सही साधनों का अनुसंधान

February 1993

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“आपकी साधना, आपका तत्व ज्ञान, आपका ब्रह्मवर्चस् विश्व के कल्याण के लिए है भगवान! पर यह काँ सम्भव है कि आप सुदूर प्रान्तों का निरंतर परिव्राजक करते रहे और लोगों की ज्ञान-पिपासा को तृप्त करें। गुरुकुल की स्थापना करनी ही होगी देव! उसके बिना भावी पीढ़ी का आध्यात्मिक प्रशिक्षण किस प्रकार बन पड़ेगा? आप ही तो कहते है, कि धर्म तत्व का प्रशिक्षण और प्रसार किए बिना लोक जीवन का चारित्रिक, बौद्धिक, सामाजिक और आत्मिक विकास नहीं हो पाता।”

“सो तो यथार्थ है तात! “ महर्षि कणाद ने शिष्य धौम्यपाद के कथन का समाधान करते हुए कहा-”वत्स! जिस राष्ट्र के नागरिकों को शिक्षा के साथ दीक्षा नहीं मिलती वहाँ लोगों की बौद्धिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी क्षमताएँ कुण्ठित हो जाती है। इसलिए विद्यालय का निर्माण आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं पर गुरुकुल चलते है जिन पर, ऐसे साधन कहाँ से उपलब्ध होंगे?”

“आप उनकी चिंता न करें देव! मुझे आदेश दें, साधनों का अनुसंधान मैं करूंगा। आवश्यकता हुई तो इस पुनीत उद्देश्य के लिए भीख भी मांगूंगा। वन के पक्षी अपना आहार जुटा लेते है। वणिक नौकाओं में धान्य लादकर समुद्र की विस्तृत सीमाएँ लाँघ जाते है और द्रव्यार्जन कर लाते है। बादल बरसने की इच्छा करते है तो उन्हें समुद्र से जल मिल जाता है। देव नदी गंगा ने जब लोक-कल्याण के लिए अपनी धर्म यात्रा आरम्भ की तब उन्हें भी ऐसी ही चिन्ता हुई थी, पर क्या हिमालय का अंचल इतना संकीर्ण था कि वह गंगा माता को वर्ष भर निरन्तर प्रवाहित होने के लिए जल न दे पाता? भगवान! मुझे विश्वास है सदुद्देश्यों के लिए साधनों का कभी अभाव नहीं होता।” धौम्य एक बार फिर अपना विनम्र निवेदन दुहराया।

“तुम्हारा संकल्प पूर्ण हो वत्स! जाओ मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम गुरुकुल की स्थापना के लिए साधनों की खोज करो।” महर्षि कणाद ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया। ऐसा लगता था उनकी मुस्कुराहट में कुछ गहरा रहस्य छुपा है।

धौम्य चल पड़े। सम्पूर्ण राष्ट्र के नाम एक परिपत्र वितरित कर उन्होंने प्रजा से सहयोग की याचना की। उस समय महर्षि कणाद की तपश्चर्या का प्रभाव शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति दिव्य और निष्कलंक चमक रहा था। परिपत्र को पढ़कर जन-जीवन में उल्लास आ गया। तपस्वी, वैज्ञानिक, महर्षि की संवा में धन-वैभव का कुछ अंश लग सके यह प्रत्येक के लिए सौभाग्य की बात थी। जिसके पास जो कुछ था-खुशी-खुशी देने लगे। देखते-देखते धन-धान्य, रत्न, सोने, चाँदी वस्त्राभूषणों के ढेर लग गए। किसी ने भवन निर्माण का उत्तरदायित्व ले लिया, किसी ने छात्रों की भोजन व्यवस्था का। एक वर्ष के भीतर ही साधनों का अम्बार लग गया। धौम्यपाद सगर्व गुरुदेव के पास पहुँचे और उन्हें प्राप्त किए साधनों की तालिका भेंट की।

