूप से चेतनात्मक विकास की ओर उन्मुख है। भविष्य में सुखद संभावनाओं के न रहने पर तो जीवन में नीरसता और निष्क्रियता ही छा जाती है। अभिरुचि और उत्साह ठंडा पड़ जाता है। आशावादिता ही है जो असंभव को भी संभव बनाती और विभीषिकाओं के घटाटोप को भी विदीर्ण करने की क्षमता रखती है। मानव की मानसिकता चेतना अब विकास के एक ऐसे मोड़ पर आ गयी है जहाँ से उसे छलाँग लगाकर उच्चस्तरीय आयाम में प्रवेश करना है। विविध प्रकार के सामाजिक आर्थिक राजनीतिक, धार्मिक मतभेदों को सुलझाने का समय अब आ ही गया है। यह कार्य पारस्परिक विचार-विनिमय और साधनात्मक उपचारों से सहज ही पूरा किया जा सकता है। विश्व विख्यात दार्शनिक-प्लेटो इस तथ्य की पुष्टि बहुत पहले ही कर चुके हैं कि मानव सभ्यता की शक्ति इतनी प्रचण्ड है कि सैन्य बल तक को उसके समक्ष पराजित होना पड़ता है। आज लोगों की सांस्कृतिक चेतना जगी है और सभ्यता का विकास हुआ है।

डॉ. मोन्टेगू का कहना है कि सृष्टि के समस्त प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपनी बुद्धि कस समुचित उपयोग करके संसार की परिस्थितियों को सुखद बना कसने की क्षमता रखता है। उसकी गणना भौतिक विकासवादियों के सहज-प्रवृत्ति के जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों में नहीं की जा सकती। मानव जिज्ञासु है। उसकी सीखने की क्षमता उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली जा रही है। उनने सीखने की इस प्रबल आकाँक्षा को दो वर्गों में विभक्त किया है। प्रथम है साउण्डथिंक्स दूसरी अनसाउण्ड थिंक्स। इसका अभिप्राय भौतिक और आत्मिक क्षेत्र से है। दोनों ही क्षेत्रों में मनुष्य समान रूप से प्रगति कर सकता है। समन्वय का मार्ग अपनाकर ही उज्ज्वल भविष्य की सही सार्थक आधारशिला रखी जाती है।

उनके अनुसार मनुष्य को होमोसेपियंस की वंशावली में कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। इस तरह का सम्मिश्रण कर देने से तो साउड और अनासाण्ड के मध्य एक प्रकार की विसंगति खड़ी हो जायेगी। अब जब कि वैज्ञानिक मनीषियों ने मानवी मस्तिष्क की विलक्षण विद्युतीय क्षमता के आधार पर इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि मनुष्य के व्यवहार में उचित-अनुचित, भली-बुरी बातों को समझ सकने की विवेकपूर्ण सामर्थ्य विद्यमान रहती है, इसके विपरीत अन्य जीवधारियों में इसका सर्वथा अभाव रहता है। तब डार्विन एवं लाइनेयस जैसे विकासवादी वैज्ञानिकों का यह कहना गलत सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य होमोसेपियंस जैसे नर-वानर का सुधरा हुआ रूप है। वस्तुतः मनुष्य ही एक मा. प्राणी है जिसमें सोचने, समझने, भविष्य में झाँकने और तदनुरूप योजनायें बनाने तथा उन्हें कार्यान्वित करने की क्षमता है। इसलिए वह अपने भावी-जीवन को सुखमय बनाने की योजनाओं में सदैव सफल भी होता आया है। विश्व-विख्यात विचारक लार्डबेकन ने कहा है कि मनुष्य गलतियाँ करते हुए भी न केवल उन्हें सँभालने-सुधारने की असीम सामर्थ्य से युक्त है, वरन् वह अपने अन्तराल को विकसित करता हुआ देवत्व के मार्ग पर सतत् अग्रसर है। अपनी इसी विशिष्टता के कारण वह समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ है।

भारतीय संस्कृति में मनुष्य के विकासक्रम में शिक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण विद्या को माना गया है। यही एक ऐसा उपाय-उपचार है जिसके सहारे मनुष्य अपने कुसंस्कारों, पशु-प्रवृत्तियों को ग्रहण करने में सफल होता है। इसका मूलभूत उद्देश्य ही यह होता है कि मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत परिमार्जित कर सच्चे अर्थों में मनुष्य बने, मानवी मर्यादाओं के अनुरूप स्वयं को ढाले। डॉ. मोन्टेगू ने इसे हूमेन डिसिप्लिन के नाम से सम्बोधित किया है। उनका कहना है कि मानवी-विकास में मनुष्य का स्वयं का पुरुषार्थ तो है ही, ईश्वरीय चेतना से सम्बन्धित होने के कारण उसे इस क्रम में दैवी सहायता भी निरन्तर मिलती रहती है।

इन दिनों तो सूक्ष्म वातावरण में विशेष प्रकार की हलचलें आरंभ हो गयी हैं, विशिष्ट प्रकार की ध्वनियाँ गुँजायमान हो उठी हैं, जिन्हें वे सुपरसोनिक लेयर्स ऑफ द एटमोस्फियर कहते हैं। इस पराध्वनि स्तर के सुविकसित होने से मनुष्य का बौद्धिक स्तर भी प्रभावित हुआ है। विधेयात्मक दिशाधारा मिली है और तदनुरूप ही प्रयत्न-पुरुषार्थ का वातावरण भी विनिर्मित होता चला जा रहा है। जिसे देखकर यह सुनिश्चित माना जाना चाहिए कि मनुष्य का भविष्य उज्ज्वल है और वह दिव्यता की ओर बढ़ रहा है।


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