आत्मै-वेदं सर्वम्

May 1987

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शरीर-अन्न, जल और हवा के आधार पर जीवित रहता है। सम्पन्नता-परिश्रम, चातुर्य और साधनों पर अवलम्बित है, किन्तु अन्तरात्मा को परिपोषण इनमें से किसी के सहारे भी नहीं मिल सकता। सम्पन्नता-सुविधा बढ़ाती है, उसके सहारे शरीरगत विलासिता, तृष्णा और अहंता का परिपोषण हो सकता है। चाटुकारों में मुँह प्रशंसा भी सुनी जा सकती है, किन्तु आत्मिक विभूतियों को अर्जित किये बिना कोई तृप्ति, तुष्टि और शान्ति का रसास्वादन नहीं कर सकता।

समृद्धि दूसरों को चमत्कृत कर सकती है, किन्तु श्रद्धा और सद्भावना उपलब्ध करने के लिए आन्तरिक उत्कृष्टता की आवश्यकता पड़ती है। इसी का दूसरा नाम सज्जनता है। इसे पवित्रता, महानता, उदारता और संयमशीलता के मूल्य पर ही उपलब्ध किया जा सकता है।

यदि शरीर को ही सब कुछ माना जाय तो उसके लिए सुविधा सम्पादन से विलास, वैभव से काम चल सकता है, किन्तु यदि ऐसा प्रतीत हो कि अपने भीतर अन्तरात्मा नाम की भी कोई वस्तु है और अन्तःकरण भी अपनी आवश्यकताएँ व्यक्त करता है, तो फिर यह अनिवार्य हो जाता है कि महानता और शालीनता को अपने चिन्तन एवं चरित्र का अविच्छिन्न अंग बनाया जाय। निर्वाह भर से संतोष किया जाय और अपनी प्रतिभा को आत्म-परिष्कार के लिए नियोजित किया जाय।


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