छाया-पुरुष, महज दिवा स्वप्न नहीं, एक सत्य

February 1993

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यदि किसी को अपनी ही प्रतिमूर्ति सामने दीख पड़े, तो इसे क्या कहा जाय-भूत? भ्रम? या सत्य? भूत इसलिए नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति अपनी अनुकृति को अपनी ही आँखों से सामने देखता है, जबकि प्रेत मरणोत्तर जीवन की स्थिति है। भ्रान्ति की मान्यता इसलिए अमान्य हो जाती है कि यह किसी एक को तो हो सकती है, अनेक को नहीं और जब एक ही भ्रम अनेकों को होने लगे, तो फिर यह भ्रम नहीं हो सकता। इसे सत्य कहना चाहिए। तो क्या ऐसा सत्य सम्भव है? रहस्यवादी इसका उत्तर “हाँ” में देते हुए कहते हैं कि इसमें असंभव जैसा कुछ भी नहीं।

साधना विज्ञान में एक साधना “छाया-पुरुष” की बताई गई है। इसमें अपनी ही प्रतिकृति को दर्पण में देख-देख कर श्रद्धा और विश्वास के माध्यम से उसे इतना सशक्त और सबल बना लिया जाता है कि वह एक स्वतंत्र सत्ता की तरह काम करने लगती है। आरंभ में यह सत्ता निर्बल होती है और मात्र दर्शन-झाँकी जैसे कार्य ही सम्पन्न कर पाती है; किन्तु जैसे-जैसे व्यक्ति की संकल्प शक्ति बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे “छाया-पुरुष” की समर्थता भी बढ़ने लगती है। फिर स्वामिभक्त सेवक की तरह ऐसे कार्य करवाने में साधक उससे सफल हो जाता है, जो सामान्य स्तर के साधक के लिए संभव नहीं होता और सामान्य स्तर का व्यक्ति उसे सिद्ध योगी मानने लगता है, जबकि उसकी अपनी योग्यता मात्र इतनी भर होती है, कि उसने अपनी गहन आस्था का आरोपण कर उसमें स्वयं को अनुप्राणित कर लिया। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विभूति उसके अन्दर होती नहीं। यों कई विभूतिवान ऐसे भी होते हैं, जो अपनी प्रचण्ड तपश्चर्या द्वारा अपने आपे को एक से अनेक में विभाजित कर उन्हें इतना सामर्थ्यवान बना लेते हैं कि एक ही समय में कई-कई स्थानों पर भिन्न-भिन्न कार्य कर सकें; पर यह सब उच्चस्तर की तप साधना द्वारा ही संभव हो पाता है। इससे कम में इतना हो शक्य है, जितना “छाया-पुरुष” स्तर के साधक कर पाते हैं। यदा-कदा यही छाया-पुरुष वैसे लोगों के सम्मुख प्रकट हो जाते हैं, जो तप जैसे कोई क्रिया-कृत्य तो नहीं करते; पर जिनका अन्तराल तनिक शुद्ध और संकल्प सात्विक हो। ऐसे में अनेक बार ये महत्वपूर्ण सूचनाएँ दे जाते हैं, जो बाद में सही साबित होती हैं। ऐसी ही कुछ घटनाएँ पिछले दिनों घटित हुईं और सत्य भी सिद्ध हुईं।

