सूक्ष्म लोक से जुड़ी अलौकिक स्तर की सिद्धियाँ

February 1993

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पुरुलिया (बंगाल) स्थित आश्रम में स्वामी विशुद्धानन्द एक दिन जिज्ञासुओं को सूर्य विज्ञान का रहस्य समझा रहे थे कि इस विद्या के माध्यम से किसी भी वस्तु का निर्माण संभव है। सभी मंत्रमुग्ध हो उन्हें सुन रहे थे, तभी अचानक न जाने वे कहाँ गायब हो गये। उपस्थित श्रद्धालु शिष्य अचकचाये। कहीं यह उनका भ्रम तो नहीं! सभी ने बार-बार आँखें मलीं, पर हर बार आसन खाली मिली। सब एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। अब उन्हें निश्चय हो चुका था कि भ्रान्ति किसी एक को हो सकती है, एक साथ सभी को नहीं। सचमुच परमहंस विशुद्धानन्द अंतर्धान हो गये थे। अभ्यागत बड़ी बेचैनी से उसका इन्तजार करने लगें। करीब एक घंटे बाद वे पुनः अपने आसन पर जिस आकस्मिक ढंग से अदृश्य हुए थे, वैसे ही प्रकट हो गये। उनके पुनरागमन से सभी प्रसन्न थे। उनने आते ही बताया कि सुदूर तिब्बत के दुर्गम हिमालय स्थित आश्रम ज्ञानगंज से अचानक एक अनिवार्य संदेश आ गया था, इसलिए उन्हें बिना बताये इस प्रकार जाना पड़ा।

यहाँ चर्चा किसी योगी विशेष की नहीं, वरन् उस विद्या की, की जा रही है, जो अक्सर सिद्ध-संतों के साथ जुड़ी होती है और उल्लेख का विषय बनती है कि अमुक में दृश्य-अदृश्य की अद्भुत सामर्थ्य है। यों योगी-यती आये दिन अपना यह दावा प्रस्तुत करते रहे हैं कि योग-विज्ञान में असंभव जैसा कोई शब्द है नहीं, पर पदार्थ विज्ञान बार-बार उनके दावों को अपनी कसौटी में कसता और असफल होने पर झुठलाने का प्रयास करता है। यह भौतिक विज्ञान का अपना तरीका है, किन्तु सामान्य लोगों और साधारण बुद्धि वालों के लिए असमंजस यह उठ खड़ा होता है कि वह सच या झूठ किसे मानें? दोनों ही स्तर के दो पृथक विज्ञान हैं, फिर उन पर उठायी जाय? उन्हें झूठा एवं अप्रामाणिक किस प्रकार ठहराया जाय? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए बीच का कोई तीसरा रास्ता अपनाना ही श्रेयस्कर होगा, जिससे योग विज्ञान की असीमता और पदार्थ विज्ञान की ससीमता भलीभाँति साबित की जा सके और यह बताया जा सके कि ससीम पदार्थ असीम-अभौतिक अस्तित्व को किसी कदर सिद्ध नहीं कर सकता। यह बात समझ में आ जाये, तो समस्या का सरल हल संभव है।

पदार्थ विज्ञान की अपनी सीमा है। इसके अंतर्गत वह अपनी दृष्टि से जो कुछ देखता है, उतने भर को सही मान लेता है। मानना भी चाहिए। जो प्रत्यक्ष दृश्यमान है, उस पर अविश्वास कैसे किया जाय। योग-विज्ञान, पदार्थ-विज्ञान के उपरान्त आरंभ होता है और उससे आगे की दृष्टि रखता है। वह दूरदर्शी और अधिक व्यापक क्षमता वाला है। इसे दूसरे प्रकार से यों भी साधारण माइक्रोस्कोप से उपलब्ध जानकारी गलत नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसने अपनी क्षमता और परिधि के हिसाब से सच्ची जानकारी दी है। इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की क्षमता उससे भी विस्तृत और सूक्ष्म है, अतएव वह और गहराई में उतर का आगे के तथ्य के बारे में बताता है। यदि दोनों के बीच इस मूलभूत अन्तर को न समझा गया होता, जो आज जीव-विज्ञान की नींव ही हिल गई होती और परस्पर इतना बड़ा विग्रह उठ खड़ा होता, जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई हरे रंग का चश्मा पहन कर संसार को हरा देखता है, तो सिद्धान्त रूप में वह सही है, क्योंकि हरे रंग के काँच से लाल व विश्व हरा ही दीखेगा, लाल रंग के काँच से लाल व श्वेत रंग से सफेद। इतने पर भी सच्चाई यह है कि वसुधा न हरी है, न लाल, न श्वेत। यह सब कुछ क्षमता योग्यता एवं रंग आदि पर निर्भर है।