तालिका के अंकित अक्षरों को पढ़ते गए ऋषि कणाद, उतनी ही उनकी मुख मुद्रा गम्भीर होती गई।

भाग्य के संबंध में सुनिश्चित बात एक ही है, कि वह मनुष्य के प्रयासों के अनुरूप बदलता रहता है।

उन्होंने कहा-”तुम्हारा उत्साह सार्थक हो धौम्य, गुरुकुल की स्थापना का काम प्रारम्भ कर दी। विद्यार्थियों के प्रवेश का प्रबन्ध अविलम्ब अविलम्ब किया जाय। पर इससे पहले यह एकत्रित धन-सामग्री जहाँ से आयी है, यथावत उसे अविलम्ब वापस कर दिया जाय। जिन साधनों की आवश्यकता थी वे अभी तक नहीं मिले, अभी उनकी खोज करनी होगी।” महर्षि का प्रतिवाद करने की हिम्मत धौम्य में थी ही कहाँ? उन्होंने आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। जहाँ से धन आया था, वापस लौटा दिया गया।

ऋषि कणाद ने उसी दिन मौन व्रत ले लिया। वाणी के प्रसुप्त होते ही स्वप्न जाल की भाँति उनकी क्रिया-शीलता जाग पड़ी। महर्षि प्रतिदिन सूर्योदय होते ही जंगल में प्रवेश कर जाते और दिन भर लकड़ियाँ काटते रहते। एक महीने में इतना लकड़ियाँ इकट्ठी हो गई जिनसे छात्रों के आवास का प्रबन्ध किया जा सके। अगले महीने घास और फूस की उतनी ही मात्रा काटी कणाद ने, जिससे पर्णकुटीरों में छाया का यथेष्ट प्रबन्ध हो जाता। अगले मास महर्षि ने सघन वृक्षारोपण का कार्य प्रारम्भ किया। कुछ ही समय में पौधे बढ़ते दिखाई देने लगे। चारों ओर हरियाली छा गई। इसी बीच उन्होंने पर्णकुटीर तैयार किये। निजी आश्रम, शिक्षकों के निवास, छात्रावास और पाठन कक्ष के निर्माण में ऋषि ने अपने स्वेद कणों की एक-एक बूँद उत्सर्ग कर दी। तब कहीं जाकर गुरुकुल की स्थापत्य आवश्यकताएँ पूरी हो पायी।

इस बीच भी उन्होंने अपनी आवश्यकता खेतों से बीने हुए दानों से ही पूर्ण की। महर्षि के इस कठोर श्रम को देखकर देश का जन-जन रोमाँचित हो उठा। हरेक की श्रद्धा महर्षि का चरण चूमने के लिए मचल उठी। लोगों ने अपने बालकों को भेजना आरम्भ कर दिया और इस प्रकार गुरुकुल की स्थापना हो गई। उसका प्रथम सत्र शुरू हो गया।

विद्यार्थियों की संख्या पर्याप्त हो गई। सामान्य किसानों के बच्चों से लेकर महात्माओं और महाराजाओं तक के बच्चों ने प्रवेश लिया। जन-जन को विश्वास था महर्षि कणाद की तपश्चर्या और ब्रह्मनिष्ठा पर। इसलिए जिसके भी लड़के विद्यालय में प्रविष्ट हुए, उन्होंने अपना अहोभाग्य समझा। किन्तु महर्षि की अब तक कोई भी सहायक उपलब्ध नहीं हुआ था। धौम्यपाद उनके आश्रम की देख-रेख करते थे। पर छात्रों के विद्याध्ययन से लेकर उनकी सामान्य देख-रेख तक का सारा कार्य महर्षि को स्वयं ही देखना पड़ता था। प्रथम सत्र के समापन का समय समीप आ चुका था। अब तक उन्होंने एक दिन भी विश्राम नहीं किया था। आश्रम के अतिरिक्त वे समीपवर्ती गाँव भी न जा पाए थे। उनकी श्रम-शीलता, लगन और अध्यवसाय के साथ महान तप और त्याग वृत्ति की चर्चा सारे विश्व छा गई। वृद्ध होने पर भी अभी उनके शरीर में किसी प्रकार की थकावट के लक्षण परिलक्षित नहीं हो रहे थे।