प्रख्यात जर्मन कवि जोहानन उल्फगैंग वान गोएथ ने अपनी आत्मकथा में एक ऐसे ही प्रसंग का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि सन् 1771 की एक सुबह वह घोड़े पर सवार होकर एक सुनसान रोड पर डूजेनहीम (जर्मनी) की ओर चले जा रहे थे, तभी पीछे से एक अन्य घुड़सवार बड़ी द्रुतगति से आगे निकल गया। अभी वह कुछ सोच पाते कि सामने एक अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ा। उसी सड़क पर उनकी ओर आते हुए एक दूसरा घुड़सवार दिखाई पड़ा। वह घुड़सवार तो क्या था, बिल्कुल उनकी कार्बन कापी थी। अन्तर मात्र परिधान का था। उसने स्वर्णिम आभा लिए भूरे रंग की पोशाक पहन रखी थी। गोएथ ने ऐसी पोशाक अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखी थी; पर वह सबसे अधिक आश्चर्यचकित उसके पहनावे पर नहीं, उस शक्ल पर हो रहे थे जो उनकी अपनी थी। वे अभी इसी असमंजस में थे कि यह दूसरा गोएथ कहाँ से कैसे आ गया? इतने में ही वह देखते हैं कि सामने वाला गोएथ उन्हें हाथ हिला रहा है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार विदाई के समय हाथ लहरा कर व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति शुभकामना और खुशियां व्यक्त करते हैं। कुछ ही पल में दृश्य तिरोहित हो गया। गोएथ उलझन में पड़ गये कि जो कुछ उनने देखा, वह आँखों का भ्रम तो नहीं था? पर मन इसे भ्रम मानने को तैयार नहीं हो रहा था। केवल दृश्य को झलक-झाँकी भर होती, तो कुछ हद तक उसे भ्रान्ति मानी जा सकती थी; पर उस नकली गोएथ का मुस्कराना, हाथ हिलाना और विचित्र लिवास-इन्हें भ्रम कैसे माना जाय? आँखें सब कुछ साफ-साफ सामने देख रही थीं, फिर किस प्रकार इसे झुठलाया जाय? बुद्धि कुछ काम नहीं कर रही थी। कुछ दिनों तक गोएथ को यह घटना परेशान किये रही। फिर वह सब कुछ भूल गये। इस बीच आठ वर्ष का लम्बा अन्तराल बीत गया। एक दिन गोएथ बड़े विस्मय में पड़ गये; क्योंकि वह एकदम वैसे ही लिवास में उक्त रोड से घोड़े पर सवार होकर गुजर रहे थे। तब उन्हें आठ वर्ष पूर्व की वह घटना याद आयी, जिसमें उनने स्वयं को ही सुनहले भूरे वस्त्रों में सुसज्जित देखा था। गुत्थी अब सुलझ चुकी थी। उन्हें उक्त घटना का पूर्वाभास हुआ था। सूचना उनके ही छाया-पुरुष ने वैसे ही वस्त्राभूषण में स्वयं को अलंकृत कर दी थी। यह घटना तो महज छाया-पुरुष के अस्तित्व की बानगी देती है।

सत्रहवीं शताब्दी के मूर्धन्य मनीषी जॉन ओब्रे ने एक पुस्तक लिखी है-”ब्रीफ लाइव्स”। इस रचना में उन्होंने ऐसे अनेक उद्धरणों की चर्चा की है, जिसमें व्यक्ति को अपनी ही अनुकृति से आमना–सामना हुआ हो। एक घटना तत्कालीन प्रख्यात ज्योतिषी सर रिचर्ड नेपियर से संबद्ध है। एक बार नेपियर को उनका कमरा दिखाने दरवान उन्हें इमारत की ऊपरी मंजिल में स्थित उनके कमरे तक पहुँचाने गया। कमरे में प्रवेश कर नेपियर ने जब बिस्तर की ओर देखा, तो वह यह देख कर चौंक गया कि उसमें एक शव पड़ा है। उसने आक्रोश प्रकट करते हुए दरवान से इसकी शिकायत की, तो दरवान ने बिस्तर को जाँचते-परखते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि यहाँ तो कोई मृतक नहीं पड़ा है। बिस्तर तो सर्वथा खाली है। नेपियर ने एकबार फिर बिस्तर पर दृष्टि डाली। उसे पुनः पूर्ववत दृश्य दिखाई पड़ा। इस बार उसने तनिक निकटता और सूक्ष्मता से अवलोकन किया, तो ज्ञात हुआ कि यह तो उसका ही शव है। बिछावन में उसका अपना ही शरीर चेतनाहीन स्थिति में पड़ा था। कुछ क्षण तक अपनी उपस्थिति का भान कराने के उपरान्त दृश्य गायब हो गया। नेपियर ने यही समझा कि यह उसका दृष्टि भ्रम था। यह तो ओब्रे की कृति से ही ज्ञात हो सका कि वह उसका दृष्टि भ्रम नहीं, वरन् पूर्वाभास था। ओब्रे ने लिखा है कि इस घटना के कुछ ही माह उपरान्त नेपियर की मृत्यु उसी कमरे में उसी स्थिति में सोते-सोते हुई, जिस दशा में उसने स्वयं अपनी लाश देखी थी।