योग विज्ञान अभिव्यक्त संसार के मूल में अव्यक्त चेतना को प्रमुख मानता है और कहता है यह सब कुछ उसी का खेल है। अभेदानन्द एक स्थान पर लिखा है कि प्रत्येक कल्प के अन्त में प्रत्यक्ष-जगत में अन्तर्हित हो जाता है और पुनः कल्प के आरम्भ में उससे स्थल अभिव्यक्ति होती है। के प्रश्न ऋग्वेद संहिता (दशम मंडल) में किये गये हैं, यथा-

नासदासीन्नी सदासीतदानीम एवं मत आसीत प्रकेतम आदि, अर्थात् जब अस्ति और नास्ति कुछ भी न था, जब तम से तम अवगत था, तब क्या था? उत्तर आगे देते हुए कहा गया है कि यह आकाश ही गतिशून्य होकर अवस्थित था। अब प्रश्न उठता है कि यह आकाश तत्व हैं क्या? इसका कि बोलचाल की भाषा में इसे सर्वव्यापी चेतना तत्व समझा जा सकता है। इस प्रकार यह लगभग प्रमाणित हो गया कि जड़ पदार्थों की पृष्ठभूमि में चेतना ही कार्य करती है, वही इस संसार की सर्वोपरि नियामक सत्ता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि चेतना निमित्त कारण है और जड़ जगत उसका उपादान कारण।

रेडियेस्थैसिया उपचार पद्धति वाले इसे भलीभाँति जानते हैं कि स्थूल सत्ता के पीछे सूक्ष्म कारण का कितना बड़ा हाथ होता है। उक्त चिकित्सा पद्धति का मूलभूत आधार ही प्राण-चेतना है-प्राण चेतना, जिसे ओरा आभामंडल जैसे कई नामों से जाना जाता है। जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है, तो इसके निष्णात सर्वप्रथम यह जानने का प्रयास करते हैं कि रोगी का कौन-सा अंग अपने विशिष्ट रंग वाला प्रभामंडल खो चुका है और उसके स्थान पर ग्रहण किये हुए आभामंडल का वर्ण क्या है? इतना जान लेने के उपरान्त वे विशेष प्रकार की रत्न-राशि से अवयव पर उसके मौलिक वर्ण वाली किरणों की बौछार शुरू करते हैं। इससे धीरे-धीरे रुग्ण भाग अपने परिवर्तित ओरा-रंग का मूल वर्ण प्राप्त कर लेता है, जिससे व्याधिग्रस्त हिस्सा सही और व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है। उल्लेखनीय है कि इस उपचार-प्रणाली द्वारा व्याधि के स्थूल अभिव्यक्ति के काफी समय पूर्व ही व्यक्ति को अस्वस्थता की भविष्यवाणी आभामंडल के रंग में आये बदलाव के आधार पर की जा सकती है। इस प्रकार यह भी यही सिद्ध करता है कि स्थूल का प्रमुख आधार सूक्ष्म चेतना ही है।