वर्षा का आगमन निकट देखकर एक दिन उन्होंने विचार किया कि बरसात में जंगल का संपूर्ण काष्ठ गीला हो जाएगा। इसलिए समिधाओं के लिए सूखा ईंधन इकट्ठा कर लेना चाहिए। कुल्हाड़ी विराजमान थी और वे आहृद के साथ आगे बढ़ते हुए जा रहे थे। मौन शिष्य मंडल पीछे-पीछे चल रहा था। बादलों ने छाया कर दी थी। सूर्यदेव ने अपना हल्का कर लिया था, इसलिए मौसम और भी सुहावना हो रहा था। ऋषि ने शिष्यों के साथ सायंकाल तक लकड़ियाँ काटी। उनकी गौरवर्ण वृद्ध देह से झर रहे स्वेद बिंदु ऐसे दीख रहे थे जैसे हिम- शिखर से गंगा का फैलाव मन्दगति से उतर रही हो। उनकी मुखाकृति और भी उद्दीप्त हो उठी थी। एक-एक विद्यार्थी की वही स्थिति थी। अपने-अपने गट्ठर लिए सभी छात्रों ने जब आश्रम में प्रवेश किया तब ऐसा लग रहा था जैसे श्रम, संयम, स्वावलंबन और अध्यवसाय ने अनेकों भव्य रूप ले रखे हो धीरे-धीरे आश्रम की प्राचीरों में समाते चले जा रहे हो।

ईंधन समिधाएँ, सुरक्षित स्थानों पर पहुँचा कर जब सब विद्यार्थी संध्या वंदन के लिए बैठे, तब भी महर्षि देख रहे थे कि इन सब के भोजन की व्यवस्था हो गई है या नहीं? किसी पर्णकुटीर में छेद तो नहीं हो गए, कल के लिए समुचित खाद्यान्न जुटाया जा चुका है या नहीं?

बालक अपने-अपने कक्ष में पहुँच चुके थे। दीप-वृन्द जल उठे थे। शान्त वातावरण में स्वाध्याय करते छात्र ऐसे भले लग रहे थे-जैसे नक्षत्रों से फूटती दिव्य किरणों ने मूर्त स्वरूप धारण कर लिया हो और तब महर्षि कणाद ने स्नान कर साधना कक्ष में प्रवेश किया। किन्तु आज उनका शरीर इतना थक चुका था कि साधना प्रकोष्ठ की तीन सीढ़ियाँ उनसे चढ़ी न जा सकी। अन्तिम पैर बढ़ाते ही वह लड़खड़ा गए। उनकी कृश देह माँ गायत्री की प्रतिमा के सम्मुख जा गिरी। ऋषि अचेत हो गए।

धौम्य भागते हुए आये। जल के छींटे देकर उन्होंने गुरुदेव को सँभाला। अचेतना दूर हुई। ऋषि ने आंखें खोली। पूछा-”धौम्य! विद्यालय के लिए किन्हीं साधनों का अभाव का हो तो खोजना उसे पूरा करना। अब यह शरीर बहुत थक गया है।” उनकी चरण रज मस्तक पर लगाते हुए धौम्य ने उत्तर दिया- “गुरुदेव! आपने जिन साधनों की आवश्यकता अनुभव की मैंने उन्हें देर से समझा। पर यह समझ अब कभी धूमिल न पड़ेगी।” सुनकर महर्षि की आँखें ज्योतित हो उठीं, मुख मंडल पर सौम्य विश्वास की आभा फैल गई। उनके प्राण-प्राणों की अधिष्ठात्री-गायत्री में विलीन होने लगे।


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