जॉन बास्को ने अपनी कृति “स्ट्रेंज एनकाउंर्ण्टस” में ऐसी कई घटनाओं का वर्णन किया है, जब व्यक्ति को अपने ही ‘ब्लू प्रिन्ट’ से सामना हो गया हो। 1929 के रोमन पादरी सन्त आर्थर बर्जर का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि एक दोपहर जब वे एक हल्की झपकी के पश्चात् जगे, तो उन्हें एक दिव्य दर्शन हुआ। उन्होंने सामने ही एक आभावान, कुहरे जैसी हूबहू अपनी ही अनुकृति देखी। अनुकृति की निगाहें आर्थर बर्जर पर टिकी थीं। चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी और आँखों में एक विचित्र चमक थी। दोनों एक दूसरे को पाँच सेकेण्ड तक निहारते रहे, फिर अचानक बर्जर की प्रतिमूर्ति आँखों से ओझल हो गई।

एक ग्रीक प्रोफेसर पेड्रो केरोलिनो की चर्चा करते हुए बास्को अपने ग्रन्थ में लिखते हैं कि एक दिन जब पेड्रो शाम के समय कॉलेज से अपने कमरे में आया, तो दरवाजा खुला देख कर चौंका। अन्दर झाँक कर देखा, तो प्रकाश हो रहा था, जबकि उसे यह भली-भाँति स्मरण है कि कॉलेज जाने से पूर्व उसने बिजली के स्वीच बन्द किये थे और दरवाजे में ताला भी लगाया था। जब किवाड़ खुला देखा, तो उसे यही लगा कि चोर घुस आये हैं। वह सावधानी सेकमरे के भीतर प्रवेश करने लगा। सामने का पर्दा धीरे-धीरे हटाया, तो उसने देखा कि एक व्यक्ति उसकी ओर पीठ किये दीवार पर कील ठोक रहा है। उसे पूरा विश्वास हो गया कि वह चोर ही है; पर कील ठोकते देख कर वह कुछ असमंजस में पड़ गया। पेड्रो दबे पाँव उसकी ओर बढ़ने लगा। कुछ समीप आने पर उसने देखा कि वह व्यक्ति पेड्रो की ही एक फ्रेम की हुई तस्वीर दीवार में कील के सहारे लटका रहा है। वह कुछ क्षण खड़ा रहा और उस अविज्ञात व्यक्ति की अगली हरकत की प्रतीक्षा करने लगा। चित्र टाँग लेने के उपरान्त वह व्यक्ति मुड़ा, तो यह देख कर स्तम्भित रह गया कि वह तो उसी की प्रतिछाया है। कुछ पल तक दोनों एक दूसरे को देखते रहने के पश्चात् अनुकृति अंतर्धान हो गई।

पढ़ने-सुनने में ऐसी घटनाएँ बड़ी अटपटी जान पड़ती हैं और दृष्टिभ्रम-सी लगती हैं; पर साधना विज्ञान के छाया-पुरुष वाली मान्यता उक्त भ्रान्ति को निर्मूल साबित कर देती है, जिसमें कहा गया है कि साधना-विज्ञान में अपना ही प्रतिरूप तैयार कर लेने और उससे तरह-तरह के कार्य करवा लेने में आश्चर्य अथवा अचम्भा जैसा कुछ भी नहीं है। यदि व्यक्ति थोड़ा-सा प्रयास करे, तो नियमित अभ्यास द्वारा वह अपना न सिर्फ छाया-पुरुष तैयार कर सकता है, अपितु उससे अनेक ऐसे भी कार्य करवा सकता है, जो स्वयं उसके लिए संभव नहीं।


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