महत चेतना का एक अंश हममें से प्रत्येक में विद्यमान है। इसी से हमारा सारा क्रिया-व्यापार चलता है। जिस दिन इसका स्पन्दन रुक जाता है, उसी दिन प्राण-चेतना शरीर छोड़ कर महाप्राण में समाहित हो जाती है। यही मृत्यु है, अर्थात् प्राण के न रहने पर यह शरीर निष्क्रिय और निर्जीव हो जाता है। इतना ही नहीं थोड़े ही दिनों में सड़ने-गलने भी लगता है, जबकि प्राण की विद्यमानता अपनी पुस्तक राजयोग में प्रकट किया है। वे लिखते हैं कि जो व्यक्ति अपने प्राण के कम्पन को जिता बढ़ा लेता है, वह उतनी ही ऊंची भूमिका में पहुँच जाता है, किन्तु इसके साथ सत्य यह भी है कि वह निम्न भूमिका वाले लोगों के लिए अगोचर स्तर का हो जाता है। वे कहते है कि समान प्राण-कम्पन वाले व्यक्ति ही दूसरे पदार्थ-प्राणी को देख सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के लिए इस दुनिया में जो कुछ दृश्य है, उन सब की प्राण-आवृत्ति एक समान है। यही कारण है कि सूक्ष्म शरीरधारी महापुरुष किसी को दर्शन देते हैं, तो वे मात्र कृपापात्र पर इतना अनुग्रह करते हैं कि उसकी प्राण की आवृत्ति को बढ़ा कर अति उच्च और अपने समान कर देते हैं, जिससे वह उसके लिए स्थूल एवं दृश्य बन जाते हैं, जबकि वहीं उपस्थित दूसरे लोगों के लिए वे सूक्ष्म स्तर के अगोचर बने रहते हैं। महापुरुषों के अचानक प्रकट-अप्रकट होने के पीछे यही मोटा सिद्धान्त है।

सिद्ध-महात्माओं के इतिहास में इस प्रकार के अगणित प्रसंग पाये जाते हैं, जिसमें देखते-देखते उनके विलुप्त होने का उल्लेख मिलता है। बंगाल के रामप्रसाद, डॉ. दुर्गाचरण, प्रभू जगतबन्धु, नन्दकिशोर मुखोपाध्याय, हरनाथ ठाकुर आदि ऐसे ही योगी थे। कश्मीर की विख्यात योगिनी लल्लेश्वरी के बारे में भी ऐसा ही सुना जाता है। कहा जाता है कि वह कश्मीर शहर की गलियों में पागलों की भाँति एकदम निर्वसना घूमा करती थी। एकबार ऐसे ही एक अवसर पर उनकी भेंट प्रसिद्ध सूफी सन्त शाह हमदान से हो गई। वह उन्हें देखते ही पुरुष-पुरुष चिल्लाती हुई भागी और सामने की दुकान में धधकती हुई बनिये की भट्टी में कूद पड़ी। बाद में शाह साहब के बहुत अनुनय-विनय करने के उपरान्त वह भव्य वस्त्राभूषण में सुसज्जित सामने प्रकट हो गई। बनिये ने सोचा था कि वह जल कर भस्म हो गई होगी, किन्तु सुरक्षित पुनः सामने उपस्थित पाकर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

गजीपुर जिले के देवल ग्राम के बाबा दूधनराम औघड़ के संबंध में भी कुछ ऐसा ही प्रसिद्ध है। सुना जाता है कि एक बार वे घोड़े पर सवार होकर कहीं जा रहे थे, तो रास्ते में एक महात्मा ने उन्हें टोक दिया कि तुम साधु होकर घोड़े पर चढ़ते हो। अचानक दूधन बाबा घोड़े से उतर पड़े और कीर्तन करने लगे। घोड़ा देखते-देखते अदृश्य हो गया। कई बार तो वे स्वयं भी इस प्रकार अचानक विलुप्त होकर सामने वालों को सकते में डाल देते थे।

श्री नागा निरंकारी के बारे में कथा है कि एकबार वे हरिद्वार में गंगा में कूद कर अदृश्य हो गये थे। लोगों ने समझा कि जल-समाधि पाली (कानपुर) में पुनः दिखाई पड़े। इसी के बाद उनकी अलौकिक शक्ति का पता लोगों को ज्ञात हुआ।

इसे तो अब विज्ञान भी स्वीकारने लगा है कि कम्पन हमारी इन्द्रिय क्षमता को काफी हद तक प्रभावित करता है और इस वसुँधरा में जो कुछ दृश्य-श्रव्य है, वह सब इसी की परिणति है। हमारे कान उन्हीं शब्दों को सुन पाते हैं, जो 20-20 हज़ार हर्ट्ज के श्रवण सीमार्न्तगत आते हैं। इससे कम या अधिक आवृत्ति वाली ध्वनियों को सुनने में वे अक्षम होते हैं। यद्यपि दूसरे ऐसे कितने ही जन्तु हैं, जो इन ध्वनियों को सुनने-समझने की क्षमता रखते हैं। कुत्ता, चमगादड़ हाथी जैसे प्राणी उच्च आवृत्ति वाली सूक्ष्म आवाज को भी सरलतापूर्वक पकड़ लेते हैं। इसी प्रकार निम्न आवृत्ति वाली ध्वनियों को सुनने में कुछ जन्तु समर्थ होते हैं। ऐसे ही रंग और प्रकाश को पहचानने व देखने की भी हर प्राणी की अपनी पृथक सीमा है। मनुष्य की आँखें बैनीआहपीनाला के अंतर्गत आने वाली सप्तवर्णी किरणें को ही देख सकती हैं, क्योंकि उनकी बारंबारता मानव-दृष्टि की बारम्बारता से ठीक-ठीक मेल खाती है। इससे अधिक आवुत्ति (7.5 गुणे10 15 ऊपर ी्र) वाली पराबैगनी किरणों को देखने में वह असमर्थ होती हैं। इसी प्रकार दृष्टि-सीमा से कम बारम्बारता (4.28 गुणे10 13 ऊपर ी्र) वाली अवरक्त किरणों को वह पहचान नहीं पाती। ऐसी दशा में सूक्ष्मदर्शी अथवा दूरबीन प्रभृति यंत्र वही कार्य सम्पन्न करते हैं, जो सिद्ध स्तर के व्यक्ति, अर्थात् ये उपकरण प्राण-कम्पन को बढ़ा कर उस हद तक पहुँचा देते हैं, जिसमें अदृश्य, दृश्य बन जाता है, एवं अलौकिक, लौकिक जैसा लगने लगता है।

इस सिद्धान्त की सत्यता का परीक्षण दैनिक जीवन में काम आने वाले बिजली के बिजली के पंखे से भी न्यूनाधिक परिमाण में किया जा सकता है। पंखे को जब एक नम्बर पर चलाया जाता है, तो उसकी सारी पंखुड़ियाँ अलग-अलग स्पष्ट भासती हैं, किन्तु जैसे-जैसे उसकी गति बढ़ायी जाती है, डैन का विलगाव और बीच की दूरी समाप्त होने लगती है। पाँच नम्बर पर पहुँचते-पहुँचते सभी पंखुड़ियाँ मिल कर एक हो जाती हैं और आँख को यह धोखा होने लगता है िकवे तीन नहीं, एक हैं। उसकी गति और बढ़ायी जाय तो एक ऐसी स्थिति पैदा हो जायेगी, जिसमें उसका दिखाई पड़ना ही बन्द हो जायेगा और पंखा स्थूल रूप से विद्यमान होते हुए भी अप्रकट स्तर का बना रहेगा।

इतना सब जान-समझ लेने के पश्चात योगियों एवं सिद्ध संतों द्वारा तिरोधान व प्रकटन की घटना को अविश्वसनीय स्तर का अचंभा नहीं माना जाना चाहिए, वरन् उसे एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया, जो हर किसी के लिए संभव है पर इसके पूर्व प्राण संबंधी नियमन-नियंत्रण आवश्यक है। जो शुद्ध जीवन एवं सरल आचरण द्वारा इसे सम्पन्न कर सकें, उनके लिए दृश्य-अदृश्य होने की शक्ति उपलब्ध कर लेना कोई कठिन कार्य नहीं, वरन् उतना ही आसान है, जितना गोताखोरों के लिए जल में बिना किसी कठिनाई के विचरण।


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